– गिरीश्वर मिश्र
आज पर्यावरण का क्षरण और प्रदूषण तेजी से विकराल हो रहा है और विश्व के सभी देश विकट चुनौती से जूझ रहे हैं। भारत ने पर्यावरण और पर्यावरण की नैतिकता, प्रकृति के स्वरूप और महत्व को गहराई से अंगीकार किया था। यहां समस्त जगत में ईश्वर की उपस्थिति की अनुभूति की जाती रही है : ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित जगत्यां जगत। फलतः प्रत्येक वस्तु पवित्र और धरती को माता कहा गया। प्रातःकाल उठ कर बिस्तर से उतार कर धरती पर पैर रखने के पहले पृथ्वी को प्रणाम करने और पैर रखने की विवशता के लिए क्षमा मांगते हुए यह कहने का विधान है ;
समुद्र वसने देवि पर्वतस्तनमंडिते ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ।।
अर्थात समुदरूपी वस्त्रोंको धारण करनेवाली, पर्वतरूपस्तनों से मंडित भगवान विष्णुकी पत्नी पृथ्वी देवि! आप मेरे पाद-स्पर्श को क्षमा करें। उपर्युक्त भावना हिन्दू , बौद्ध और जैन सभी भारतीय धर्मों में मिलती है।
पर्यावरण का महत्व और पारस्थितिक संतुलन और समन्वय के विचार वैदिक काल से ही प्राप्त होते हैं। मनुष्य और प्रकृति के सम्बन्ध बेहद महत्वपूर्ण हैं। अथर्ववेद भूमि को माता कहा गया : माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या :। नदियों, वृक्षों, पर्वतों, पशु-पक्षियों, वनों, लताओं सब की रक्षा को महत्व दिया गया। मनुष्य प्रकृति के बीच वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार को समझते हुए जीवन-चर्या का विधान किया गया। पश्चिम में प्रकृति जड़ है उसमें देवत्व नहीं है पर भारत में अरण्य में ज्ञान की साधना होती थी इसलिए प्रकृति की रक्षा और उसके साथ लय में रहना श्रेयस्कर माना गया। यहां के चिंतन में प्रकृति में आध्यात्मिकता का विस्तार होता है।
भारत एक समृद्ध जैव विविधता वाला देश है। पीपल, कदम्ब, वट, आमला, अर्जुन, बेल, नीम सबके साथ देवताओं को जोड़ कर उनको वन्दनीय बना दिया गया। विल्व पत्र, दूर्वादल और तुलसी दल धार्मिक कृत्यों में प्रयुक्त होते हैं। आयुर्वेद में अनेक वृक्ष हैं जिनके फूल, फल, पत्तियां, छाल, जड़ें सभी औषधि गुण से युक्त हैं । वन और वृक्ष जीवन के साथ घुले मिले रहे हैं। हमारी सांस्कृतिक स्मृति में और लोक जीवन में वृक्षों की अभी भी एक खास जगह बनी हुई है। बेल, सप्तपर्णी, पलाश, कचनार, सहजन, हरड़, बहेड़ा, आंवला और नीम जैसे पेड़ अपने औषधीय गुणों के कारण बड़े लोकप्रिय रहे हैं और लोग घर के पास या बाग बगीचे में इन्हें लगाते थे और जिसे जरूरत पड़ती थी वह इनका लाभ उठाता था। इसी तरह तुलसी , गिलोय, अपराजिता, विधारा, सतावर, पुनर्नवा, ब्राह्मी इत्यादि पौधों को भी घरों के आसपास लोग अपने संगी साथी के रूप में रखते थे। वृक्षायुर्वेद एक शास्त्र है. जीवन की रक्षा की दृष्टि से वन और वृक्ष की पारिस्थतिकी के संतुलन में विशेष भूमिका को अच्छी तरह समझा गया। वृक्ष की पूजा का विधान सब के लिए था। वट या न्यग्रोध वृक्ष को कल्पवृक्ष, पीपल पीपल अश्वत्थ कहा गया। काल क्रम में आधुनिकता, औद्योगिकीकरण, नगरीकरण के साथ दृष्टिकोण बदलने लगा। विज्ञान की छाया में देवत्व से मुक्त हो कर प्रकृति मनुष्य के लिए विजय के लिए लक्ष्य हो गई। पृथ्वी की सेवा-सुश्रूषा को भूल कर प्रकृति और उसके संसाधनों का घोर रूप से दोहन और भीषण दुरुपयोग होने लगा। आज सारा विश्व जलवायु में हो रहे बदलाव को ले कर चिंतित है। आज ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा, पुनर्नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन, ऊर्जा की खपत, आदि सभी देशों के सामने चुनौती बन कर खड़े हैं।
वायु जीवनी शक्ति है, यह जानते हुए भी प्रकृति में मनुष्य द्वारा हस्तक्षेप का एक बड़ा घातक परिणाम वायु प्रदूषण है जो कस्बों, शहरों और महानगरों में तेजी से बढ़ रहा है। हम लोग जिस वायुमंडल में रह रहे हैं उसकी हवा में स्वास्थ्य के लिए घातक कई विषाक्त गैसें, पार्टिकुलेट मैटर, धुआं और कुछ विशिष्ट रासायनिक तत्वों की मात्रा जब सहनशीलता की श्रेणी से ऊपर बढ़ जाती है तो वायु की गुणवत्ता बहुत खराब हो जाती है. दिन-प्रदिदिन इन प्रदूषक तत्वों की मात्रा में निरंतर इजाफा हो रहा है और इसके लिए जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम स्वयं हैं। बकौल विश्व स्वास्थ्य संगठन विश्व की 91 प्रतिशत जनसंख्या ऐसी जगहों पर रहती है जहां की वायु खतरनाक स्तर पर प्रदूषित है। प्रदूषित वायु में सांस लेने का मस्तिष्क पर प्रभाव, विशेषकर स्मरण करने की क्षमता, पर पाया गया है। पी एम 2.5 नामक प्रदूषण कण खास तौर पर इस तरह के प्रभाव के लिए उत्तरदायी पाया गया है। दिल्ली में यह 160 से ऊपर भी दर्ज है जब कि इसे 60 से नीचे होना चाहिए। पी एम 2.5 के कण सांस द्वारा फेफड़े में और फिर आगे चल कर खून में पहुचते हैं और हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह आदि को बाधा रहे हैं। रासायनिक कण, कीटनाशक और वायु में व्याप्त अनेक किस्म के धातु कण और टेफ्लान के चलते शरीर में हारमोन-संतुलन बिगड़ रहा और शरीर की रोगप्रतिरोधी क्षमता में घाट रही है। राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन से कुछ सुधार हुआ है। शौचालय बने हैं और खुले में मल विसर्जन पर कुछ नियंत्रण हुआ है पर स्थिति गंभीर बनी हुई है। स्मार्ट सिटी की योजनाओं पर काफी काम बाकी है।
जीवनस्रोत जल की स्थिति भी कम जटिल नहीं है। भूजल का विषाक्त होना, नदियों को कचरे से पाटना शुद्ध जल की उपलब्धि को तेजी से काम कर रहे हैं। बोतल बंद पानी बड़ा लाभप्रद व्यापार का रूप ले चुका चुका है। जल के स्रोत ग्लेशियर और नदियां हैं पर उनकी स्थिति बिगड़ रही है। ग्लेशियर पीछे खिसक रहे हैं, पहाड़ दरकने और भू-स्खलन की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। जल विद्युत् परियोजनाओं के फलस्वरूप बांध, सुरंग और नदियों को मोड़ कर उनका स्वाभाविक रुख बदला जाता रहा है। अब जल और जैव विविधता के संकट घहरा रहे हैं। जोशी मठ की स्थिति नाज़ुक हो रही । हिन्द महासागर का तापमान बढ़ा है । गंगा का जल प्रदूषण अनेक जगहों पर खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है। महत्वाकांक्षी ‘नमामि गंगे’ परियोजना भी कई हजार करोड़ की लागत से धूमधाम से शुरू हुई पर अपशिष्ट और मल को रोकने की दिशा में अपेक्षित प्रगति न होने से गंगा को बड़ी क्षति पहुंची है।
पारिस्थितिकी की समस्या पर विचार करते हुए हमें सामाजिक आर्थिक इतिहास पर भी गौर करना होगा। समाज में होने वाला परिवर्तन इतिहास की शक्तियों के अधीन हुआ करता है। औपनिवेशिक काल में अंग्रेज ‘आधुनिक’ थे और भारतीय ‘ पिछड़े’ । एक यांत्रिक दुनिया की अवधारणा स्वीकार की गई और सृष्टि के विकास में बलशाली को जीने का अधिकार माना गया । फलत: भीषण नरसंहार भी हुए । इस सोच की परिणति समाज को एक उद्योग मानने में हुई और लोभ और भोग हाबी होते गए। बाजार का रूपक सामाजिक सच्चाई बनता गया । स्वतंत्र भारत में अविकसित देश के लिए राज मार्ग के रूप में ‘विकास ‘ के तर्क और विमर्श ने अधिकार जमाया। साथ ही नौकरशाही की नकेल भी कसती चलती गई। हरित क्रांति भी आई और खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा, शिक्षा संस्थाओं का विस्तार हुआ और औद्योगिक विकास ने गति पकड़ी। स्वतंत्रता मिलने के बाद दो दशकों तक राज्य और समाज के अध्येताओं के बीच विकास को ले कर सहमति बनी थी। परम्परा को आधुनिकता के साथ अनुकूलित या अडाप्ट करना ही अकेला मार्ग मान लिया गया। आधुनिकीकरण और प्रगति को समाज के उज्ज्वल भविष्य के द्वार खोलने वाला स्वीकार करते हुए सतत तीव्र परिवर्तन को असंदिग्ध रूप से श्रेयस्कर ठहरा दिया गया। परन्तु सत्तर के दशक के बाद विकास के साथ उसके अंतर्विरोध भी प्रकट होने लगे। सांस्कृतिक तनाव भी दिखने लगा। कृषि के क्षेत्र में छोटे किसान समाज के हाशिये पर जाने लगे। उनकी उपेक्षा के चलते जातीय अस्मिता ने नया कलेवर धारण करना शुरू किया। गरीबी, स्वास्थ और शिक्षा को ले कर संरचनात्मक सवाल भी खड़े होने लगे।
नब्बे के दशक में उदारीकरण ने अर्थ नीति में नया आयाम जोड़ा। सोवियत संघ के टूटने के साथ पूंजीवाद ही राजनीति का एकल आधार बनता गया। सूचना और संचार की प्रौद्योगिकी के अकूत विस्तार और विदेशी निवेश के साथ कई प्रकार के ‘सुधार’ भी आने लगे। औद्योगीकरण, नगरीकरण और वैश्वीकरण के आपसी रिश्ते भी जटिल होने लगे। वैश्वीकरण एक नए किस्म का उपनिवेशीकरण की तरह पांव पसारने लगा और विकास अपना वादा पूरा करता नहीं दिखता। वह गरीबी, विस्थापन, सामाजिक-आर्थिक भेद, कूड़ा-उत्पादन, और प्रदूषण आदि के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। आधुनिकता की परियोजना भी वैयक्तिकता, निजीकरण और पूंजीवाद के बल पर जो आभिजात्य को ही स्थापित करती है सफल होती नहीं दिख रही है। विकल्प के रूप में अब ‘टिकाऊ विकास’ के बारे सोचा जा रहा है जिसमें भविष्य की चिंता भी शामिल है।
विगत वर्षों में जलवायु-परिवर्तन के कठिन होते संकेत अनेक रूपों में दिख रहे हैं। आए दिन चक्रवाती तूफान, सूखा और बाढ़ जीवन को अस्त-व्यस्त कर रहे हैं। इन सबके साथ वनों की कटाई और पृथ्वी के संसाधनों का दोहन तेजी से बढ़ रहा है। जलवायु परिवर्तन के प्रश्न पर ग्लासगो में संपन्न हुए ताजे महा सम्मलेन काप-26 को याद करें तो पता चलता है कि अभी भी जलवायु न्याय (क्लाइमेट जस्टिस ) के प्रश्न पर बहुत कम ध्यान दिया जा सका है। जलवायु-वित्त के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए नुकसान और क्षति के लिए अपेक्षित सहायता की दृष्टि से भी हम पीछे ही रह गए हैं। जलवायु को लेकर सामूहिक कार्य योजनाओं को सुदृढ़ करने की राह अभी भी काफी लम्बी है। जलवायु-वार्ता महत्वपूर्ण तो है पर जमीनी स्तर पर काम करना बड़ा आवश्यक है। भारत में भी सौर ऊर्जा के व्यापक उपयोग को बढ़ावा देने की जरूरत है। आज चीन सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है। ग्लासैगो सम्मलेन में कोयले के प्रयोग को नियंत्रित करने के लक्ष्यों के साथ उत्सर्जन में अधिक कटौती पर सहमति बनी और दुनिया के सभी देश शताब्दी के अंत तक तापमान-वृद्धि को डेढ़ डिग्री तक सीमित रखने पर सहमत हुए।
यह गौरतलब है कि धनी देशों के लिए अपनी अर्थ व्यवस्थाओं से जीवाश्म ईंधन और कार्बन को हटाने की जरूरत को समायोजित करना मुश्किल हो रहा है। विकासशील देशों के लिए यह ज्यादा कठिन है क्योंकि उनके पास पूंजी कम और जनसंख्या ज्यादा है। इसलिए विकासशील देश इस तरह के प्रभाव को कम करने के लिए अनुदान, ऋण , और निजी निवेश की माग कर रहे हैं। इसके लिए आवश्यक वित्तीयतंत्र विकसित करने फंड बढाने की मांग को 2025 के लिए टाल दिया गया। विकासशील देशों के लिए कोयले का प्रयोग बंद करना एक कठिन चुनौती है क्योंकि विकास का काम रोकना कठिन है। यह याद रखना चाहिए कि वर्त्तमान जलवायु संकट विकसित देशों की जीवनशैली तथा अधिक खपत से उत्पन्न हुआ है। विचारणीय यह भी होगा कि उत्तर उपनिवेशवाद और वि-उपनिवेशीकरण के तर्क हमें कहां ले जाएंगे। आज पर्यावरण के खतरे, युद्ध और बढ़ती हिंसा को देखते हुए मानव-केंद्रित सोच अधूरी लगती है और व्यर्थ लगने वाली सृष्टि को शामिल करती परम्परागत दृष्टि प्रासंगिक अधिक प्रासंगिक है। जरूरतों को कम करते हुए खपत कम करनी होगी। स्वार्थ की जगह दूसरों की भलाई पर भी ध्यान देना होग। धरती पर जीवन हो इसके लिए यही रास्ता बचा है।
इस धरती की सीमा है और धरती की उर्वरता या प्राणशक्ति का विकल्प नहीं है । विकास के नाम पर आसपास के वन, पर्वत, घाटी, पठार, मरुस्थल, झील, सरोवर, नदी और समुद्र जैसी भौतिक रचनाओं को ध्वस्त करते हुए मनुष्य के हस्तक्षेप पारिस्थितिकी के संतुलन को बार-बार छेड़ रहे हैं । मनुष्य के हस्तक्षेप के चलते जैव विविधता घट रही है और बहुत से जीव-जंतुओं की प्रजातियां समाप्त हो चुकी हैं और कई विलोप के कगार पर पहुँच रही हैं । हमारा मौसम का क्रम उलट-पलट हो रहा है । वैश्विक रपटें ग्लेशियर पिघलने और समुद्र के जलस्तर के ऊपर उठने के घातक परिणामों की प्रामाणिक जानकारी दे रही हैं जो इस अर्थ में भयानक हैं कि यदि यही क्रम बना रहा तो कई देशों के नगर ही नहीं कई देश भी डूब जाएंगे । संसाधनों के दोहन का हिसाब लगाएं तो भेद इतना दिखता है कि जर्मनी और अमेरिका की तरह ही यदि सभी देश उपभोग करने लगें तो एक धरती कम पड़ेगी और हमें कई धरतियों की जरूरत पड़ेगी।
इसके बावजूद कि प्रकृति के सभी अंगों में परस्परनिर्भरता और पूरकता होती है हम बदलावों को उसे नजर अन्दाज करते रहते हैं । इस उपेक्षा वृत्ति के कई कारण हैं। एक तो यह कारण है कि ये परिवर्तन अक्सर धीमे-धीमे होते हैं और सामान्यत: आमजनों को उनका पता ही नहीं चलता। और कई महत्वपूर्ण बातों की जानकारी भी नहीं है । उदाहरण के लिए आक्सीजन, वृक्ष और कार्बन डाई आक्साइड इनके बीच के रिश्ते हम ध्यान में नहीं ला पाते । आज पेड़ों की आए दिन कटाई हो रही है और उसकी जगह कंक्रीट के जंगल मैदानों में ही नहीं पहाड़ों पर भी खड़े हो रहे हैं । कोविड की महामारी ने बहुत हमारे यथार्थ बोध पर छाए अनेक पर्दों को हटाया है। जीवन की प्रक्रिया से खिलवाड़ अक्षम्य है पर विकास के चश्मे में कुछ साफ नहीं दिखता और हम सब जीवन के विरोध में खड़े होते जा रहे हैं ।
आज धरती का स्वास्थ्य खराब हो रहा है और उसे रोगी बनाने में मनुष्य के दूषित आचरण की प्रमुख भूमिका है। विकास की दौड़ में भौतिकवादी, उपभोक्तावादी और बाजार-प्रधान युग में मनुष्यता चरम अहंकार और स्वार्थ के आगे जिस तरह नतमस्तक हो रही है वह स्वयं जीवनविरोधी होती जा रही है। हम निर्दय हो कर प्रकृति और धरती की नैसर्गिक सुषमा को जाने अनजाने नष्ट कर रहे हैं । यदि जीवन से प्यार है तो धरती की सिसकी भी सुननी होगी और उसकी रक्षा अपने जीवन की रक्षा के लिए करनी होगी। इस स्थिति में मनुष्य और प्रकृति के साथ उसके रिश्ते की छानबीन और विकल्पों की तलाश या अपने को सुधारने की दिशा में कदम उठाना तात्कालिक महत्व का हो गया है। अब वैश्विक स्तर पर धरती की व्यवस्था टूटने के कगार पर पहुंच रही है। अमेजन के वर्षा वन और पश्चिमी अंटार्कटिक का शीताच्छादन की समस्या को लेकर कुछ विशेषज्ञ ज्यादा चिंतित नहीं हैं। पर यह मत भी है कि उपलब्ध साक्ष्य इन घटनाओं की संभाव्यता बढ़ा रहे हैं और उनका प्रभाव घातक हो सकता है । जैव भौतिकी के बदलाव कई जैविकीय प्रणालियों से जुड़े हुए हैं। इनसे विश्व में दीर्घकालिक और अपरिवर्तनीय प्रभाव पड़ेगा। पूरी धरती के ऊपर प्रकृति का आपातकाल लगने की तैयारी हो चुकी है न चेतने और जरूरी कदम न उठाने के घातक परिणाम होंगे । जन्मभूमि मां होती है और सभी के ऊपर मातृ ऋण है कि हम उसकी देखरेख और रक्षा करें। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सारी भौतिक प्रगति के बावजूद अभी भी प्रकृति का कोई विकल्प नहीं है। जल, वायु और अन्न उपलब्ध कराने वाली, जीवन चलाने वाली प्रकृति हम सब का जाने कब से हमारा भरण-पोषण करती आ रही है वह वस्तुत: जीवन का पर्याय है । हमारी सतत उपेक्षा दृष्टि के चलते प्रकृति को बड़ा नुकसान हुआ है। असंतुलन को दूर करने के लिए चेतना जरूरी है। मनुष्य सृष्टि का केंद्र नहीं एक अंग है और समस्त सृष्टि का कल्याण सोचना होगा।यह पृथ्वी भी एक ग्रह है जो सौर मण्डल का एक सदस्य है। यह सही है कि धरती पर ही जीवन है पर यह भी उतना ही सही है कि भौतिक घटक जैसे स्थल, वायु, जल, मृदा आदि जीव मंडल में जीवों को आश्रय देते हैं और उनके विकास और सवर्धन के लिए जरूरी स्रोत उपलब्ध कराते हैं। जैविक और अजैविक दोनों तत्वों से मिल कर धरती पर जीवन-चक्र निर्मित होता है जो सह अस्तित्व के सिद्धांत पर टिका हुआ है। इसलिए प्रकृति के विभिन्न अवयवों के बीच सामंजस्य बनाए रखना जरूरी होता है। यह बात हमारे पूर्वजों ने पहचानी थी और उसे जीवन में महत्व भी दिया था। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के तत्व को लेकर गहन विचार हुआ था। वनस्पति, जल, अंतरिक्ष और पृथ्वी को लेकर वैदिक चिंतन में प्रकृति की महिमा का बड़ा बखान मिलता है। प्रकृति ‘माता’ की भांति पूज्य है। वेद में भूमि को मां और स्वयं को पृथ्वी की संतति कहा गया । पृथ्वी विष्णु-पत्नी हैं और सबका भरण-पोषण करती हैं। मनुष्य और प्रकृति के बीच वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार को समझते हुए जीवन-चर्या का विधान किया गया। पश्चिम में प्रकृति जड़ है उसमें देवत्व नहीं है पर भारत में अरण्य में ज्ञान की साधना होती थी इसलिए प्रकृति की रक्षा और उसके साथ लय में रहना श्रेयस्कर माना गया। यहां के चिंतन में प्रकृति में आध्यात्मिकता का विस्तार मिलता है।
पृथ्वी के प्रति मनुष्यता का आभार कई तरह से प्रकट हुआ है। प्रकृति के विभिन्न पक्ष न केवल ईश्वर के प्रत्यक्ष तनु (शरीर) कहे गए बल्कि पीपल, नीम और वट आदि वृक्षों की उपासना होती रही है। विभिन्न वनस्पतियों के औषधीय गुणों को आयुर्वेद में महत्वपूर्ण स्थान मिला हुआ है और ‘वृक्षायुर्वेद’ एक शास्त्र के रूप में विकसित हुआ था। आम्र-पल्लव, दूर्वा और तुलसी-दल के बिना कोई पूजा विधि पूरी नहीं होती। गंगा, यमुना आदि में स्नान कर पुण्य-लाभ कमाने दूर दूर से लोग आते रहते है। कुम्भ मेले में लाखों लोग गंगा में डुबकी लगाने के लिए प्रयाग में एकत्र होते हैं। प्रकृति के प्रति आकर्षण का एक आधार यह भी है कि नैसर्गिक परिवेश का सौंदर्य आत्मिक तृप्ति देने वाला होता है। सागर, निर्झर, वन, झील, पर्वत, वृक्ष और नदी से संसर्ग हमारे आध्यात्मिक जीवन, सृजन और सामुदायिक जीवन को समृद्ध बनाने वाला होता है। यह भी याद रखने की बात है कि नदियों के निकट ही संस्कृतियों का विकास होता रहा है। प्रकृति के बाह्य पक्ष हमें आकर्षित करते हैं और जंगल सफारी, पर्वत, नदी, घाटी, झील आदि घूमने जाते हैं परंतु पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से हम सतर्क नहीं रहते।
भारत में प्राकृतिक संसाधनों को संग्रह कर उपभोग करने की परम्परा रही परंतु बाजार केंद्रित अर्थव्यवस्था के साथ संसाधनों के असीमित उपयोग की लालच बढ़ती गई । अब विकास के नाम पर प्राकृतिक सम्पदा और पर्यावरण का दोहन शुरू हुआ है । प्रौद्योगिकी और उद्योग घरानों की सांठ-गांठ के बीच पर्यावरण की बलि चढने लगी। प्रगति और विकास के नारे के आगे सब कुछ ध्वस्त होता जा रहा है। आर्थिक सम्पन्नता के लिए वसुंधरा पृथ्वी आज सब तरह से शोषित और विपन्न हो रही है। इस सोच में मनुष्य को केंद्र में रख कर नियंता के भाव के साथ प्रकृति को उपभोग्य मान लिया गया। इसके चलते पारिस्थितिक असंतुलन के फलस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं के संकट छाए रहते हैं। प्रजातियां लुप्त हो रही हैं और जैव विविधता घट रही है जीवन की गुणवत्ता के लिए आवश्यक है। एक सदी में भू-उपयोग में बड़ा बदलाव आया है। उर्वरक और कीटनाशकों के प्रयोग के चलते रसायन भारी मात्रा पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। भूमि का क्षरण हो रहा है, वन का आवरण काम हो रहा है, नदियों के जलस्तर में गिरावट आ रही है, भू-जल स्तर घट रहा है और ग्लेशियर खिसक रहे हैं। धरती का तापमान बढ़ रहा है। जीवनशैली में आए बदलाव से तरह–तरह की गैसों का उत्सर्जन हो रहा है। ग्रीन हाउस प्रभाव की चर्चाओं के बीच पर्यावरण का ह्रास एक विकट चुनौती बन रही है। पारिस्थितिकी तंत्र ध्वस्त होने की राह पर है ।
अपनी आत्मकेद्रित दृष्टि के भ्रम में हम यह अक्सर भूल जाते हैं कि सम्पूर्ण जैविक विश्व एक इकाई है और मनुष्य को इससे जुदा नहीं रखा जा सकता। असीम उपभोग से सुख की तलाश बेमानी है। आज मनुष्य का पर्यावरण के प्रति उदासीन व्यवहार सार्थक और सुखमय जीवन में बड़ा बाधक हो रहा है। अन्य तत्वों की ही तरह मनुष्य भी पर्यावरण की व्यवस्था का ही एक हिस्सा है। चूंकि हमारा जीवन प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर करता है अत: उन मूल्यों को प्रभावी करना होगा जो सम्पूर्ण जीवन को पहचान सकें और सबके विकास का अवसर दे सकें। धरती की सीमा में ही उपभोग और उत्पादन करना ही एकमात्र विकल्प है। इसलिए समग्र प्रकृति के साथ जुड़ते हुए और तालमेल के साथ ही आगे कदम बढ़ाना होगा।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।
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