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    श्री गुरु गोबिंद सिंहः त्याग और बहादुरी की मिसाल

  • January 06, 2022

    – कुसुम चोपड़ा

    “चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊं,
    सवा लाख से एक लड़ाऊं,
    तबे गोबिंद सिंह नाम कहाऊँ”

    मुगलों के साथ लोहा लेने वाले सिखों के दसवें गुरु और खालसा पंथ के संस्थापक श्री गुरु गोविन्द सिंह जी अपनी वीरता और बहादुरी के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने धर्म की राह पर खुद के साथ-साथ अपने परिवार को भी हंसते-हंसते कुर्बान कर दिया।

    श्री गुरु गोविन्द सिंह का जन्म पटना में 22 दिसम्बर 1666 को नौवें सिख गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी और माता गुजरी के घर हुआ था। उनके बचपन का नाम गोविन्द राय था। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था और जहां उन्होने शुरू के चार वर्ष बिताये, वहीं पर अब तख्त श्री हरिमंदर जी या पटना साहिब स्थित है। चार साल के बाद सन् 1670 में उनका परिवार पंजाब में हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आकर बस गया। चक्क नानकी ही आजकल आनन्दपुर साहिब के नाम से जाना जाता है। यहीं पर उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। उन्होंने फारसी और संस्कृत की शिक्षा ली तो वहीं एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल भी सीखा। इस दौरान गोविन्द राय जी लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान, इंसानियत, निडरता और बहादुरी का भी संदेश देते थे।

    गुरु गोबिन्द राय जी की तीन पत्नियाँ थीं। 21 जून, 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ हुआ। इन दोनों के 3 पुत्र -जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फतेह सिंह हुए। 4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुन्दरी के साथ आनन्दपुर में हुआ। उनसे एक बेटा हुआ अजित सिंह हुआ। 15 अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया।

    उन दिनों मुगल बादशाह औरंगजेब द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के विरुद्ध फरियाद लेकर कश्मीरी पंडित गुरु तेग बहादुर जी के दरबार में आये और कहा कि औरंगजेब ने उनके सामने यह शर्त रखी गयी है कि कोई ऐसा महापुरुष लेकर आओ, जो खुद का बलिदान देकर भी इस्लाम स्वीकार करने पर राजी ना हो, तो किसी का भी धर्म परिवर्तन नहीं करवाया जाएगा। उस समय गुरु गोबिन्द सिंह जी मात्र नौ साल के थे। उन्होंने पिता गुरु तेग बहादुर जी से कहा- पिताजी, आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है! कश्मीरी पण्डितों की फरियाद सुन 11 नवम्बर 1675 को गुरु तेग बहादुर जी औरंगजेब के दरबार में पेश हुए और इस्लाम ना कबूलने की बात कही। जिसके बाद दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से उनका सिर कटवा दिया गया।

    गुरु तेग बहादुर के शहीद होने के बाद 29 मार्च 1676 को गोविन्द राय सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए। 10वें गुरु बनने के बाद भी उनकी शिक्षा जारी रही। शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ उन्होंने घुड़सवारी तथा सैन्य कौशल सीखे और 1685 तक वे हिमाचल प्रदेश में यमुना नदी के किनारे स्थित पांवटा नामक स्थान पर आ गए। यहां तीन साल के प्रवास के दौरान उन्होंने पांवटा के राजा मत प्रकाश के अनुरोध पर अपने अनुयायियों की मदद से एक किले का निर्माण करवाया और कई ग्रंथों की रचना की। नवंबर 1688 में वे वापस आनंदपुर साहिब आ गये।

    1695 में लाहौर के मुगल बादशाह दिलावर खान ने अपने बेटे हुसैन खान को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा लेकिन मुगल सेना बुरी तरह से हार गई और हुसैन खान और लाखों सैनिक मारे गये। पहाड़ी क्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम देखकर मुगल सम्राट औरंगजेब चिंता में पड़ गया और उसने यहां पर मुगल साम्राज्य स्थापित करने के लिए अपने बेटे के साथ सेना को भेजा। मुगलों की विशाल सेना से टकराने के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 में बैसाखी के दिन खालसा धर्म की स्थापना कर पंज प्यारे और पांच ककारों- केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कछेरा का महत्व समझाया।

    इधर, मुगलों के साथ उनकी लड़ाई लगातार जारी थी। इस दौरान, औरंगजेब ने 27 दिसम्बर 1704 को उनके दोनों छोटे साहिबजादों और जोरावर सिंह व फतेह सिंह जी को दीवारों में चुनवा दिया। गुरुजी को जब इसका पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो चुका है।

    8 मई 1705 में पंजाब के ‘मुक्तसर’ में उनका मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। अक्टूबर 1706 में गुरुजी दक्षिण की तरफ गए जहाँ उन्हें औरंगजेब की मृत्यु की खबर मिली। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उन्होंने बहादुरशाह जफर को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे, जिसे देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से जानलेवा हमला कर दिया, जिसके चलते 7 अक्टूबर 1708 में गुरु गोबिन्द सिंह जी नांदेड साहिब में ज्योति-ज्योत समा गए।

    अपने अंत समय में गुरु गोबिंद सिंह जी ने सभी सिखों को कहा कि वे श्री गुरु ग्रंथ साहिब को ही अपना गुरु मानें, जिसके बाद से सिख धर्म में श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी को ही सच्चा मार्गदर्शक मानकर इसमें लिखी बातों का अनुसरण किया जाता है । गुरुजी के बाद माधोदास, जिन्हें गुरुजी ने सिख बनाकर बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी।

    त्याग और बहादुरी की मिसाल गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा और सच्चाई की राह पर चलते हुए गुजार दिया। उनकी शिक्षाएं आज भी हमें प्रेरित करती हैं।

    (लेखिका, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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