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जलवायु परिवर्तन और भारतीय चुनाव

May 01, 2024

– कुलभूषण उपमन्यु

संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व मौसम विज्ञान संस्था ने एशिया में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर एक रिपोर्ट गत सप्ताह जारी की है, जिसमें यह बात सामने आई है कि वैश्विक तापमान वृद्धि का प्रभाव एशिया में विश्व औसत से ज्यादा पड़ रहा है। इस क्षेत्र में कई देशों में आज तक का अधिकतम तापमान दर्ज किया गया है, जिसके कारण इस महाद्वीप में 2023 में 90 लाख लोग बाढ़ और तूफान से प्रभावित हुए। दो हजार लोग काल का ग्रास बन गए। जलवायु परिवर्तन ने बाढ़, सूखे और तूफानों की घटनाओं को न केवल बढ़ाया है बल्कि उनकी भयानकता को भी बढ़ाया है, जिसका दुष्प्रभाव वहां के समाज, अर्थ व्यवस्था, और मानव जीवन पर पड़ा है।


जलवायु परिवर्तन के मुख्य सूचकों जैसे कि जमीनी तापमान में वृद्धि, ग्लेशियरों का पिघलना, और समुद्र के जलस्तर के बढ़ने से बिगड़ती हुई स्थिति का पता चल रहा है। 1960-1990 के दौर के मुकाबले तापमान वृद्धि की दर लगभग दुगुनी हो गई है। 2023 में जहां एक ओर सूखा पड़ा वहीं दूसरी ओर भयानक बाढ़ आई। चीन की बाढ़ और भारत में सूखे से 65 बिलियन डॉलर का आर्थिक नुकसान होने का अनुमान लगाया गया है। चीन में 140 वर्षों का वर्षा का रिकार्ड टूट गया।

वहीं दक्षिण पश्चिमी चीन भारी सूखे की चपेट में रहा। भारत में लू के कारण 100 लोगों की मौत हो गई और सिक्किम का तीस्ता-3 बांध बाढ़ की चपेट में आकर ध्वस्त हो गया और 100 लोग अपनी जान गंवा बैठे। बढ़ते तापमान के कारण इस तरह की घटनाओं के बढ़ने की संभावना है। भारत और बांग्लादेश में लू की संभावनाओं में 30 गुणा वृद्धि की आशंका पैदा हो गई।

एशिया के तेज गति से बढ़ते तापमान के चलते इसके ग्लेशियर भी खतरे में पड़ गए हैं। मुख्य 22 ग्लेशियरों में से 20 में भारी नकारात्मक बदलाव पाए गए हैं। यानी ग्लेशियरों के पिघलने की गति तेज हुई है। तापमान वृद्धि से समुद्र का जल भी ज्यादा गर्म हो रहा है जिसके कारण भारी बारिश और समुद्री तूफानों का खतरा बढ़ा है। पिछले चार दशकों में अरब सागर में समुद्री तूफानों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हुई है और तूफानों की घातकता भी बढ़ी है।

जुलाई और अगस्त 2023 में हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में भारी बारिश के कारण भूस्खलन के कारण हुई भारी तबाही का भी रिपोर्ट में जिक्र किया गया है ,जिसको भारत सरकार ने आपात स्थिति घोषित किया। इन स्थितियों से निपटने के लिए आपदा प्रबन्धन के विषय में भी काफी कुछ करने की जरूरत पर रिपोर्ट में प्रकाश डाला गया है। हालांकि भारत ने इस विषय में कुछ मानकों पर अच्छी प्रगति की है फिर भी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है। पूर्व चेतावनी व्यवस्था में सुधार करके आपदाओं में होने वाली हानि को 30 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।

रिपोर्ट में आर्थिक असमानता के चलते जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के और ज्यादा चिंताजनक होने की बात कही गई है। जाहिर है कि बढ़ते तापमान का प्रत्यक्ष डंक उन गरीब लोगों को भुगतना पड़ता है जिनके पास आवास की व्यवस्था नहीं है, या जिन्हें दैनिक मजदूरी पर निर्भर रहना पड़ता है, या वह किसान जिनकी फसल खुले में में ईश्वर भरोसे रहती है। उनके लिए जलवायु अनुकूलन व्यवस्था खड़ी करना भी संभव नहीं होता। बढ़ते तापमान से फसलों की उत्पादकता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने के कारण खाद्य सुरक्षा पर भी खतरा पैदा होने की संभावना बन सकती है।

इस दिशा में जलवायु की विपरीत स्थितियों को झेलने में सक्षम फसलों और फसल किस्मों पर ज्यादा शोध और प्रचार-प्रसार की जरूरत है। इस दिशा में पुराने समय में प्रचलित श्री धान्य फसलों कोदा, रामदाना, स्वांक, बाजरा, आदि का प्रचार-प्रसार करके अच्छी पहल की जा रही है। किन्तु कार्बन उत्सर्जन करने वाली ऊर्जा उत्पादन तकनीकों और बड़े प्रोजेक्टों, खनन परियोजनाओं के कारण वनों के विनाश से कार्बन प्रदूषण क्षमता में आ रही कमी की चुनौतियां यथावत बनी हैं और बढ़ भी रही हैं।

पिछले 15 वर्ष में भारत में 3 लाख हेक्टेयर वन भूमि का उपयोग इस तरह की बृहदाकार योजनाओं के लिए बदला जा चुका है और यह क्रम सतत रूप से जारी है। इतनी चिंताजनक स्थिति के बावजूद वर्तमान आम चुनाव में यह मुद्दा जनता के बीच महत्वपूर्ण नहीं बन सका है। पर्यावरण से जुड़े दिवसों पर चेतना रैली निकालने, कुछ अच्छे नारे लगाने, भाषण प्रतियोगिता आयोजित करने, या ज्यादा से ज्यादा चुनाव मैनिफेस्टो में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़े वादे उछालने तक हम सीमित होते जा रहे हैं। राजनीतिक दल भी जन चेतना जगाने के इस मौके का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।

आम मतदाता निजी आर्थिक लाभ से ज्यादा सोचने को तैयार नहीं है। इस लिए राजनीतिक दल भी इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेते हैं। हिमालय के नाजुक परिस्थिति संतुलन के दृष्टिगत यह मामला हिमालय में और भी ज्यादा संगीन हो जाता है। किन्तु हम प्राकृतिक आपदा का बहाना गढ़कर आत्मसंतुष्टि कर लेते हैं या खुद को धोखा देते रहते हैं। जबकि हम सब समझते हैं कि जलवायु परिवर्तन मानव निर्मित गलतियों का नतीजा है। फिर भी हम न तो आत्मसंयम से अनावश्यक वस्तुओं, पदार्थों के उपयोग से बचना चाहते हैं न ही सरकारों के सामने अपनी पर्यावरण विषयक चिंताओं को रख कर दबाव बना कर नीतिगत बदलाव की मांग रखना चाहते हैं। सरकारें अपने आप विकास को सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर से नाप कर आगे बढ़ती हैं उन्हें पर्यावरण जैसे मुद्दे उतने लुभावने नहीं लगते। दुनिया भर में सरकारें जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर टालमटोल करते हुए, शर्माते हुए कुछ थोड़ा बहुत कार्य करती रहती हैं। कुछ गंभीरता जब आपदाएं आती हैं तब दिखाई देती है। धीरे-धीरे प्रकृति के ऊपर दोषारोपण करके समस्या भूल जाते हैं।

इस बार कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों ने ही इस मुद्दे पर कुछ लक्ष्य अपने चुनाव घोषणा पत्र में रखे हैं। किन्तु पिछले अनुभव के आधार पर ज्यादा आशा नहीं जगती है। शिमला में 2009 में जलवायु कॉन्क्लेव हुआ था, उसके साथ ही हिमालयी परिस्थिति तंत्र को बचाने के लिए कुछ लक्ष्य तय किए गए थे। किन्तु दोनों प्रमुख दलों को पर्याप्त समय मिलने के बावजूद विशेष प्रगति इस दिशा में नहीं हो सकी। वैश्विक स्तर और हिमालय के स्तर पर जलवायु परिवर्तन की चुनौती के कारण बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं के चलते अब समय आ गया है जब कि इस मुद्दे पर आम जनता और राजनीतिक दलों को चुनावी राजनीति के केंद्र में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे को लिया जाना चाहिए, ताकि सरकार गठन के बाद इस मुद्दे पर समुचित कार्य किया जा सके और सरकारों की जवाबदेही भी तय हो।

(लेखक, जल-जंगल-जमीन के मुद्दों के पैरोकार हैं।)

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