– भारती/माहेश्वरी
पूर्वांचल की लोक-परंपराओं के विविध रंग हैं। वे परंपराएं छठ महापर्व में उभरकर आती हैं, जिसे छठ पर्व के गीतों के जरिए सुना-समझा जा सकता है। इन गीतों में परंपराएं हैं, मान्यताएं हैं। प्रकृति है। प्रकृति के रचयिता हैं। छठ महापर्व के गीत लोक-परंपरा की गहराई का आभास कराते हैं और स्वयं में ढेरों कथाएं समेटे होते हैं।
छठ महापर्व के गीत का विराट भंडार है, जिन्हें महिलाएं पर्व के दौरान गाती हैं। उन गीतों में मूल रूप से भक्ति की अंत:धारा तो रहती ही है, उसके साथ-साथ विरह और अनुराग का भी भाव उभरकर आता है। इन गीतों में अभूतपूर्व शांति की अनुभूति है।
जब लोक-राग पर महिलाओं की आवाज तैरती है तो पूरा वातावरण भक्ति-भाव में डूब जाता है। इन गीतों का आकाश विराट है, जिसके भाव को अंजुरी में समेटने की कोशिश करना नादानी होगी। इन गीतों के बीच पूरब के लोग प्रकृति की ओर उन्मुख दिखाई देते हैं।
छठ पर्व के गीतों में राग देते वक्त किसी विशेष वाद्य-यंत्र का प्रयोग नहीं होता है। यहां महिलाओं का सामूहिक स्वर एकरसता लाने के लिए पर्याप्त होता है। सुबह-शाम हल्की ठंड के बीच जो हवा चलती है, वह गीत की ध्वनि को दूर तक ले जाती है। उससे जो भाव पैदा होता है, उसे कोई दुनियावी व्यक्ति एकबारगी नहीं समझ पाएगा। छठ के गीतों को वे लोग ही पूरी तरह आत्मसात कर पाएंगे, जो पर्व और त्योहार के बीच फर्क कर सकते हैं।
गीतों में यह बात आती है कि छठ माता की उपासना बड़ी साधना है। यह गहरा ध्यान है। यह ऊंची तपस्या है। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व से जो भाव पैदा होता है, उसमें ही उल्लास का पुट अंतर्निहित होता है, उससे शक्ति मिलती है। अंतर्मन निर्मल हो जाता है। उसी शक्ति से छठ का व्रत संपन्न होता है।
लोक-गीत परंपरा से निकलती हैं। वह सीमा से परे है। इनके बनने की तारीख नहीं होती। वह जब जहां प्रकट होता है, उसमें उस स्थान विशेष का रंग और स्वाद समाहित रहता है। छठ पर्व के गीतों को सुनते हुए हम पूर्वांचल के स्वाभाविक रंग और स्वाद को महसूस कर सकते हैं। यहां विवाद और विवेचना का कोई स्थान नहीं है। अगर महत्व है तो भाव के सरल-सहज प्रवाह का।
छठ महापर्व गीत किसी कथा से अधिक मर्म-स्पर्शी स्थलों की पहचान कराते हैं। अपने भीतर झांकने को प्रेरित करते हैं। यहां भाषा के सांकेतिक प्रयोग हैं, उसका असर भी गहरा पड़ता है। इन गीतों में समाहित भाव की स्थिरता और कोमलता के क्या कहने हैं! कुल मिलाकर वे गीत पवित्रता का भाव जगाते हैं।
भाषा के स्तर पर छठ पर्व के गीत बेहद सरल हैं। वे हमारे मन के आकाश को खोलते हैं और जिसमें सप्तरंगी छवि उभरकर आती है। इसका व्याकरण तरल है। कुल मिलाकर यह गीत पूरा वैविध्य विस्तार लिये हुए है। यह सब इसलिए है, क्योंकि समृद्ध लोक परंपरा के बीच गीतों का फूटना एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह विराट संस्कृति की देन है।
ऐसे गीत तभी बनते हैं, जब सभ्यता और संस्कृति स्थिर और समृद्ध होती हैं। तभी लोक-कलाएं और कथाएं विकसित होती हैं। उसी से शास्त्रीयता जन्म लेती है। छठ महापर्व है। इससे लोक परंपराएं जन्म लेती रही हैं। गीत बनते रहे हैं। अब देखना है कि 21वीं शताब्दी के संचारी और प्रवासी पूर्वांचल के लोगों के जरिए यह परंपरा कहां तक जाती है!
बिहार में कई बोलियां हैं। इनमें मैथिली और भोजपुरी भाषा का सम्मान लिये हुए हैं। इसके अतिरिक्त मगही और अंगिका का भी महत्व गरिमा के साथ बना हुआ है। इन सभी में छठ पर्व के गीत मौजूद हैं। देवी और सूर्य की अराधना करने वाले गीत तो हैं ही, ऐसे गीत भी मिलते हैं, जो प्रकृति के साथ अन्य जीव-जंतुओं से संवाद स्थापित कराते हैं।
ऐसा ही एक गीत है- ‘केरबा जे पड़ल छै घौदसं, ओइ पर सूगा मड़राय/ मारबौ रे सुगबा धनुखसं, सूगा खसय मुरुझाय।’ इस गीत में पक्षी से आग्रह किया जा रहा है कि वह उस पके हुए फल को अपनी चोंच से जूठा न करे, क्योंकि यही फल सूर्यदेव को चढ़ाया जाना है।
गीतों में छठ पर्व की तैयारी की चर्चा बड़ी खूबसूरती के साथ है। एक ऐसा ही उदाहरण है- ‘आंगना में पोखरि खुनायल, छठि मइया अयतन आई/ दुअरा पर तमुआ तनायल, छठि मइया अयतन आइ/ अंचरा स गलिया बहारब, छठि मइया अयतन आइ।।’
कई गीत ऐसे हैं, जिसमें सूर्य देवता से प्रार्थना की जा रही है कि वे कम से कम छठ पर्व के दिन तो उगने में देर न करें। कहीं उनसे आग्रह है कि अगर पूजा में कोई भूल-चूक हो गई हो, तो देवता-देवी उन्हें माफ कर दें। कुछ गीत तो काफी लोकप्रिय हैं। इन गीतों में एक है- ‘केलवा के पात पर उगेलन सूरजमल, आजू के दिनवां हो दीनानाथ, हे लागत एती देर।’
यह जानकर आश्चर्य होगा कि छठ पूजा के दौरान घाट पर गाए जाने वाले ऐसे गीत भी हैं, जो सामाजिक वर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करते हैं और श्रद्धालुओं को एक पंक्ति में ले आते हैं।
इस पर्व में वर्ण या जाति के आधार पर कोई भेद नहीं है। हर कोई मिल-जुलकर इसमें शामिल होता है। इससे जाहिर है कि समाज में सभी को बराबरी का दर्जा दिया गया है। सूर्य देवता को बांस के बने जिस सूप और डाले में रखकर प्रसाद अर्पित किया जाता है, उसे सामाजिक रूप से अत्यंत पिछड़ी जाति के लोग बनाते हैं।
इससे छठ पर्व के सामाजिक संदेश स्पष्ट हैं। गीत में उन्हें महत्व प्राप्त है। उगते सूर्य की अराधना में एक गीत मैथिली में गया जाता है, वह गीत इस तरह है- ‘डोमिन बेटी सुप नेने ठाढ़ छै, उग हो सुरुज देव/ अरघ केर बेर, हो पुजन केर बेर। मालिन बेटी फूल नेने ठाढ़ छै, उग हो सुरुज देव।।’ गीतों में पेड़-पौधे, फूल-पत्ती की विस्तार से चर्चा है। उनकी महत्ता का जिक्र है। मसलन- ‘कोन जल पटेब मालिन, बेली-चमेली/ मालिन कोन जल पटेब अड़हुल फूल।।’ इन गीतों में परंपराएं भी हैं और मान्यताएं भी। प्रकृति भी है और प्रकृति के रचयिता भी।
उल्लेखनीय है कि नहाय-खाए से छठ महापर्व की शुरुआत होती है। फिर उगते सूरज को अर्घ्य देने के बाद पूजा अनुष्ठान को पूर्ण माना जाता है। सोमवार से छठ महापर्व प्रारंभ हो गया है। गुरुवार सुबह अर्घ्य के साथ पर्व पूर्ण होगा।
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