नई दिल्ली: भारत को अंग्रेजों से आजाद (Independence) होने में दो सदियां लग गईं. क्या आप जानते हैं ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) ने भारत में पहली बार कब और कहां कदम रखा था? क्या आप जानते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की पहली चिंगारी किस राज्य से उठी थी और विद्रोह का बिगुल किसने फूंका था? क्या आप जानते हैं कि अंग्रेजों ने सबसे पहले फूट डालो और राज करो की नीति देश के किस हिस्से से शुरू की? ऐसे ही एक नहीं, कई दिलचस्प किस्से, जिनके बारे में आपने पहले शायद ही सुना होगा.
आजादी मिलने में लग गईं दो सदियां
बता दें कि राजपथ भारत का शक्ति केंद्र है. यहीं से हिंदुस्तान की सरकार देश चलाती है. साल 1947 से पहले यहां से ब्रिटिश भारत पर शासन चलाते थे. हिंदुस्तान एक दिन में या एक साल में आजाद नहीं हुआ. भारत को अंग्रेजों से आजाद होने में दो सदियां लग गईं.
ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल में जमाया कब्जा
ईस्ट इंडिया कंपनी जब भारत आई थी तो किसी ने भी नहीं सोचा था कि वह अपने देश से बीस गुना बड़े दुनिया के सबसे धनी मुल्कों में से एक देश पर शासन करने की मंशा लेकर आई है. साल 1690 में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल (Bengal) के 38 गांवों की जमींदारी का अधिकार मिल गया था. ये पहला मौका था जब अंग्रेजों को भारत की जमीन पर आधिकारिक कब्जा मिला था और इसके बाद अंग्रेजों ने सत्ता कब्जाने का सिलसिला बंगाल से ही शुरू किया.
अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम से मिलाया हाथ
पूर्व में सत्ता नियंत्रण के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का लालच और सत्ता की भूख बढ़ती चली गई. पूर्व पर कब्जे के बाद अंग्रेजों ने दक्षिण की ओर रूख किया. दक्षिण की तरफ बढ़ रही ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद के निजाम को अपने साथ मिला लिया.
मंगल पांडे ने किया ब्रिटिश हुकूमत का विरोध
19वीं शताब्दी के मध्य तक ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देने वाला कोई नहीं था. लेकिन 29 मार्च 1857 को एक घटना घटी जिसने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी पैदा कर दी. मंगल पांडे ने जो चिंगारी जलाई थी वो चिंगारी उनकी मौत के बाद भी शांत नहीं हुई, वो धीरे-धीरे आग के शोले में बदल रही थी. मंगल पांडे की मौत के करीब एक महीने बाद मेरठ में ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. उनकी बगावत की वजह भी वही थी जिसकी वजह से मंगल पांडे ने विद्रोह किया था.
‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’ ये वाक्य है उस वीरांगना का जिन्होंने ब्रिटिश कंपनी के सामने घुटने टेकना कभी मंजूर नहीं किया. 1857 की लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों को सबसे कड़ी टक्कर दी. 1857 का स्वतंत्रता संग्राम दुनिया में अंग्रेजी हुकूमत और उपनिवेशवादी व्यवस्था के खिलाफ 19वीं सदी में हुआ सबसे बड़ा विद्रोह था. अंग्रेजों की नीतियों के कारण उस वक्त समाज के सभी वर्गों में असंतोष था, यही वजह रही कि सिपाहियों ने जो विद्रोह शुरू किया था, बाद में उससे किसान और गरीब भी जुड़ गए.
1857 की लड़ाई को लेकर इतिहासकारों में मतभेद रहा है. कुछ इतिहासकार इसे सिर्फ सैन्य विद्रोह मानते हैं. जबकि कई इतिहासकार इसे ही भारत की आजादी का पहला युद्ध मानते हैं. स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदार सावरकर ने अपनी किताब फर्स्ट वॉर ऑफ इंडियन इंडिपेडेंस में लिखा है कि 1857 का विद्रोह एक सुनियोजित राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम था. उन्होंने कहा कि 1857 के विद्रोह ने अंग्रेजी शासन को ऐसी चोट दी, जिसकी गूंज ब्रिटेन की महारानी तक को सुनाई दी. जिसके बाद ब्रिटिश राजशाही ने ईस्ट इंडिया कंपनी से भारत पर शासन करने के अधिकार वापस ले लिए और तब से भारत में ब्रिटिश राजशाही का सीधा शासन शुरू हो गया.
साल 1857 में स्वतंत्रता के पहले संग्राम के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ भारत में भी अंसतोष फैल गया था और कंपनी से ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया प्रथम भी खुश नहीं थीं. लिहाजा साल 1858 में ब्रिटिश राजशाही से फरमान जारी हुआ कि अब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन नहीं होगा बल्कि ब्रिटेन की महारानी के हाथों में शासन की कमान होगी यानी ब्रिटेन की सरकार का सीधा नियंत्रण एशिया के सबसे संपन्न देश भारत पर हो गया. साल 1905 तक कांग्रेस में ऐसे नेताओं का वर्चस्व था, जो अंग्रेजी शासन के प्रति नरम दिल थे. भारत की आजादी के आंदोलन में बड़ा मोड़ बीसवीं सदी की शुरुआत में आया. स्वदेशी आंदोलन से अंग्रेजों के खिलाफ देश में फिर से माहौल बनने लगा था. बंगाल विभाजन के खिलाफ हुए आंदोलन से अंग्रेजों को बड़ी आर्थिक क्षति पहुंची थी. बंगाल में उपजे अंसतोष ने अंग्रेजों को बंगाल विभाजन रद्द करने पर मजबूर कर दिया.
बंगाल विभाजन ने कांग्रेस के अंदर भी विभाजन की स्थिति पैदा कर दी थी. आजादी की लड़ाई में कांग्रेस के कुछ नेता अंग्रेजों से समझौता करके भारत पर शासन चाहते थे तो कुछ स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेजों से किसी भी तरह का समझौता नहीं चाहते थे. वो हर हाल में अंग्रेजों से आजादी चाहते थे पूरी आजादी. आजादी के आंदोलन में साल 1915 में अहम पड़ाव तब आया जब शांति और अहिंसा के ताकतवर हथियार के साथ एक शख्स दक्षिण अफ्रीका से अपने वतन हिंदुस्तान लौटा और उसके भारत वापस आने पर स्वतंत्रता आंदोलन को नई पहचान और शक्ति मिल गई.
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भारत की आजादी का दूसरा पर्याय कहें तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. देश में दो आंदोलन के बाद भारत को उसकी आजादी की लड़ाई का सबसे बड़ा हथियार मिला और वो हथियार था सत्याग्रह और अहिंसा. गांधी जी ने फरवरी 1919 में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू करने का ऐलान किया लेकिन इसी दौरान अंग्रेजी हुकूमत ने जलियांवाला बाग में क्रूरता की ऐसी कहानी लिख दी जो इतिहास के काले दिनों में दर्ज हो गई.
जलियांवाला नरसंहार में मरने वालों की संख्या सरकारी आंकड़ों में 379 बताई गई थी, लेकिन असल में ये संख्या कहीं ज्यादा थी. जलियांवाला बाग की घटना से पूरा देश मौन था. इस घटना के बाद भी अंग्रेजी हुकूमत का रवैया नहीं बदला और उसने अपना दमन जारी रखा. इसके बाद महात्मा गांधी ने एक बार फिर देश में असहयोग आंदोलन के जरिए आजादी की अलख जगाई.
असहयोग आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई जागृति दी थी. असहयोग आंदोलन का असर कितना था, इसका जिक्र महात्मा गांधी के साथ देशभर की यात्रा करने वाले प्रभुदास गांधी ने किया था. प्रभुदास गांधी ने बताया था कि जब गांधी जी किसी दूरदराज स्टेशन पर खड़े लोगों से कहते कि आप लोग विरोध जताने के लिए अपनी टोपी, पगड़ी और दुपट्टा उतार दीजिए तो लोग फौरन उतार देते और उसकी होली जता देते थे. 23 मार्च 1931 को भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दे दी गई और उसी साल चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से बचने के लिए खुद को गोली मार ली. इस तरह से क्रांतिकारी आंदोलन समाप्त हो गया. क्रांतिकारियों की शहादत के कुछ वर्षों बाद तक स्वतंत्रता आंदोलन धीमा पड़ गया, लेकिन गांधी जी ने एक बार फिर भारतीयों को जगाने की कोशिश की.
आजादी की कहानी एक स्वतंत्रता सेनानी के योगदान के बगैर की अधूरी है. वो स्वतंत्रता सेनानी जो कांग्रेस में भी रहे, गांधी जी के साथ रहे, लेकिन उस महान सेनानी ने आजादी हासिल करने के लिए अंग्रेजों से सीधा युद्ध करने की राह चुनी. उस दौर में शायद उस शख्यिसत के अलावा ये तरीका कोई और सोच भी नहीं सकता था. सुभाष चंद्र बोस ये समझ गए थे कि अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए राजनीति नहीं युद्ध का सहारा लेना पड़ेगा. 1941 में सुभाष बाबू अंग्रेजों से नजर बचाकर जर्मनी चले गए. विदेश जाकर उन्होंने भारत को आजाद कराने के लिए दुनिया के दूसरे मुल्कों को एकजुट किया.
आजादी के आंदोलन में नया मोड़ आया साल 1942 में, जब महात्मा गांधी ने अंग्रेजों की खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की. वर्तमान मुंबई में सभा करते हुए महात्मा गांधी ने कहा कि आजादी से कम कुछ भी मंजूर नहीं. इस सभा में उन्होंने करो या मरो का नारा भी दिया. भारत छोड़ो आंदोलन ने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों पर बड़ा प्रहार किया था और देश में आजादी के लिए छटपटाहट और ज्यादा बढ़ा दी थी. अंग्रेज समझ गए थे कि अब भारत पर कब्जा बनाए रखना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है.
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