– आर.के. सिन्हा
कोलकाता में एक तरह का डर और बेचैनी का माहौल है। आप किसी चाय की दुकान में खड़े होकर पश्चिम बंगाल के आगामी विधानसभा चुनाव के बारे में किसी स्थानीय बंगबंधु से पूछिए। वह आशंका जताएगा कि चुनाव के पहले राज्य में भारी हिंसा हो सकती है। भय और आतंक का माहौल बनाया जा सकता है। कोलकाता से आपको सारे प्रदेश की मन:स्थिति का अंदाजा लग जाता है। जब देश नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती मना रहा है तब यह स्थिति निश्चित रूप से उदास करने वाली है। पश्चिम बंगाल में मई तक विधानसभा चुनाव संपन्न हो जाएंगे। वहां मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल जल्दी ही समाप्त हो रहा है।
क्यों पिछड़ता जा रहा बंगाल
देखा जाए तो ममता बनर्जी के दस वर्षों के कार्यकाल के दौरान देश का एक शानदार राज्य पिछड़ता ही रहा। वहां बार-बार हिंसा होती रही। पश्चिम बंगाल में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का नारा लगाने वालों को गिरफ्तार किया जाता रहा। ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस पार्टी (टीएमसी) 2011 में पहली बार सत्ता में आई तो आशा जागी थी कि राज्य में वाम मोर्चा की सरकार के 35 साल पुराने कुशासन के अंत के साथ राज्य में विकास का पहिया चलने लगेगा। पर यह नहीं हुआ। वहां भारी पैमाने पर अराजकता और अव्यवस्था व्याप्त होने लगी। अब ममता बनर्जी के लिए राज्य में भाजपा के बढ़ते कदम खतरे की घंटी के समान है। उनके हाथ-पैर फूल चुके हैं। उन्हें अब समझ आ गया है कि 2021 का विधानसभा चुनाव टीएमसी के लिए ताबूत में आखिरी कील साबित होंगे।
याद करें कि ममता बनर्जी कुछ समय पहले तक देश की प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रही थीं। ताजा स्थिति यह है कि वे अब अपने ही राज्य में बुरी तरह नापसंद की जा रही हैं। इसका उदाहरण हमने बीते 2019 के लोकसभा चुनाव में देखा। वहां लोकसभा चुनाव के दौरान कसकर तृणमूल प्रायोजित हिंसा हुई फिर भी नतीजे भाजपा के पक्ष में रहे थे। भाजपा ने टीएमसी की गर्दन में अंगूठा डाल दिया था। राज्य की कुल 42 में से 18 सीटें भाजपा को मिलीं। जबकि भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में मात्र 2 सीटें ही मिलीं थी। यह बदलाव इसलिए हुआ क्योंकि राज्य की जनता ममता बनर्जी के कामकाज से हताश हो चुकी है। वहां विकास थम चुका है। दुखद यह है कि ममता दीदी सिर्फ मुसलमानों के तुष्टिकरण में ही लगी रहीं। ममता दीदी को लगता था कि वे प्रधानमंत्री मोदी जी और भाजपा को बुरा-भला कहकर ही प्रधानमंत्री भी बन ही जाएंगी।
किसानों को लेकर संवेदनहीनता
सबसे गंभीर बात यह है कि ममता बनर्जी राज्य के किसानों के हितों को लेकर कतई संवेदनशील नहीं है। देश के 9 करोड़ से ज्यादा किसान परिवारों के बैंक खाते में सीधे 18 हजार करोड़ रुपए जमा हुए हैं। केन्द्र सरकार की योजना से देश के लाखों किसानों को सीधा तत्काल फायदा हुआ। हालांकि, अफसोस की बात यह है कि पश्चिम बंगाल के 70 लाख से ज्यादा किसानों को इसका फायदा नहीं मिला। वहां के लाखों किसानों ने इस योजना के लिए ऑनलाइन आवेदन भी किया लेकिन ममता सरकार इनका सत्यापन नहीं कर रही है। बिना राज्य सरकार के सत्यापन के गरीब किसानों के खाते में पैसा जायेगा नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि पश्चिम बंगाल को एक के बाद एक निकम्मी सरकारें ही मिलती रहीं। इनकी राजनीतिक विचारधारा के कारण राज्य पिछड़ता गया। अब तो आम जनता यह कह रही है कि इससे अच्छी सरकार ज्योति बासु की ही थी।
यकीन मानिए वहां भाजपा के पक्ष में जबरदस्त जन जागृति का माहौल बन चुका है। सभी शांति-व्यवस्था चाहने वाले आम जन भाजपा के पक्ष में गोलबंद हो चुके हैं। भाजपा प्रतिदिन मजबूत होती जा रही है और ममता की पार्टी का ग्राफ रोज धूल में मिलता जा रहा है। अब डर यह है पश्चिम बंगाल ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जिस तरह की मारकाट देखी, उसकी कहीं पुनरावृत्ति न हो जाये। पिछले लोकसभा चुनाव में जब सारे देश में चुनाव की प्रक्रिया कमोबेश शांति से संपन्न होती रही थी, महर्षि अरविन्दो, स्वामी विवेकानंद, गुरुदेव रविन्द्रनाथ टेगौर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और सत्यजीत राय का पश्चिम बंगाल हिंसा से जल रहा था। राज्य का मतदाता टीएमसी की नीतियों और कार्यक्रमों से बेहाल है। इसलिए जनता को भाजपा में ही उम्मीद दिखाई देती है। बंगाल की जनता को पहले कांग्रेस और उसके बाद लेफ्ट दलों ने बुरी तरह छला और निचोड़ा था।
दरअसल ममता बनर्जी सदैव दोहरी नीति पर चलती रही हैं। पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग से लेकर 24-परगना जिला तक अशांत रहे। ममता बनर्जी ने दार्जिलिंग के सीधे-सरल लोगों की भी एक नहीं सुनी। दार्जिलिंग वासी अपने हकों के लिए सड़कों पर उतरे थे। लेकिन, ममता की 24 परगना में हंगामा करने वालों पर नजरें इनायत ही रही। आपको याद होगा कि 24 परगना में एक आपत्तिजनक फेसबुक पोस्ट से नाराज होकर एक खास समुदाय के गुंडों ने जमकर बवाल काटा था। वहां जमकर दंगे हुए थे। लेकिन ममता बनर्जी सरकार की पुलिस दंगाइयों पर नरम रवैया अपनाती रही। ममता बनर्जी के नरम रवैये के कारण उनका राज्य कठमुल्ला मुसलमानों का गढ़ बन गया है। वो मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर अब खुलकर चल रही हैं। कोलकाता की एक मस्जिद के इमाम, जो ममता बनर्जी के करीबी हैं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं। क्या ममता दीदी से पूछे बिना यह कर सकता है?
अब जरा देखे कि लेफ्ट पार्टियां और कांग्रेस पश्चिम बंगाल में अगला विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ने जा रही है। माकपा के नेता सैफुद्दीन चौधरी कह रहे हैं कि दोनों दलों में सीटों के सवाल पर तालमेल हो जाएगा। मतलब जो कल तक कुत्ता-बिल्ली की तरह लड़ते थे वे साथ-साथ आ रहे हैं। सिर्फ इसलिए कि कहीं छोटी-मोटी सफलता भी हासिल कर लें। हालांकि चौधरी कह रहे हैं इसबार टीएमसी सत्ता से बेदखल होगी और भाजपा भी नहीं जीतेगी। इन वामपंथियों के दावे को सुनकर अब हंसी आती है। इन्हें सब जगहों पर मतदाता खारिज कर रहे हैं। पर इनका विश्वास तो देखिए। पिछले लोकसभा चुनाव में वामदलों को राज्य में एक भी सीट नहीं मिली थी और कांग्रेस को मात्र दो सीटें हासिल हुई थीं। पर दावा करने में कौन-सा जोर लगता है। सीताराम येचुरी, डी. राजा और वृंदा करात जैसे वाम नेता सिर्फ सेमिनार सर्किट में ही देखे जाते हैं। वहां ये अपने विचार व्यक्त करके अपने को महान मान लेते। ये अंतिम बार कब श्रमिकों तथा किसानों के लिए लड़े? यह तो उन्हें याद भी नहीं है।
खैर, अब पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव को बहुत वक्त नहीं बचा है। इसबार के चुनाव नतीजे साबित करेंगे कि वहां की जनता उसके साथ खड़ी है जो राज्य का विकास करने को लेकर प्रतिबद्ध है। पश्चिम बंगाल की जनता ने इसका ठोस और साफ संकेत पिछले लोकसभा चुनावों में दे भी दिया था।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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