– हृदयनारायण दीक्षित
तमाम अभावों के बावजूद ग्राम निवासियों के मन में गांवों का आकर्षण है। कोरोना महामारी के प्रकोप के समय महानगरों में मजदूरी करने वाले ग्रामीण गांवों की ओर भागे। इनकी संख्या लाखों में थी। हजारों प्रवासी पैदल भी लम्बी यात्रा करते देखे गए थे। अपने गांव का नेह, स्नेह अव्याख्येय है। महामारी का प्रकोप भी गांवों में बहुत कम है। गांव वाले गंवई हैं लेकिन उन्हें गंवार भी कहते हैं। गंवार गांव वाले का पर्यायवाची है। गांवों का अपना संसार है, अपनी देशज संस्कृति। वे रिश्तों में डूबे हुए प्रायद्वीप हैं। गांव की परिभाषा करना सचमुच में बड़ा कठिन काम है। यहां प्रेम रस से लबालब उफनाते रिश्ते हैं, अपने होने का स्वाभिमान है, गरीबी और अभाव के बावजूद संतोष के छन्द हैं, सबका साझा व्यक्तित्व है, संक्षेप में कहें तो प्रीतिरस की झील में रिश्ते-नातों की मनतरंग वाली नाव ही हमारे गांव हैं। दुनिया के सभी महानगर गांव वालों की उत्पादन शक्ति और श्रमशक्ति से ही बने। प्राचीन महानगरीय हड़प्पा सभ्यता के पीछे भी सिंधु सरस्वती के विशाल भूभाग में फैले गांवों की श्रमशक्ति का ही कौशल है। गांव रोटी, दाल, दूध, सब्जी की गारंटी है। महानगरों के लोग प्रत्यक्ष कृषि उत्पादन में नहीं जुटते। औद्योगिक उत्पादन की श्रमशक्ति का मूल केन्द्र भी गांव ही है। गांव का जीवन ममता और समता में ही रमता है। यहां ईश भक्ति के साथ दर्शन का भी विविध आयामी सौन्दर्य है। यहां आस्तिक हैं। खांटी भौतिकवादी हैं, तो आध्यात्मवादी भी हैं।
गांव में सभी ऋतुओं की पुलक। मधुरस भरा बसंत। आम्र मंजरियों की सुगंध। चहुं तरफा मदन रस। जल-रस भरा सावन। चैती, कजरी। रक्षाबंधन का नेह। कजरी तीज। करवा चैथ। जगमग दीप पर्व। रावण दहन वाला दशहरा। उत्तरायण/दक्षिणायन के मिलनसंधि पर मकर संक्रांति। सहभोज। महाभोज। ब्रह्मभोज। ज्ञानदान, दीपदान, भूमिदान और कन्यादान। बिटिया की विदाई पर पूरा गांव रोता था। बारात की अगवानी और स्वागत में पूरा गांव लहालोट था। नदियां माताएं थीं, नीम का पेड़ देवी था, बरगद का पेड़ देव था। पीपल का पेड़ ब्रह्म था। कुलदेवता थे, चांद और सूरज भी देवता थे, ग्राम देवता भी थे। मुखिया गांव का मुख था। ऋग्वेद में इसे ‘ग्रामणी’ कहा गया। वे ‘‘प्रथमो हुत एति अग्रएति’’ सबसे पहले आमंत्रित होते हैं और सबके आगे चलते हैं।’’ (ऋ 10.107.5) हम सबके आदि पूर्वज मनु भी गांव निवासी थे। उनके पास हजारों गायें थीं। वे भी अपने गांव के प्रधान (ग्रामणी) थे। (ऋ 10.62.11)। हमारे गांव में भी मुखिया थे। वे पुलिस दरोगा और सरकारी अफसरों का सत्कार करते थे। बाद में प्रधान होने लगे। गांव पंचायतें सरकारी हो गयीं। चुनाव हुए तो गांव लड़ाई-झगड़े में फंस गये। अब हर जगह लट्ठम-लट्ठा है।
ग्राम गठन की इकाई ‘परिवार’ है। परिवार गठन का मूल आधार ‘विवाह’ संस्था हैं गांवों में विवाह एक पवित्र संस्कार था। विवाह ही किसी पुरूष को पिता होने का अवसर देता है और स्त्री को माँ होने का गौरव। विवाह पूरे गांव के उत्सव थे। पूरा गांव बारात की अगवानी करता था। पूरा गांव विवाहोत्सव को सफल बनाने में जुटता था। पति और पत्नी मर्यादा में थे। अजीब तरह के अव्याख्येय रिश्ते थे तब। विवाह की मजबूती का आधार अग्नि के 7 फेरे थे। ‘पाणिग्रहण’ (विवाह) भारत की दिलचस्प और वैज्ञानिक संस्था है। प्राचीन ग्राम परम्परा के तमाम भावुक सांस्कृतिक अवशेष गांवों में आज भी जस तस मौजूद हैं। कन्या विवाह के पूर्व दिन में पूरे गांव में घर-घर जाती है। वह पूरे गांव से आशीष मांगती है। अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में इसे ‘सोहाग’ मांगना भी कहते हैं। वह इस गांव को छोड़ रही है। अब नया घर मिलेगा। गांव नया होगा।
गांव एक एकात्म परिवार थे। गांव का अपना जीवमान व्यक्त्वि था। पूरा गांव समवेत उत्सवों में खिलता था और दुख में एक साथ दुखी था। हमारा गांव भी प्रकृति की गोद में है। यहां सूर्य का तेजस् और चन्द्रमा का मधुरस था। गांव में दिव्यता का प्रसाद। निर्दोष पक्षियों के कलरव। छत पर, गांव के पेड़ पर पक्षी है। उनकी बोली गांव वालों को प्रिय थी। गांव सांस्कृतिक रस में डूब कविता हैं। पूर्वज ऊषा के पहले ही जागते थे। जागे हुए लोग ही ऊषाकाल की अरुणिमा और मधुरिमा में भावुक हुए होंगे। उन्होंने ऊषा पर काव्य रचे, देवी जाना, देवी माना और ऊषा को नमन भी किया। सविता देव तो ऊषा के बाद ही उगते हैं। प्रकृति की कार्यवाही में संविधान नहीं टूटता। पहले ऊषा फिर सूर्योदय। गंवई गंवार इस संविधान को छाती के भीतर मर्मस्थल पर धारण करते हैं। सो ऊषा के पहले ही जागरण, ऊषा का स्वागत, सूर्य को नमन फिर सतत् कर्म।
गंवई गंवार को जगाने की जरूरत नहीं पड़ती। उन्हें रात्रि में नींद की गोली खाने की भी आवश्यकता नहीं। गांव की गंध में मस्ती है, कर्म यहां धर्म है सो रात्रि देवी का आगमन सहज ही उन्हें निद्रा देवी के आंचल में समेट लेता है। निद्रा यहां माता है। ये माता सभी प्राणियों में अवस्थित हैं- या देवी सर्वभूतेषु निद्ररूपेण संस्थिता। ऐसी निद्रा माता को पौराणिक ऋषियों ने बार-बार नमस्तस्यै कहा है। गांव और प्रकृति पर्यायवाची हैं। प्रकृति रूप रस गंध आपूरित मधुमती है। वनस्पति, कीट पतिंग और पशु पक्षियों से भरीपूरी है। हमारे गांव में जंगल थे। इनमें सियार, लोमड़ी, उदबिलाव, स्याही जैसे जानवर थे। मैंने सियारों के युगल को प्रेमालाप करते, लोमड़ी और उदबिलाव को आंख मटकाते बहुत नजदीक से देखा है। मैं सैकड़ों किस्म के पक्षी देखकर सृष्टि विविधता पर आश्चर्यचकित भी हुआ। उनके रंगबिरंगे रूप सौन्दर्य और विविध जीवन शैली वाले पहलुओं पर लहालोट भी हुआ हूँ।
अतिथि देवतुल्य हैं। गांव में अतिथि सत्कार की प्राचीन परम्परा है। गंवई गंवार अतिथि के सत्कार में अपना सर्वोत्तम प्रकट करते हैं। घर का सबसे अच्छा बिस्तर, घर का सबसे सुन्दर कमरा और सर्वोत्तम भोजन। गांव के अपने विश्वास। मैं आज भी व्यग्र हॅूं कि बिल्ली का रास्ता काटना या कौए का घर की मुड़ेर पर आना क्या अप्रिय या प्रिय घटित होने की पूर्व सूचना है? मैं नहीं जान पाया कि सच क्या है? गांव में गरीबी और अभाव का संसार है। तन पर कपड़ा नहीं, रोटी का जुगाड़ नहीं, तो भी गांव मस्त थे। होली में पूरा गांव नाचता था। अवनि अम्बर भी गंवई महारास में शामिल थे। मैं भी गाता था। बाढ़ और अषाढ़ सावन साथ-साथ आते थे। अषाढ़ पहले आता था। सावन के आने की खबर देता था। सावन का कहना ही क्या? आसमान पर बादलों की लुकाछिपी, रह-रहकर वर्षा, धूप छांव का खेल, प्रकृति की अल्हड़ मस्त जवानी।
गांव की अपनी सुरभि है, अपनी गंध है। गांवों से बाहर जाती और सांझ समय खेतों से लौटती गायें जो धूलि उड़ाती है, उसकी गंध देवों को भी प्रिय है। महानगरों में टेम्पो-वाहनों की दुर्गंध है। गांव में गेंदा है, चमेली है, रातरानी है, गुलाब है, गेहूं फसल की पुष्प गंध है, आम्र मंजरियों की रसगंध है, महुआ रस की मदहोश गंध है, चाची-नानी-भौजाई के रिश्तों की प्रीति गंध है, बड़ों के प्रणाम की रीति गंध है। नवरात्रि, सत्यनारायण कथा और विवाह मुण्डन पर आयोजित हवन की देव गंध है। भजन कीर्तन नौटंकी की गंधर्व गंध है। हाड़तोड़ श्रम तप के पसीने की मानुषगंध है। प्रकृति नर्तन की नृत्यगंध है। लोकगीतों की छन्द गंध है। गांव गंध सुगंध का हहराता दिव्य लोक है। गांव स्वाभाविक ही सबका आकर्षण हैं।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)
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