-रमेश सर्राफ धमोरा
‘सावन के झूलों ने मुझको बुलाया, मैं परदेसी घर वापस आया’। सावन आते ही लोगों की जुबान पर ऐसे गाने खुद-ब-खुद आने लगते हैं। पहले लोगों को सावन के महीने का बेसब्री से इंतजार रहता था। सावन शुरू होते ही गांव की गलियों से लेकर शहरों तक झूले पड़ते थे। महिलाएं झूला झूलतीं और गाती थीं। लड़कियां ससुराल से मायके आती थीं। लेकिन अब ये सब परंपरायें समाप्त होती जा रही है। अब न तो पेड़ों पर झूले डल़ते हैं और ना ही गीत सुनाई देतें है।
सावन के आते ही गली-कूचों और बगीचों में मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूले का लुत्फ उठाया करती थीं। अब न तो पहले जैसे बगीचे रहे और न ही मोर की आवाज सुनाई देती है। यानी बिन झूला झूले ही सावन गुजर जाता है। लगातार पड़ रहे प्राकृतिक आपदाओं के कहर का असर माना जाए या वन माफियाओं की टेढ़ी नजर का परिणाम कि गांवों में भी बगीचे नहीं बचे, जहां युवतियां झूला डाल कर झूल सके व मोर विचरण कर सके।
सावन शुरू होने के बाद भी इसका एहसास ही नहीं हो रहा है। उमंग और खुमारी का संगम इसी महीने में हरियाली तीज पर खत्म होता था। सखियों को सुख-दुख बांटने, साथ बैठकर मेंहदी लगाने की परंपरा फिर गीत सब गुम हो चुका है। बच्चे अब झूले नहीं वीडियो गेम में मस्त रहते हैं। महिला संगठन भी अब किटी पार्टी जैसे आयोजनों तक सीमित हैं। झूले की परंपरा लुप्त होने के पीछे सबसे प्रमुख वजह मनोरंजन के भरपूर साधन भी हैं।
गांव की बुजुर्ग महिलायें बताती हैं कि सावन के नजदीक आते ही बहन-बेटियां त्यौहार रक्षाबंधन के बहाने या इसके लिए ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और पेड़ों पर झूला डाल कर झूलती थीं। झुंड के रूप में एकत्रित होकर महिलाएं सावनी गीत गाया करती थीं। त्योहार पर बेटियों को ससुराल से बुलाने की परम्परा आज भी चली आ रही है। लेकिन जगह के अभाव में न तो कोई झूला झूल पाता है और न ही अब मोर, पपीहा व कोयल की सुरीली आवाज ही सुनने को मिलती हैं।
बुजुर्गों की मानें तो दस साल पहले रक्षाबंधन तक झूले का आनंद लिया जाता रहा है। गांव के पेड़ पर मोटी रस्सी से झूला डाला जाता था और सारे गांव की बहन-बेटियां झूलती थीं। अब पेड़ ही नहीं हैं तो झूला कहां डालें। सावन के महीने में नवविवाहित महिलाओं को अपने मायके जाने की परम्परा तो आज भी राजस्थान की संस्कृति में अनवरत रूप से चली आ रही है।
पहले सावन का महीना आते ही गांव में सावन की मल्हारें गूंजने लगती थी। गांवों में युवतियां श्रावणी गीत गाकर झूला झूलने का आनंद लेती थी। वहीं जिन नव विवाहिता वधुओं के पति दूरस्थ स्थानों पर थे उनकों इंगित करते हुए विरह गीत सुनना अपने आप में लोक कला का ज्वलंत उदाहरण हुआ करते थे। समय के साथ पेड़ गायब होते गए और उनके स्थान पर बहुमंजिला इमारतों के बनने से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले भी यादें बनकर हमारी परम्परा से गायब हो रहे हैं। अब सावन माह में कुछ जगहों पर ही झूले दखाई देते हैं। जन्माष्टमी पर मंदिरों में सावन की एकादशी के दिन भगवान को झूला झुलाने की परम्परा अभी भी निभाई जा रही है।
भारतीय संस्कृति में झूला झूलने की परम्परा वैदिक काल से ही चली आ रही है। भगवान श्रीकृष्ण राधा संग झूला झूलते और गोपियों संग रास रचाते थे। मान्यता है कि इससे प्रेम बढ़ने के अलावा प्रकृति के निकट जाने एवं उसकी हरियाली बनाये रखने की प्रेरणा मिलती है। संस्कृति एवं परम्परा की ही देन है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों के गांव और कस्बों में लोग झूला झूलते हैं। विशेष कर महिलाएं और युवतियां इसकी शौकीन होती हैं। सावन व भादो का महीना हमे प्रकृति के और निकट ले जाता है। झूले झूलने के दौरान गाये जाने वाले गीत मन को सुकून देते हैं।
सावन में झूला झूलना मात्र आनंद की अनुभूति नहीं कराता अपितु यह स्वास्थ्यवर्धक प्राचीन योग भी है। सावन महीने की विशेषता है कि इस माह हवा अन्य महीनों की तुलना में अधिक शुद्व होती है। सावन में चारों तरफ हरियाली छाई होती है। हरा रंग आंखों पर अनुकूल प्रभाव डालता है। इससे नेत्र ज्योति बढ़ती है। झूला झूलते समय श्वांस-उच्छवास लेने की गति में तीव्रता आती है। इससे फेफड़े सुदृढ़ होते हैं। इसके साथ ही झूलते समय श्वांस अधिक भरा, रोका एवं वेग से छोड़ा जाता है। इससे नवीन प्रकार का प्राणायाम पूर्ण हो जाता है जो स्वास्थ्य वर्धक है। झूलते समय रस्सी पर हाथों की पकड़ सुदृढ़ होती है। इसी प्रकार खड़े होकर झूलते समय झूले को गति देने बार-बार उठक-बैठक लगानी पड़ती हैं। इन क्रियाओं से एक ओर हाथ, हथेलियों और उंगलियों की शक्ति बढ़ती है वहीं दूसरी ओर हाथ-पैर और पीठ-रीढ़ का व्यायाम हो जाता है।
अब सावन तो आता है पर अपने रंग नहीं बिखेर पाता। जिस सावन के आते ही नववधु ससुराल से मायके पहुंच जाती थी। अब वैसा सावन नही होता है। वर्तमान समय में अब झूले की परम्परा लुप्त हो रही है। सावन भादों की खुशबू अब कहीं नहीं दिखती है। कुछ स्थानों को छोड़ कर लोग इसका आनंद नहीं ले पा रहे हैं। झूलों के नहीं होने से हमे लोक संगीत भी सुनने को नहीं मिलता है।
आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति के संग झूला झूलने की बात अब कहीं नहीं दिखती है। आज से दो दशक पहले तक झूलों और मेंहदी के बिना सावन की परिकल्पना भी नही होती थी। आज के समय में सावन के झूले नजर ही नहीं आते हैं। लोग इसका कारण जनसंख्या घनत्व में वृद्धि के साथ ही वृक्षों की कटाई मानते हैं। लोग अब घर की छत पर या आंगन में ही रेडीमेड फ्रेम वाले लोहे के झूले पर झूलकर मन को संतुष्ट कर रहे हैं। बुद्धिजीवी वर्ग सावन के झूलों के लुप्त होने की प्रमुख वजह सुख सुविधा और मनोरंजन के साधनों में वृद्धि को मान रहे हैं। वर्षा ऋतु की खूबियां अब किताबों तक ही सीमित रह गयी है। वर्षा ऋतु में सावन की महिमा धार्मिक अनुष्ठान की दृष्टि से तो बढ़ रही है। मगर प्रकृति के संग जीने की परम्परा थमती जा रही है।
झूला झूलने के खत्म हुए रिवाज के लिए गांवों में फैल रही वैमनष्यता जिम्मेदार हैं। पहले गांव के लोग हर बहन-बेटी को अपनी मानते थे लेकिन अब जमाना बदल गया है। जिसके हाथ में रक्षा सूत्र बांधा जाता है वही भक्षक बन जाता है। कुल मिला कर बाग-बगीचों के खात्मे के साथ जहां मोर-पपीहों की संख्या घटी है वहीं भाईचारे में कमी आई है। नतीजतन झूला झूलने की परम्परा को ग्रहण लग गया है।
पहले संयुक्त परिवार में बड़े-बूढ़ों के सानिध्य में लोग एक दूसरे के घरों में एकत्रित होते थे। आज बढ़ती एकल परिवार की प्रवृति ने आपसी स्नेह को खत्म कर दिया है। महिलाएं सामुदायिक केन्द्रो में जाकर पर्व मनाती हैं। शहरों में अब झूले डालने के लिए जगह की तलाश करनी पड़ती है। अब तो पारम्परिक पहनावा भी आधुनिकता की भेंट चढ़ गया है। अब छुट्टी के दिन लोग परिवार के साथ बाग-बगीचों में जाकर सावन का त्यौहार मनाने की रस्म पूरी करते हैं। वर्षा ऋतु में सावन की खूबियां अब किताबों तक ही सीमित रह गई हैं। प्रकृति के साथ जीने की परम्परा थमती जा रही है। सावन में एक माह तक शहर व ग्रामीण क्षेत्रों में झूला झूलने का दौर भी अब समाप्त हो गया है।
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