– सुरेन्द्र कुमार किशोरी
1835 में ब्रिटिशों ने भारतीय शिक्षा अधिनियम के द्वारा भारत की सर्वव्यापी, सर्वसमावेशक शिक्षा नीति को समाप्त करके ब्रिटिश शिक्षा तंत्र को भारत में लागू किया गया था। इससे शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण नियंत्रण सरकार के हाथ में चला गया। ब्रिटिश सरकार ने सात लाख से अधिक गांव में फैली हुई सर्वसमावेशक एवं सभी विषयों का अध्ययन करने वाली भारतीय समग्र शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। केवल अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए आवश्यक मन परिवर्तन करने वाली दासता का निर्माण करके एक सीमित शिक्षा व्यवस्था को लागू किया। देश की हालत कुछ ऐसी रही कि उस शिक्षा पद्धति से निकले हुए लोगों के हाथ में ही देश का राजनीतिक नेतृत्व स्वतंत्रता के समय और उसके बाद लंबे कालखंड तक रहा। जिसके कारण स्वतंत्रता के कई दशक बाद भी शिक्षा की व्यवस्था, नीति और संरचना में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं हुआ।
भारतीय शिक्षण मंडल का मानना है कि 1823 में एक सौ प्रतिशत साक्षरता वाला देश भारत, 1947 में केवल 12 प्रतिशत साक्षरता में सिमट गया था। भारत के सामने पहली चुनौती यह थी कि जन-जन को शिक्षित कर सके। शिक्षा को सर्वव्यापी करने की दृष्टि से प्रयास हुए और उसमें गुणवत्ता और नीति में परिवर्तन दुर्लक्षित रहा। अब 73 वर्षों के बाद एक ऐसी शिक्षा नीति हमारे सामने आई है जो मैकाले के षड्यंत्र को पूरी तरह से विफल कर सकती है। 1835 में विश्व गुरु भारत की शिक्षा व्यवस्था में किया हुआ शीर्षासन सीधा करने की क्षमता से परिपूर्ण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 29 जुलाई 2020 को जनता को दी गई। भारतीय शिक्षण मंडल का मानना है कि स्वतंत्र भारत का जनमानस शिक्षा से बनता है और इसके लिए शिक्षा नीति सबसे महत्वपूर्ण है। 34 वर्षों के बाद भारत में जो शिक्षा नीति 2020 में लागू की गई है यह स्वतंत्र भारत की तीसरी शिक्षा नीति है, इससे पहले 1968 और 1986 में शिक्षा नीति तैयार की गई थी।
देश में लागू की गई शिक्षा नीति सच्चे अर्थ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति है। 17 जनवरी 2015 को 33 बिंदुओं की घोषणा करते हुए इस पर विमर्श प्रारंभ हुआ, तब इसे ‘नई शिक्षा नीति’ के रूप में प्रचारित किया गया था। टी.एस.आर. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में प्रथम समिति की स्थापना भी इसी नाम से हुई लेकिन राष्ट्रीय संगठनों के आग्रह और शिक्षाविदों की अनुशंसा पर 2017 में कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में प्रारूप लेखन समिति का गठन किया गया तो इसका नाम ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ कर दिया गया, यह केवल नाम नहीं दृष्टि परिवर्तन है। यह शिक्षा नीति स्वतंत्र भारत की प्रथम शिक्षा नीति है, जहां राष्ट्रीय शब्द को भावनात्मक रूप से देखा जाना आवश्यक है। ना भूतों ना भविष्यति के सिद्धांत के अनुरूप अद्भुत विमर्श शिक्षा नीति के निर्माण में हुआ है। ढ़ाई लाख से अधिक ग्राम पंचायतों में विभिन्न कार्यशाला के माध्यम से चर्चा हुई, 33 करोड़ से अधिक सहभागियों ने सीधे सुझाव प्रदान किए।
सरकारी, गैर सरकारी, स्वयंसेवी संस्थाओं और संगठनों के माध्यम से नीति पर सर्वांगीण विमर्श के बाद आदर्श और व्यावहारिक सुझाव समितियों को प्राप्त हुए। इस आधार पर शिक्षा नीति की रचना हुई है। विश्व में किसी भी नीति को बनाने के लिए इतनी बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया आज तक कभी नहीं हुई थी है। जितने लोगों ने शिक्षा नीति पर विचार किया है, वह 20 देशों की जनसंख्या से भी अधिक है। सभी राज्य सरकारों, शिक्षा मंत्रियों, विधायकों, सांसदों समेत अन्य जनप्रतिनिधियों से भी इतना व्यापक विमर्श किसी नीति के लिए पहली बार हुआ। शिक्षा नीति के अंतिम अभिलेख में अनेक बिंदु भावनात्मक स्तर पर भी इसे राष्ट्र निर्माणकारी शिक्षा नीति बनाता है। भारत की मौलिक विचार धाराओं के अनुरूप इसमें दिखाई देने वाली अनेक बातें जहां सांस्कृतिक अर्थ में इस नीति को राष्ट्रीय बनाती है। वहीं, पुरानी विदेशी शिक्षा को परिवर्तित कर भारत केंद्रित राष्ट्र निर्माण निर्माणकारी शिक्षा व्यवस्था के निर्माण के रूप इसमें स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
इसमें चिकित्सा शिक्षा के बारे में विस्तृत योजना दी गई है जो भारत की परिस्थिति के अनुसार है जिला स्तर के प्रत्येक चिकित्सालय को शिक्षा केंद्र बनाने की बात है, जिससे पर्याप्त संख्या में आवश्यक चिकित्सकों का निर्माण किया जा सके। योग एवं आयुर्वेद आदि भारत की पारंपरिक चिकित्सा विधियों को आयुष का भी चिकित्सा शिक्षा में सभी स्तर पर अंतर्भाव किया जाएगा। ग्रामीण शिक्षकों की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए विशेष प्रावधान किया गया है। भारत की विशिष्ट परिस्थिति को देखते हुए समाज के सभी वर्गों को शिक्षा के अवसर प्रदान कर सामाजिक समरसता के लिए अनेक क्रांतिकारी और व्यवहारिक उपाय नीति में दिए गए हैं। भारत में ज्ञान के क्षेत्र में सभी सीमाओं का निर्धारण नहीं किया गया। हमारे शिक्षक संपूर्ण विश्व में शिक्षा प्रदान करते रहे और संपूर्ण विश्व के जिज्ञासु भारतीय विश्वविद्यालयों में आकर ज्ञान प्राप्त करते रहे हैं। शिक्षा नीति में विश्व के सर्वोत्तम एक सौ विश्वविद्यालयों को भारत में अपने कैंपस खोलने की अनुमति प्रदान की जाएगी तथा इसके लिए विशेष प्रावधान बनाए जाएंगे। विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में आने पर कोई आपत्ति नहीं है, अधिनियम में यह बात स्पष्ट है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को कोई विशेष सुविधा नहीं दी जाएगी। जो नियम और कानून भारतीय विश्वविद्यालयों पर लागू होते हैं उन्हीं के द्वारा विदेशी संस्थान संचालित किए जाएंगे। वर्तमान में भारतीय विश्वविद्यालयों को विदेश में शिक्षा देने का अधिकार नहीं है, लेकिन अब भारतीय विश्वविद्यालयों को विदेशों में कैंपस खोलने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रावधान किया गया है।
भारतीय शिक्षण मंडल के प्रांतीय उपाध्यक्ष अजीत कुमार और विस्तारक श्रवण कुमार कहते हैं कि भारतीय शिक्षण मंडल भारत केंद्रित शिक्षा व्यवस्था के लिए 1969 से संघर्ष कर रही है। जिसका परिणाम मैकाले मुक्त शिक्षा के निर्माण का बीज राष्ट्रीय शिक्षा नीति में है। लेकिन इस संकल्प की सिद्धि इस बात पर निर्भर करेगी कि शिक्षक, शिक्षा से जुड़े तमाम लोग, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता किस प्रकार से शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में मैकाले मुक्त दृष्टि से कार्य करते हैं। भारतीय शिक्षण मंडल शिक्षा नीति को सभी स्तर पर लागू करने के प्रति जागरूक करने के लिए नीति आयोग के साथ मिलकर देश के सभी 749 जिलों में जन जागरूकता कर रही है। जिसमें सेमिनार के माध्यम से शिक्षकों को उनकी भूमिका बताने के साथ-साथ तमाम लोगों को जागरूक किया जा रहा है। इसके साथ ही वेबीनार के माध्यम से देश के सभी विश्वविद्यालयों में जागरूकता कार्यक्रम आयोजित हो रहा है। हमारा कर्तव्य दो सौ वर्षों से चले आ रहे शिक्षा के गुलामी से मुक्ति की इस नीति को अक्षरश: लागू कर भारत को परम वैभव तक पहुंचाना है।
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