चुनाव से पहले चकल्लस…
मुझे चुनाव लडऩा चाहिए या नहीं… मुझे मुख्यमंत्री रहना चाहिए या नहीं…मैं नहीं रहूंगा तो बहुत याद आऊंगा… जैसे डायलाग बोलकर जनता की संवेदनाएं लूटने वाले शिवराजसिंह चौहान ने पार्टी को ठेंगा दिखाकर न केवल खुद को चुनाव का चेहरा बना लिया, बल्कि आखिरी सूची में अपने सारे मंत्रियों और समर्थकों को टिकट दिलाकर अपनी ताकत का एहसास भी उन नेताओं को करा दिया, जो उनकी कुर्सी पर नजर लगा रहे थे… खुद को मुख्यमंत्री का दावेदार बता रहे थे… दिल्ली से मध्यप्रदेश की सत्ता पर हुक्मरानी जता रहे थे… 18 सालों की सत्ता पर काबिज रहते हुए राजनीति की पाठशाला के विद्यार्थी रहे शिवराज अब न केवल आचार्य और प्राचार्य बन गए हैं, बल्कि चाणक्य बनकर चुनौतियों को कुचलने की महारत हासिल कर चुके हैं… शिवराज की चतुर नीति ने सारे दावेदारों को न केवल उनकी सीट पर घेर दिया, बल्कि खुद इस संग्राम के सम्राट बनने की तैयारी में डेढ़ सौ से अधिक सभाएं और सौ से अधिक प्रत्याशियों के प्रचार की कमान संभालकर बता दिया कि मैं ही हूं…राजनीति के इस चाणक्य की चतुराई से तो खुद सल्तनते हिंद के सिपहसालार अमित शाह भी तब हैरान रह गए, जब उन्हें अपनी पूरी आयातित फौज के चुनाव में फंसने की खबरें मिलीं… यह शिकन तो तब और बढ़ गई, जब मुख्यमंत्री पद के दावेदार और प्रधानमंत्री के चहेते मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर पर चुनाव के चार दिन पहले ऐसी कालिख उछाली गई कि दिल्ली तक दागदार हो गई…वो तो कांग्रेसियों में दम नहीं था, वरना मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार के मुद्दे को हवा नहीं मिल जाती, बल्कि आंधी चल जाती और तूफान आ जाता और इस तूफान का केन्द्र मध्यप्रदेश नहीं माना जाता, बल्कि दिल्ली पर हर कोई उंगली उठाता और बात 2024 तक पहुंच जाती…इसलिए चुनाव के अंतिम दिनों में शाही सवारी तक मध्यप्रदेश छोडक़र छत्तीसगढ़ और गुजरात का कूच कर गई और सल्तनत शिवराज के हाथ रह गई… अब हकीकत यह है कि भाजपा का चेहरा भी शिवराज ही हैं और मोहरा भी वही… बस सेहरे का इंतजार है…
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