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    धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा मात्र भ्रम है

  • June 08, 2023

    – पंकज जगन्नाथ जयस्वाल

    कोई सोच भी नहीं सकता कि 140 करोड़ की आबादी वाला देश 70 साल से भी ज्यादा समय से ‘सेक्युलरिज्म’ शब्द के झांसे में फसा हुआ है। विरोधी मान्यताओं वाले राजनीतिक समूह ‘धर्मनिरपेक्षता’ के बैनर तले एकजुट हो गए हैं। कई राजनीतिक दल चुनाव जीतने और धर्म के खिलाफ शासन करने के लिए तुरुप के पत्ते के रूप में ‘धर्मनिरपेक्षता’ का उपयोग करते हैं। धर्म का पालन करने वाले राजनीतिक दल की कड़ी आलोचना की जाती है। उसे हराने के लिए तमाम तरह के तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है। यह एक ऐसे देश में हो रहा है जहां राजनीतिक जीवन की दस हजार साल की परंपरा सभी के लिए न्याय और समानता को स्थापित करती है, जैसा कि रामराज्य में देखा गया है।

    धर्म, स्वामी विवेकानंद के अनुसार, भारत का मूल है। लोगों को यह विश्वास करने में गुमराह किया गया कि रिलीजन का अर्थ धर्म है। भारत के इतिहास में ऐसा कोई क्षण नहीं था जहां रिलीजन राज्य सरकार पर हावी था जैसा कि वर्तमान सहस्राब्दी के मध्य में यूरोपीय देशों में हुआ था और आज भी है। लोग धर्म के अर्थ से अच्छी तरह वाकिफ हैं क्योंकि वे युगों से पुत्र-धर्म (पुत्र के कर्तव्य), पत्नी-धर्म (पत्नी के कर्तव्य) और राज धर्म (सरकार के कर्तव्य) जैसे अर्थों के साथ जीवन जीते आ रहे है। कई राजनीतिक दलों के नेता, हालांकि ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द की गलत धारणा को तो स्वीकार तो करते हैं, लेकिन अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए लोगों को गुमराह कर रहे हैं। समाज और राष्ट्र को नुकसान पहुंचा रहे है।

    आज ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ शब्द का प्रयोग एक धर्म आधारित राज्य के विपरीत किया जाता है। इस शब्द का उपयोग केवल पश्चिमी विचार पद्धति की एक प्रति है। हमें इसे भारत में लाने की आवश्यकता नहीं थी। इसे पाकिस्तान से अलग करने के लिए हमने ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ करार दिया। यह गलत सोच का कारण बन रहा है। धर्म को धर्म के बराबर रखा गया था और एक ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ को धर्म से रहित राज्य के रूप में परिभाषित किया गया था। पश्चिमी देश ‘धर्मनिरपेक्षता’ को खुद नहीं मानते और जो देश मानता है वह बरबादी की ओर बढ़ रहा है। अपनी विचारधारा और संस्कृति को खो रहा है। बड़ी संख्या में मिशनरी पूरी दुनिया में लोगों के दिमाग में जहर घोलकर ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के लिए क्रूरता से काम कर रही है। मिशनरी, उनके एनजीओ और अनुयायी गलत विमर्श स्थापित करते हैं और तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्षता’ के नाम पर हिंदुओं पर दुर्बुद्धि के आरोप लगाते हैं।


    सवाल यह है कि क्या इस्लामिक देशों में ‘धर्मनिरपेक्षता’ के बारे में सोचना वास्तव में संभव है? भारत में विशेष रूप से हिंदू, लगातार ऐसे धर्मांतरण माफिया के निशाने पर है। यह लोग विशाल सनातन संस्कृति को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं। जो जहर भरकर धर्मांतरित हो गए हैं क्या उनका जीवन पोषित, समृद्ध और खुशहाल है। इसका उत्तर नहीं है। बल्कि, जीवन और अधिक दुखी, तनावपूर्ण और हिंसक हो गया है। कई अफ्रीकी देश, ईरान, श्रीलंका, मुख्य रूप से भारत के उत्तर पूर्वी भाग में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण कराया गया है। फिर भी उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति गंभीर बनी हुई है। बुनियादी आवश्यकताओं के लिए हिंसक उपाय का सहाला लिया जा रहा है।

    2014 से पहले के उत्तर-पूर्वी राज्यों का परिदृश्य बेहद डरावना रहा है। जब से केंद्र में मोदी सरकार आई है तब से हालात बदले हैं। दरअसल धर्मांतरण विभाजित और नष्ट करता है। धर्म जोड़ता है और उत्थान करता है। इसे तथाकथित सेक्युलर नहीं समझ सकते। आज धर्मनिरपेक्षता की यह फर्जी अवधारणा न केवल सामाजिक और आर्थिक स्तर पर कई परिवारों को बरबाद कर रही है, बल्कि मानवता और मानवीय मूल्यों को खारिज करने वाली विचारधारा को फैलाने के लिए आतंकवादी संगठनों और उनके समर्थकों का सहारा ले रही है।

    धर्म ध्रुवीय विपरीत और जीवन जीने का तरीका है। इसका हर किसी को एक बेहतर और अधिक शांतिपूर्ण समाज के लिए पालन करना चाहिए। हिंदू आस्था, जिसे सनातन भी कहा जाता है, एक धर्म है, रिलीजन नहीं। यदि कोई राष्ट्र जीवन के सभी पहलुओं में नैतिक रूप से समृद्ध होना चाहता है, तो उसे धर्म का गहराई से पालन करना होगा। इससे एक महान राष्ट्र और अंततः एक बेहतर दुनिया का उदय होगा। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का दर्शन धर्मनिरपेक्षता की गलत धारणाओं को दूर करता है। उनका दर्शन मानवीय मूल्यों के साथ मानवता के विकास का मार्गदर्शन प्रदान करता है। वह कहते हैं- ‘कुछ ने हमारे (निधर्म -बिना धर्म के) राज्य की संज्ञा दी, जबकि अन्य ने बेहतर लगने वाले नाम की तलाश में इसे (धर्मनिरपेक्षता – धर्म के प्रति उदासीन) राज्य कहा। लेकिन ये सभी दावे अनिवार्य रूप से गलत हैं। क्योंकि कोई राज्य धर्म के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता है या धर्म के प्रति उदासीन नहीं हो सकता है, जैसे आग गर्मी के बिना मौजूद नहीं हो सकती है। जब आग अपनी गर्मी खो देती है, तो वह आग नहीं रह जाती। एक राज्य जो मुख्य रूप से धर्म, कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए मौजूद है, निधर्म या धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता। निधर्म है तो अराजक राज्य होगा और अधर्म है तो किसी राज्य के अस्तित्व का सवाल ही कहां है? दूसरे शब्दों में, (धर्मनिरपेक्ष -धर्म के प्रति उदासीनता का रवैया) और राज्य की अवधारणा स्व-विरोधाभासी है। राज्य केवल (धर्म राज्य-धर्म का शासन) हो सकता है और कुछ नहीं। कोई भी अन्य परिभाषा राज्य के मूल उद्देश्य के खिलाफ जाएगी।’

    धर्म हमेशा बहुसंख्यक वर्ग से जुड़ा नहीं होता है। धर्म शाश्वत है। नतीजतन, लोकतंत्र की परिभाषा के तहत, केवल यह कहना कि यह लोगों की सरकार है, अपर्याप्त है। यह लोगों के लाभ के लिए भी होना चाहिए। निर्णय लेने का अधिकार केवल धर्म को है। नतीजतन, एक लोकतांत्रिक सरकार, या ‘जन राज्य’ को भी धर्म, या ‘धर्म राज्य’ पर ही चलना चाहिए अर्थात ‘लोकतंत्र’ की परिभाषा में। ‘लोगों की सरकार, लोगों द्वारा और लोगों के लिए’, ‘की’ स्वतंत्रता के लिए खड़ा है, ‘द्वारा’ लोकतंत्र के लिए खड़ा है, और ‘के लिए’ धर्म को इंगित करता है। इसलिए सच्चा लोकतंत्र वह है जहां स्वतंत्रता के साथ-साथ धर्म स्वतंत्रता भी है।

    हमारे देश में एक भी ऐसी भावना नहीं है जो धर्म से जुड़ी न हो। परिणामस्वरूप, हम मानते हैं कि हमारा राज्य धर्म का परित्याग नहीं कर सकता है। हमारी राय में, एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का अर्थ धर्म से रहित राज्य नहीं है। इस देश में, धर्म एक विश्वास को संदर्भित करता है, और जो लोग इसका पालन करते हैं उन्हें संप्रदायों के रूप में संदर्भित किया जाता है, जैसे कि जैन, शैव और ईसाई। बेशक, राज्य इनमें से किसी भी संप्रदाय का हिस्सा नहीं हो सकता है। इसे हर चीज की निष्पक्ष जांच करनी चाहिए। परिणामस्वरूप, हम तर्क दे सकते हैं कि एक राज्य गैर-सांप्रदायिक है। यह आदर्श होगा, लेकिन ऐसी स्थिति, भले ही वह एक संप्रदाय के प्रति पक्षपाती या दूसरे के खिलाफ न हो, भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति दोनों को प्राप्त करने के तरीकों और साधनों का समर्थन कर सकती है, और इसलिए इसे धर्म राज्य के रूप में जाना जाता है।

    पश्चिम ने धर्म और राज्य को पूरी तरह से अलग होते हुए देखा। बाइबल में कहा गया है-‘जो सीजर का है, वह सीजर को दो और जो परमेश्वर का है, वह परमेश्वर को दो।’ हालांकि, पंडित दीन दयालजी ने धर्म को एक धर्म के रूप में नहीं बल्कि शाश्वत कानून के रूप में देखा है, जिसमें शासन कला सहित सब कुछ शामिल होना चाहिए। पंडित नेहरू के अनुसार लोकतंत्र यूरोप का सबसे बड़ा उपहार था। हालांकि, डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर और पंडित दीन दयाल जैसे दिग्गजों ने लोकतंत्र को भारत के लिए एक स्पष्ट विकल्प के रूप में देखा।

    25 नवंबर, 1949 को आंबेडकर ने संविधान सभा को याद दिलाया था कि लोकतंत्र भारत के लिए नया नहीं है। उन्होंने कहा था- ‘ऐसा नहीं है कि भारत नहीं जानता था कि लोकतंत्र क्या है। एक समय था जब भारत को लोकतंत्र के रूप में देखा जा सकता था, और जहां राजशाही मौजूद थी, वे या तो निर्वाचित थे या सीमित थे। वे कभी भी असंवैधानिक नहीं थे। ऐसा नहीं है कि भारत संसदों से अपरिचित था या संसदीय प्रक्रिया से । बौद्ध भिक्षु संघों के एक अध्ययन से पता चलता है कि न केवल संसदें थीं (संघों से मतलब संसदों से ज्यादा कुछ नहीं थे), बल्कि संघ भी संसदीय प्रक्रिया के उन सभी नियमों को जानते थे और उनका पालन करते थे जो आधुनिक समय में ज्ञात है। उनके पास था बैठने की व्यवस्था, प्रस्ताव, संकल्प, कोरम, व्हिप, मतों की गिनती, मतपत्र मतदान, निंदा प्रस्ताव, नियमितीकरण आदि के नियम। यद्यपि बुद्ध ने संसदीय प्रक्रिया के इन मानदंडों को संघ की बैठकों में लागू किया, उन्होंने उन्हें पुरातन राजप्रणाली से लिया होगा।’ इसलिए समय आ गया है कि इस नकली ‘धर्मनिरपेक्षता’ को पहचाना जाए और देश को ‘धर्म’ पर कार्य करने की अनुमति देने के लिए जबरन धर्मांतरण और मानसिक विषाक्तता के खिलाफ लड़ाई लड़ी जाए।

    (लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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