नई दिल्ली। दीपावली (Diwali) विशुद्ध रूप से बाजार का त्योहार (Market festival) है. इसलिए इसकी शुरुआत के सबसे पहले दिन धनतेरस (Dhanteras) का होना इस बात की शपथ है कि जो धन कमाया (Earned money) जाने वाला है, उसके कमाने में भी कहीं से अधर्म नहीं (Not unrighteous) किया जाएगा, किसी का हक नहीं मारा जाएगा और किसी के साथ अन्याय नहीं किया जाएगा. सनातन परंपरा (Sanatan tradition) भी धन की कभी विरोधी नहीं रही है, बल्कि वह तो धन को सबसे महत्वपूर्ण मानती है। धनतेरस सिर्फ धन-संपत्ति नहीं आध्यात्मिक उन्नति का भी त्योहार है।
एक किवदंति के अनुसार, विश्व विजेता सिकंदर आखिरी सांसें गिन रहा था. वह तड़प रहा था. मृत्यु आने को थी. अचानक वह पूरा दम लगाकर चीखा, जितनी जोर से पुकार सकता था, पुकारा. बोला- सुनो… इधर आओ.. सुनो! सारे हकीम, सारे कारिंदे-गुलाम दौड़े आए. सिकंदर अभी भी तड़प रहा था. वह कुछ कहना चाहता था. हकीमों ने सहारा दिया तो उसने धीरे-धीरे बोलना शुरू किया. कहा- मेरी तीन इच्छाएं हैं।
1. मौत के बाद मेरा ताबूत हकीमों के कंधों पर ले जाया जाए.
2. जब तक ताबूत कब्रिस्तान पहुंचे तो मेरी इकट्ठी की गई सारी संपत्ति कब्रिस्तान के रास्ते के दोनों ओर बिखेरी जाए, ताकि लोग उसे देख सकें.
3. मेरे दोनों हाथ ताबूत से बाहर लटके रहें।
सिकंदर की इन तीन आखिरी इच्छाओं के अर्थ बड़े गहरे थे. वह कहना चाहता था कि
1. रोग का इलाज करने वाले हकीम भी मौत को नहीं हरा सकते.
2. जब मौत आती है तो दौलत भी काम नहीं आती.
3. इंसान धरती पर खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है।
कह नहीं सकते कि मरते वक्त सिकंदर ने ठीक यही शब्द कहे थे या ये किवदंती ही है, लेकिन इस बात में सनातन के उस मूलमंत्र की झलक है, जो कहता है कि धन सबसे बड़ा सुख नहीं. धन महज एक भ्रम है और जो मनुष्य को जीवन भर अपने पीछे बांध कर रखता है. यही तो वह माया है, जिसमें उलझकर कोई भी व्यक्ति कर्म के फेर में फंस जाता है. बाबा कबीर एक जगह कहते भी हैं कि ‘माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवै पड़ंत’
लेकिन क्या धन को लेकर कही गई ये बातें पूरा सच हैं? सवाल ये उठता है कि जिस सनातन परंपरा में धन का कोई स्थान ही नहीं बताया गया या फिर उसकी वैल्यू सबसे कमतर आंकी गई है और कथावाचकों के उपदेशों में जिसे बार-बार सबसे गैर जरूरी बताया जाता है, उसी सनातन परंपरा में पूरा एक दिन धन के लिए क्यों समर्पित है. जब धन से दूरी ही बनानी है तो धनतेरस जैसा त्योहार क्यों?
रुपया-पैसा ही नहीं, चरित्र और स्वास्थ्य भी हैं सबसे बड़े धन
संस्कृत भाषा में एक सूक्ति है, ‘शरीर माद्यं खलु धर्म साधनम्’. यानी कि शरीर ही सभी प्रकार के धर्म करने का माध्यम है. इसी बात को और अधिक विस्तार तरीके से समझाते हुए एक श्लोक में कहा गया है कि यदि धन चला गया तो समझिए कि कुछ नहीं गया, यदि स्वास्थ्य चला गया तो समझिए कि आधा धन चला गया, लेकिन अगर धर्म और चरित्र चला गया तो समझिए सबकुछ चला गया।
इस श्लोक में धन सिर्फ रुपये-पैसे को नहीं कहा जा रहा है, बल्कि स्वास्थ्य और चरित्र यानी आचरण को भी सबसे बड़ा धन बताया जा रहा है. यानी कि सनातन परंपरा में सृष्टि के निर्माण के साथ ही मानव जीवन के लिए जरूरी उन्नत विचार स्थापित हैं. समय-समय पर इन्हीं विचारों को याद दिलाने और समाज में इनकी स्थापना बनाए रखने के लिए त्योहारों-पर्वों की परंपरा विकसित की गई. इन परंपराओं का सबसे बड़ा केंद्र है, दीपावली- प्रकाश का पर्व. यह पर्व सिर्फ बाहरी उजाले का पर्व नहीं, बल्कि आंतरिक चेतना को भी जगाने का पर्व है।
कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से इसकी शुरुआत हो जाती है, जिसे कि धनत्रयोदशी और धनतेरस भी कहते हैं. आयुर्वेद में अमरता का वरदान देने वाले भगवान धन्वंतरि के नाम पर यह दिन धनतेरस कहलाया, लेकिन उनके नाम की शुरुआत में ‘धन’ शब्द होने से यह पर्व केवल धन को समर्पित रह गया है। असल में ऐसा है नहीं, धनतेरस सिर्फ धन (रुपये-पैसे, रत्न, सोने-चांदी) की पूजा और कामना का पर्व नहीं है, बल्कि धन के सच्चे स्वरूप को जानने-समझने का दिन है।
धन की विरोधी नही है सनातन परंपरा
दीपावली विशुद्ध रूप से बाजार का त्योहार है. इसलिए इसकी शुरुआत के सबसे पहले दिन धनतेरस का होना इस बात की शपथ है कि जो धन कमाया जाने वाला है, उसके कमाने में भी कहीं से अधर्म नहीं किया जाएगा, किसी का हक नहीं मारा जाएगा और किसी के साथ अन्याय नहीं किया जाएगा. सनातन परंपरा भी धन की कभी विरोधी नहीं रही है, बल्कि वह तो धन को सबसे महत्वपूर्ण मानती है. इसीलिए जीवन के चार उद्देश्य में (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) धन यानी अर्थ का स्थान दूसरा है और इसका होना भी धर्म है. बस इसका धार्मिक तरीके से कमाया जाना जरूरी है. एक कहावत भी है, चोरी का माल मोरी (नाली) में जाता है।
पौराणिक मान्यताओं में धन-संपत्ति स्वयं लक्ष्मी स्वरूपा है. लक्ष्मी धन की देवी हैं. उन्हें ‘श्री’ कहा गया है. ऐसे में धन त्रयोदशी के दिन लोग सोने-चांदी के तौर पर संपत्ति व धन अर्जित करते हैं. इसके अलावा सनातन परंपरा, चरित्र और स्वास्थ्य रूपी धन के भी संरक्षण पर जोर देती है और धनतेरस इन तीनों ही तरह के धन को अर्जित करने का दिन है।
वेद-पुराणों में धन का महत्व
वेद-पुराणों और नीति की कहानियों में हालांकि कभी भी धन को सर्वोपरि नहीं माना है, लेकिन कुछ ऊपर तो माना ही है. धन का महत्व कई रचनाओं में शामिल है. समय-समय पर धन के महत्व को बताने वाले पद लिखे गए हैं।
आचार्य चाणक्य ने अर्थशास्त्र में धन के विषय में कहा है कि
यस्यार्थस्तस्य मित्राणि यस्यार्थस्तस्य बान्धवाः,
यस्यार्थः स पुमांल्लोके यस्यार्थः स च जीवति।
जिसके पास धन होता है उसी से अन्य लोग मित्रता करते हैं, अन्यथा उससे दूर रहने की कोशिश करते हैं. निर्धन से मित्रता कोई नहीं करना चाहता.
चाणक्य का प्रसिद्ध कथन है, “धनमूलं इदं जगत्.” यानी कि ‘संपूर्ण संसार का आधार धन है. धन के बिना जीवन में कोई भी कार्य करना कठिन है. इसलिए धन को सही ढंग से अर्जित और उपयोग करना चाहिए. वहीं, चाणक्य यह भी कहते हैं कि, धन को धर्म के मार्ग पर चलकर ही अर्जित करना चाहिए. जो धन अधर्म से प्राप्त होता है, वह नष्ट हो जाता है और व्यक्ति को भी पतन की ओर ले जाता है. “धर्मस्य मूलं अर्थः.” यानी धर्म का आधार धन है. यदि व्यक्ति के पास धन है, तो वह धर्म के मार्ग पर चल सकता है, क्योंकि वह दान-पुण्य और समाज सेवा के कार्यों में योगदान कर सकता है।
धन का धर्म के अनुसार हो उपयोग
चाणक्य ने धन के उपयोग भी प्रकाश डाला है. उन्होंने इसका उपयोग समाज कल्याण, मित्रों और संबंधियों की सहायता, शिक्षा और धार्मिक कार्यों में करने की सलाह दी है. वह लिखते हैं कि, ‘धन का उपयोग केवल अपने लिए नहीं होना चाहिए, बल्कि यह समाज के विकास में भी सहायक होना चाहिए।
चाणक्य का एक कथन है:
“यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति॥”
अर्थ: जिस व्यक्ति के पास बुद्धि नहीं है, उसके पास धन और शास्त्र होने का भी कोई लाभ नहीं है. जैसे नेत्रहीन के लिए दर्पण का कोई महत्व नहीं, वैसे ही अज्ञानी व्यक्ति के लिए धन का कोई सही उपयोग नहीं.
फिजूलखर्ची पर तो चाणक्य खासतौर पर रोक लगाते हैं और लिखते हैं कि, धन को व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए और इसका मैनेजमेंट बहुत सावधानी से करना चाहिए. अगर धन का प्रबंधन बहुत खराब है तो समझिए, इससे बड़ा शत्रु कोई और नहीं है.
एक और प्रसंग में चाणक्य लिखते हैं कि, ‘अर्थस्य मूलं राज्यं.’ यानी राज्य की सफलता और स्थिरता का आधार अर्थ (धन) है. लेकिन अगर किसी परिस्थिति में धर्म और धन में से किसी एक को चुनना पड़े, तो धर्म का पालन करना चाहिए, क्योंकि केवल धन की ममता मनुष्य को पतन की ओर ले जा सकती है.
उन्होंने कहा:
“त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥”
यदि एक व्यक्ति का त्याग करने से परिवार की रक्षा होती है, तो व्यक्ति का त्याग कर देना चाहिए. इसी प्रकार, परिवार की रक्षा के लिए गांव का, गांव की रक्षा के लिए राज्य का और आत्मा की उन्नति के लिए संसार का भी त्याग करने में संकोच नहीं करना चाहिए.
वेदों और पुराणों में भी धन से बैर नहीं बताया गया है कि, बल्कि इसका महत्व समझाने वाले कई श्लोक वेदों-पुराणों में दर्ज हैं. अर्थवेद कहता है कि, ‘अर्थ: सर्वस्य मूलम्.’ यानी अर्थ (धन) सभी कार्यों का मूल है. धन मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक आधार है और इसके बिना जीवन में प्रगति संभव नहीं है.
अथर्ववेद में धन की कामना:
“धनं मे धेयम् धनं मे प्रदीयताम्।
धनम् मे सन्दधातु, धनं मे संज्वरात्॥”
अर्थ: मुझे धन की प्राप्ति हो, धन का संग्रह हो, धन मेरे साथ बना रहे और धन से मुझे संतुष्टि मिले. यह श्लोक व्यक्ति की आर्थिक सम्पन्नता और संतोष की कामना को जरूरी बताता है.
इसी तरह ऋग्वेद कहता है कि,
“शतं न षः शरदोऽन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्।
पुत्रासो यत्र पितरं भवन्ति मा नो मध्याग्ं रीयिषो जीवतोऽधि॥”
अर्थ: हे देवो! हमें दीर्घायु, संतति, और धन की प्राप्ति हो ताकि हमारे पुत्र हमारी सेवा कर सकें और हमारा जीवन सुखमय बने. यह श्लोक भी धन और संपत्ति का जीवन में महत्व बताता है.
वहीं जब भागवत पुराण में धन जिक्र आता है तो यह न सिर्फ इसे संपत्ति के तौर पर जोड़ना जरूरी बताता है, बल्कि इसके धर्मपूर्ण उपयोग को भी बेहद जरूरी बताता है.
“यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः,
स पण्डितः स श्रुतवान गुणज्ञः।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः,
सर्वे गुणा काञ्चनं आश्रयन्ते॥”
अर्थ: जिसके पास धन है, वही कुलीन, विद्वान, और गुणों से युक्त माना जाता है. समाज में धन से ही व्यक्ति की प्रतिष्ठा बनती है, लेकिन इसे धर्मपूर्वक अर्जित और उपयोग करना चाहिए.
महाभारत में धन को लेकर एक और बड़ी जरूरी बात कही गई है.
“धनार्थी धर्ममार्गेण धर्मार्थी चापि यत्नतः।
धर्मेणैव समायुक्तः पश्येच्छ्रेयश्च नैरृतम्॥”
अर्थ: धन को हमेशा धर्म के मार्ग पर चलकर ही प्राप्त करना चाहिए और उसका उपभोग भी धर्म के अनुसार ही होना चाहिए. धर्म से ही सच्ची उन्नति और सुख संभव है.
ये श्लोक वेदों और पुराणों में न सिर्फ धन के महत्व को सामने रखते हैं, बल्कि यह भी स्पष्ट करते हैं कि धन का सही उपयोग केवल धर्म, न्याय और नैतिकता के मार्ग पर चलकर ही किया जा सकता है. धन को केवल भौतिक सुख का साधन न मानकर, इसे मानवता और समाज के कल्याण का साधन समझा गया है.
धन का महत्व बताने के लिए कबीरदास का एक दोहा बेहद चर्चित है. वैसे वह धन के प्रति मोह को एक जीवात्मा की बड़ी बाधा भी बताते हैं और कहा कि धन लोभ का कारण बनता है, जो आत्मा की उन्नति में रोड़ा है, लेकिन यही कबीर साईं से उतना मांग भी ले रहे हैं, जितने में कुटुंब का पालन-पोषण हो जाए.
कबीर कहते हैं
“साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय.
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय.”
कबीरदास के अनुसार, केवल उतना ही धन चाहिए जिससे कि परिवार का पालन-पोषण हो सके और जरूरतमंदों की सहायता भी की जा सके. इसके अलावा धन संचय का कोई महत्व नहीं है, बल्कि संतुलित जीवन जीना ही श्रेष्ठ है.
उन्होंने यह भी कहा:
“माया मुई न मन मुआ, मर-मर गये शरीर।
आशा तृष्णा न मुई, कह गए दास कबीर॥”
अर्थ: कबीर कहते हैं कि माया (धन) की आसक्ति इतनी प्रबल है कि शरीर मर जाता है, लेकिन तृष्णा नहीं मरती. इसलिए धन का लोभ त्यागकर आत्मिक सुख की प्राप्ति करनी चाहिए.
वहीं संत रविदास ने धन को भौतिक सुखों का साधन नहीं माना, बल्कि इसे एक माध्यम माना है जो केवल जीने के लिए आवश्यक है, न कि अहंकार और दिखावे के लिए जरूरी है.
“कहि रैदास खरा बिनु धन के, सेवा करै सो बामण होई।
राम नाम रटि पांवर होई, जूठन मांगे सो पामर होई॥”
अर्थ: रविदास कहते हैं कि यदि मनुष्य में सच्चाई और विनम्रता है तो वह बिना धन के भी समाज में सम्मान पा सकता है, लेकिन, यदि उसके पास धन होते हुए भी विनम्रता नहीं है, तो वह असली निर्धन है.
सिख परंपरा में धन का महत्व
सिख परंपरा के प्रथम गुरु नानक देव ने भी धन को ईश्वर का दिया हुआ साधन माना है, जिसका उपयोग परोपकार और भलाई के लिए किया जाना चाहिए.
“धन, जो सेवक सच्चे को दे, सो सेवा करु।”
अर्थ: धन का सही उपयोग सेवा और परोपकार में है. यह धन लोगों की भलाई और प्रभु की सेवा में लगाना चाहिए, न कि अहंकार और भौतिक इच्छाओं की पूर्ति में.
गुरु नानक जी ने यह भी कहा:
“धरती, नीर, अग्नि पवन, सुख माया सब हराम।
हरि नाम बिना सब बिकार है, खोटा धन हरि नाम॥”
अर्थ: संसार के सारे संसाधन और धन बेकार हैं यदि उनके साथ प्रभु का नाम न हो. यदि धन का उपयोग लोभ, मोह और अहंकार में हो, तो वह मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है.
जैन परंपरा में धर्म के अनुसार धन के प्रयोग की दी गई है सलाह
जैन परंपरा में जिसके आचरण और व्यवहार को देखकर लगता है कि इस परंपरा में धन का कोई महत्व नहीं, वह भी धन को धर्म का आधार बताकर जरूरी बताता है. जैन धर्म में धन को संयम, नैतिकता और परोपकार के साथ जोड़कर देखा गया है. इसमें दर्ज है ‘धनं धम्मसहायं हो, न उ कर्मस्स कारणं.” यानी धन का उपयोग धर्म का सहायक होना चाहिए, न कि पाप या बुरे कर्मों का कारण.
क्या कहते हैं ओशो?
आध्यात्मिक गुरु ओशो ने तो धन को लेकर बेहद सरल लेकिन बड़ी गहरी बात कही थी. वह कहते हैं कि, ‘मैं धन का निंदक नहीं हूं. मैं तो चाहूंगा कि दुनिया में धन खूब बढ़े, खूब बढ़े, इतना बढ़े कि देवता तरसें पृथ्वी पर जन्म लेने को. पर जरूरी ये है कि धन तुम्हारे जीवन का सर्वस्व न हो जाए. तुम धन को ही इकट्ठा करने में न लगे रहो. धन साधन है, साध्य न बन जाए. धन के लिए तुम अपने जीवन के और सारे मूल्य न गंवा बैठो.’
अगर ऐसा है तो धन में कोई बुराई नहीं है. ऐसा है तो धन लक्ष्मी है, धन श्री है. धन ही धर्म है और धन धर्म का कारण है. धन आध्यात्मिक उन्नति का आधार है और यही धनतेरस के पर्व का लक्ष्य है, उद्देश्य है कि हम धन की धारणा को समझें, उसे अपने जीवन में अपनाएं, लेकिन ये न भूलें कि ‘संतोष ही सबसे बड़ा सुख है, संतोष ही सबसे बड़ा धन है.’
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