नई दिल्ली: आपने छोटी और बड़ी दिवाली के बारे में तो सुना होगा, लेकिन क्या आप बूढ़ी दिवाली के बारे में जानते हैं, सुनने में बेशक अटपटा लगे, लेकिन देश का एक हिस्सा ऐसा भी है जहां पर दिवाली से एक माह बाद दीपावली मनाई जाती है, इसे बूढ़ी दिवाली का नाम दिया गया है, ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्रीराम के अयोध्या पहुंचने की सूचना यहां एक माह देरी से पहुंची थीं, इसीलिए यहां पर दीपोत्सव का आयोजन एक माह बाद ही किया गया था.
यहां बाकी है दिवाली का जश्न
बूढ़ी दिवाली हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में मनाई जाती है, खास तौर से इनमें सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र, कुल्लू के निरमंड और शिमला के कुछ गांव बूढ़ी दिवाली ही मनाते हैं, यहां हर साल एक मेला लगता है, हालांकि कोरोना के बाद पिछली साल ही 14 दिसंबर को इसका आयोजन हुआ था और बहुत ही सीमित संख्या में लोगों को इसमें शिरकत करने दी गई थी.
बर्फ से लदी वादियों के बीच होता है आयोजन
हिमाचल प्रदेश के जिन इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है, वह इलाके बहुत ठंडे हैं, एक माह बाद जब वहां बूढ़ी दिवाली मनती है, तब तक सारी वादियां बर्फ से ढंक चुकी होती हैं, आज भी इन इलाकों का संपर्क बाकी दुनिया से कट जाता है. स्थानीय लोगों के मुताबिक जब तक बर्फ नहीं हटती या हटाई जाती तब तक बाहरी दुनिया से संपर्क पूरी तरह कटा रहता है.
ऐसे हुई परंपरा की शुरुआत
लोगों के मुताबिक बर्फबारी की वजह से कुछ समय तक यहां के लोग बाकी दुनिया से कटे रहते हैं, ऐसा कहा जाता है कि त्रेतायुग में भगवान श्रीराम जब अयोध्या लौटे थे उसकी खबर हिमाचल के कई इलाकों तक एक माह बाद पहुंची थी, खबर पहुंचते ही यहां के लोग उत्साह में झूमने लगे थे और मशालें जलाकर खुशी का इजहार किया था, तभी से वहां बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा शुरू हो गई.
खूब होता है नाच-गाना
बूढ़ी दिवाली, असल में दिवाली की अमावस्या से अगली अमावस्या को मनाई जाती है, इस त्योहार पर लोग नाटियां, स्वांग के साथ परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, रासा गाते हैं और हुड़क नृत्य करके जश्न मनाते हैं, कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्योहार पर बढ़ेचू नाच की भी परंपरा है. हिमाचल प्रदेश के सिरमौर क्षेत्र के तमाम गांव ऐसे हैं जहां एक सप्ताह से ज्यादा समय तक बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है.
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