– गिरीश्वर मिश्र
वैसे तो आत्महत्या जैसी घटनाओं का विभिन्न संस्कृतियों में लम्बा इतिहास है, फिर भी समकालीन समाज में जिस तेज़ी से ये लगातार बढ़ रही है वह पूरे विश्व के लिए चिंता का बड़ा कारण हो रहा है। आत्महत्या की दिशा में आगे बढ़ना और उसे अंजाम देना बड़ा जटिल व्यवहार है। यह आर्थिक, पारिवारिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में आ रहे तीव्र परिवर्तन के दबावों से जुड़ा हुआ है। भारत के संदर्भ में आधुनिकीकरण, धर्म की जगह सेकुलर दृष्टि को तरजीह और संयुक्त परिवार का नष्ट होना कुछ ऐसी घटनाएँ हैं जो हमारी सोच को उलट-पलट रहे हैं और व्यक्तिगत स्तर पर व्यवहार को नियंत्रित संयोजित करने की प्रक्रिया को कमजोर कर रहे हैं। औद्योगीकरण तथा नगरीकरण आदि ने समाज में विद्यमान एकीकरण या जोड़ने की क्षमता को लगातार कम किया है। अब व्यक्तिगत स्वातंत्र्य को बढ़ावा देते हुए व्यक्ति की निजी इच्छाओं को अधिक महत्व दिया जा रहा है। समाज द्वारा नियमन और निगरानी अनावश्यक दख़ल मानी जा रही है। इन सबके बीच आदमी की बुद्धि, भावना और सामाजिकता सबके बीच संतुलन बिगड़ता जा रहा है। लोगों के आपसी रिश्ते बेतरतीब हो रहे हैं। सामाजिक-आर्थिक संरचना में बदलाव और बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के साथ लोग क़र्ज़, शेयर बाज़ार में गिरावट और गलाकाट व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता जैसी मुश्किलों में उलझते जा रहे हैं। व्यक्तिगत स्तर पर नकारात्मक जीवन की घटनाएँ आदमी में विषाद, निराशा और खुद के बारे में नकारात्मक सोच को बढ़ावा दे रही हैं। इन सबके बीच आदमी सारे कष्टों से मुक्ति के उपाय के रूप आत्महत्या के विचार की ओर आकृष्ट होता है। वह खुद अपने आप से और अपनी दुनिया से पलायन करने को उद्यत होता है। बढ़ते भावनात्मक तनाव के बीच मृत्यु का आकर्षण तीव्र हो उठता है। भावनात्मक कठिनाइयों से लड़ते हुए आदमी का आत्म-नियंत्रण टूटने लगता है।
अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षणों से पता चलता है कि कुछ देशों में आयु के साथ आत्महत्या की घटनाएँ बढ़ रही हैं तो कुछ देशों में मध्य आयु वर्ग में इसकी प्रवृत्ति सर्वाधिक है तो कुछ में किशोरवय में यह अधिक है। आज आत्मघात करने की मानसिक अवस्था वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य की एक प्रमुख समस्या का रूप ले रही है। एक अनुमान के अनुसार विश्व में होने वाले आत्महत्या के कुल मामलों के 78 प्रतिशत निम्न और मध्यम आय वाले देशों से आते हैं। मनुष्यों की मृत्यु के कारणों में पंद्रहवाँ आत्महत्या का है। पूरे विश्व में लगभग सात लाख से अधिक लोगों की मृत्यु आत्महत्या के कारण होती है। प्रति एक लाख की जनसंख्या पर 10.7 आत्महत्या की दर का अनुमान किया गया है। उल्लेखनीय है कि 15-44 वर्ष के आयु वर्ग में आत्महत्या, मृत्यु के तीन प्रमुख कारणों में शुमार है। यद्यपि पुलिस के आँकड़े अपर्याप्त हैं और राष्ट्रीय अपराध रिकर्ड ब्यूरो के प्रदत्त संकलन की विधि भी पूरी तरह से संतोषजनक नहीं है तथापि उनसे पता चलता है कि 25-34 आयु वर्ग में और बुजुर्गों में आत्महत्या के मामले अधिक थे। इसी तरह पुरुषों, खंडित परिवारों, तलाक़शुदा लोगों में, अकुशल कामगारों में, निम्न सामाजिक-आर्थिक समुदायों के लोगों में, नकारात्मक जीवन की परिस्थितियों (जैसे-पारिवारिक कलह, वैवाहिक समस्या) से जूझते लोगों में इस तरह की घटनाएँ अधिक होती हैं।
आत्महत्या को सीमांत व्यक्तित्व विकृति का एक लक्षण माना गया है। कई मामलों में इसका सम्बन्ध मादक द्रव्य और पदार्थों के सेवन से भी जुड़ा पाया जाता है। इसे खानपान, चिंता, अवसाद, द्विछोरी (बाई पोलर) विकृति तथा त्रासदी उपरांत विकृति (पीटीएसडी) से भी जुड़ा पाया गया है। इसकी व्याख्या करते हुए प्रसिद्ध समाजशास्त्री दुर्खाइम ने समाज और संस्कृति की भूमिका पर बल दिया था। इसे फ़्रायड के विचारों को ध्यान में रखकर आत्महत्या को दूसरे व्यक्ति की हत्या का विलोम और दूसरे के प्रति क्रोध की आत्माभिमुख अभिव्यक्ति भी कहा गया है। इसकी व्याख्या मृत्यु की मूल प्रवृत्ति तथा हत्या करने की आकांक्षा और मृत्यु की इच्छा आदि से भी जोड़ कर की जाती है। इसे मनोपीड़ा (साइकीक) से भी सम्बंधित किया गया है जो असह्य हो और जीना दूभर कर दे। उतावलापन और कार्य में चरमोत्कृष्टता (परफ़ेक्शन) की प्रवृत्ति से भी इसे जुड़ी होती है।
ध्यातव्य है कि आत्महत्या स्वयं अपने द्वारा अपने को ख़त्म करने के लिए आरंभ किया गया सचेत व्यवहार है। वस्तुतः यह अस्वास्थ्य की एक बहुआयामी अवस्था है जब कोई व्यक्ति किसी मुद्दे के समाधान के रूप में आत्महत्या को विकल्प तय करता है। उसे और दूसरे रास्ते बंद लगते हैं और यही उसे सर्वथा उचित उपाय लगने लगता है। अक़्सर आत्महत्या के अंतिम कदम उठाने के पहले व्यक्ति कई व्यवहार प्रदर्शित करता है जो इस (आगामी) दुर्घटना का संकेत देते हैं। स्वैच्छिक आत्महानि या खुद को नुक़सान पहुँचाने का व्यवहार भी कई तरह का होता है। ज़हर खाना, कोई गलत या अधिक मात्रा की दवा या पेस्टीसाइड आदि खाना, फाँसी लगाना, नस काट कर, पानी में कूद कर, पिस्टल आदि घातक हथियार से खुद को अपने को आहत करते हैं और जान दे देते हैं। खुद को आघात पहुँचाने की प्रवृत्ति आत्महत्या की दिशा में आगे बढ़ने की प्रवृत्ति की सहयोगी होती है। इन सबमें जोखिम को बढ़ाने वाले कारक एक से हैं। ग़ैर घातक आत्मघाती व्यवहार भी किया जाता है जिसको पहचानना सरल नहीं होता है। उसे समझने के लिए व्यवहार की तीव्रता और व्यवहार कितना प्राणघाती है इन सब पर गौर करना ज़रूरी होता है। इस तरह के लक्षणों वाले रोगियों को सँभालने के लिए प्रभावी मनोचिकित्सा की जरूरत होती है। ऐसे रोगियों की जाँच और मूल्यांकन अच्छी तरह से होना चाहिए। मूल्यांकन के आधार पर औषधि या ग़ैर औषधि वाले उपायों की सहायता ली जा सकती है। ख़ासतौर पर आत्मघात के लक्षणों वाले रोगियों के जैविक, सामाजिक आर्थिक तथा सामाजिक सांस्कृतिक विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए उनके लिए विशेष क़िस्म के उपचार की ज़रूरत पड़ती है। आत्महत्या की सोच को जाँचने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने कुछ प्रश्नावलियों का भी विकास किया है जिससे उसका पूर्वानुमान किया जा सकता है। ऐसे रोगी की सुरक्षा की पुख़्ता व्यवस्था होनी चाहिए। उसकी अच्छी तरह देख-रेख और निगरानी ज़रूरी है। सामाजिक रिश्तों से जुड़ी समस्याओं के लिए समस्या-समाधान, थिरैपी (जैसे- संज्ञानतमक व्यवहार चिकित्सा या सीबीटी) और परामर्श उपयोगी हैं।
इस परिस्थिति के लिए प्राथमिक रोकथाम की कोशिश करते हुए समाज के स्तर पर जोखिम को घटाना आवश्यक है। इस दृष्टि से ग़रीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी, तनाव, वैवाहिक संघर्ष, मादक द्रव्य सेवन, हथियारों की उपलब्धता आदि को कम करना होगा। द्वितीयक रोकथाम के अंतर्गत इसके जोखिम वाल लोगों को पहचानना और उचित तथा सामयिक हस्तक्षेप ज़रूरी है। समय पर हस्तक्षेप करना बड़ा लाभकर होता है। क्राइसिस हेल्पलाइन और परामर्श की प्रभावी सेवा उपलब्ध कराना ज़रूरी है। तृतीयक रोकथाम के अंतर्गत जो लोग आत्महत्या की कोशिश कर चुके हैं और जीवित हैं, उनको शर्म और ग्लानि से मुक्त करना और पुनर्वास का प्रयास शामिल है।
आत्महत्या के प्रश्न को समाज में हम किस नज़रिए से देखते हैं यह महतवपूर्ण है। इसे लेकर चुप्पी तोड़ने की आवश्यकता है। खुले मन से, समझदारी की दृष्टि से सहायता की ईमानदार कोशिश से उन लोगों को बचाया जा सकेगा जो इस घातक मनोरोग से ग्रस्त हैं और जिन्हें मदद की आवश्यकता है। इसके लिए जन-जागृति और सहयोग की संस्कृति विकसित करनी होगी। इस तरह के विचार-विमर्श से सम्बंधित नीतियों का निर्माण और क़ायदे-क़ानून बनाने में सहायता मिलेगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बार आख्यान में बदलाव लाने के लिए कहा है। इसका आशय यह भी है कि मानसिक स्वास्थ्य को वरीयता मिले, उसके लिए आवश्यक सुविधा तक जन सामान्य की पहुँच सुनिश्चित हो। आत्महत्या को रोकना असंभव नहीं है। इसके लिए उचित समय पर इस दिशा में आगे जा रहे व्यक्ति से मिल रही चेतावनी के संकेत को समझ कर उचित कार्यवाही की जानी चाहिए। इसके लिए आत्महत्या को लेकर समाज में व्याप्त आख्यान को नए सिरे से गढ़ना होगा। इस बारे में खुले और ईमानदार विमर्श की शुरुआत करनी होगी। तभी मानसिक स्वास्थ्य के इस गंभीर पहलू को समझा जा सकेगा। विभिन्न क्षेत्रों के बीच आपसी मेलजोल से हम एक संवेदनशील समाज बना सकेंगे जिसमें हर कोई अपने को उपयोगी, समर्थ और मूल्यवान समझ सके। समाज भी उसे ठीक तरह से समझ कर उसके साथ बर्ताव कर सकेगा। उपनिषद् में काम करते हुए सौ साल जीने की कामना की गई थी : क़ुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत्शतं समा: । जीवन अमूल्य है और उसके पालन-पोषण और संरक्षण के लिए सामाजिक स्तर पर तैयारी आवश्यक है।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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