– डॉ. मोक्षराज
न कोई देश केवल बाइबिल के आधार पर चल रहा है और न केवल कुरान या पुराणों के बल पर। सच तो ये है कि विज्ञान ने आधुनिक जीवन के ढंग को अत्यधिक प्रभावित किया है। कट्टर से भी कट्टर मुस्लिम, ईसाई या हिंदू व्यक्ति मोबाइल फोन, टीवी, बस, रेलगाड़ी या हवाई जहाज़ का उपयोग कर ही रहा है और इन सबका आविष्कार उनके किसी पैगंबर, ईश्वर पुत्र या किसी अवतार ने विगत 2000 वर्षों में तो नहीं किया है। क्योंकि भारत एक लोकतांत्रिक देश है जिसका अपना एक विशाल संविधान है। अत: वहॉं सभी नागरिकों के उत्थान के लिए धर्म को निरपेक्ष मानते हुए ही नीतियों का निर्धारण होना चाहिए अर्थात् जबतक भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष रहे तबतक किसी भी धर्म, मत या संप्रदाय को ध्यान में रखकर नीतियाँ नहीं बननी चाहिए। तभी वह सही मायने में निरपेक्षतावादी भी कहलाएगा।
यदि भारत की बहुसंख्यक जनता अपने ऐतिहासिक तथ्यों और धर्मग्रंथों के आधार पर भारत को चलाना चाहती तो उसे रामायण, महाभारत, वेद एवं ब्राह्मण ग्रंथों के आधार पर नीतियॉं बनाने की ज़िद पर अड़े रहना था, जैसे कि- “रामायण” में बताया है कि महाराज सगर इक्ष्वाकु वंशीय थे तथा महाराज भगीरथ, दशरथ एवं श्रीराम के पूर्वज थे। महाराज सगर की एक पत्नी केशिनी से एक पुत्र तथा दूसरी पत्नी सुमति से विशेष विज्ञान तकनीक द्वारा 60000 संतानें हुईं। इसी प्रकार “महाभारत” के अनुसार धृतराष्ट्र के 102 पुत्र थे। गान्धारी के दुर्योधन, दु:शासन आदि 100 पुत्र तथा एक पुत्री दुःशला थी। ”पुराणों” के अनुसार यदि हम भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी के जीवन का मूल्यांकन करते हैं तो उनकी 8 रानियाँ थीं- रुक्मणी, जाम्बवंती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रविंदा, सत्या, भद्रा तथा लक्ष्मणा। इनसे 80 पुत्र-पुत्री पैदा हुए। ऋग्वेदीय “ऐतरेय ब्राह्मण” में वर्णन है कि महर्षि विश्वामित्र के भी 100 पुत्र थे तथा उन्होंने एक पुत्र शुन:शेप को अजीगर्ति से गोद भी लिया था। उनके विद्रोही पुत्र तुर्वसु से ही कालांतर में यवन पैदा हुए, यह अलग कथा है। “ऋग्वेद” में भी “इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु। दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि।” मंत्र से 10 संतान उत्पन्न करने का निर्देश मिलता है। जिसके संदर्भ में महर्षि दयानंद सरस्वती कहते हैं कि गृहस्थ दम्पति 10 संतान तक उत्पन्न करे किन्तु यदि वह दरिद्र है तो बच्चों के लालन-पालन को ध्यान में रखते हुए समृद्धि के अनुरूप ही संतान पैदा करे।
इन कुछ उदाहरणों के आधार पर यदि पूरे भारत के लोग आर्य (हिंदू) अपने अपने इष्ट, देवता, पूर्वज या भगवान के नाम पर अपनी आस्था व धर्मग्रंथ की दुहाई देते हुए 10 संतान से लेकर 60 हज़ार तक प्राकृतिक रूप से या विज्ञान का सहारा लेकर अपने पूर्वजों की भाँति टेस्ट ट्यूब बेबी या क्लोन के रूप में संतान पैदा करने लग जाए तो भारत के सीमित भूभाग पर केवल पाँच वर्ष में ही अन्न, पानी, आवास व अन्य सुविधाओं का अकाल पड़ जाएगा। किंतु वे ऐसा दुराग्रह इसलिए नहीं करते हैं, वे अपने राष्ट्र की उन्नति को पहले स्थान पर तथा अपनी धार्मिक निष्ठा को दूसरे स्थान पर रखते हैं। जब वे अपने धर्मग्रंथ, आस्था व पूर्वजों की परंपराओं से समझौता कर सकते हैं तो दूसरे वर्गों को भी उनसे सीख लेनी चाहिए। उनका यह विचार कमज़ोरी नहीं है बल्कि इसी सोच से भारत को समृद्धि तथा भारत के संविधान को ताकत मिलती है।
अपने देश के समग्र विकास के लिए इसी प्रकार की उदारता एवं राष्ट्रनिष्ठा की आवश्यकता है। अन्य मतवादियों को भी अपनी रूढ़िवादिता एवं अंधविश्वास से बाहर निकलना होगा तभी वे भारत के उत्थान के लिए बराबर के भागीदार माने जा सकेंगे। अनेक शोधकर्ताओं का मानना है कि सन् 1875 में महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखे गए सत्यार्थ प्रकाश में जब अनेक मत, मज़हब व सम्प्रदायों की तार्किक समीक्षा की गई तो उसके परिणामस्वरूप अनेक मज़हब व संप्रदायों की पुस्तकों में अनेक संशोधन हुए। आज भी इसी प्रकार के उदार भाव की आवश्यकता है। भारत के समग्र विकास की दिशा में सबका विकास हो रहा है। सबको बिना किसी मत-मज़हबी भेदभाव के गैस बिजली, आवास, शौचालय एवं स्वास्थ्य व जीवन रक्षा की दृष्टि से आयुष्मान भारत आदि योजनाओं का निरंतर लाभ मिल रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि ‘मीठा मीठा गप और कड़वा कड़वा थू।’
कितना अच्छा हो कि भारत सरकार की ओर से संचालित समग्रतावादी, दूरगामी तथा विकासोन्मुखी पहल “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास” की भावना को मोटी चमड़ी वाले तथाकथित धर्माचार्य भी अपने व्यवहार में लाएँ। वे इस दिशा में सहयोग करके “सबका विश्वास” जीत सकेंगे। हमें भारत को सुखी व समृद्धशाली बनाने के लिए तथा रामराज्य लाने के लिए भगवान श्रीराम व माता सीता के समान “हम दो हमारे दो” का प्रमाण प्रस्तुत करना होगा।
(लेखक वाशिंगटन डीसी में भारतीय संस्कृति शिक्षक हैं।)
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