इंदौर, सुनील नावरे। राजबाड़ा (Rajwada) को संवारने का काम तेजी से चल रहा है। अब इंजीनियरों की टीम ने स्थानीय पुरातत्व विभाग (archeology department) के अधिकारियों के साथ मिलकर विशेष घोल बनाकर सबसे ऊपरी मंजिल की छत भरना शुरू की। बिल्व पत्र के फल का हिस्सा और उड़द दाल से लेकर गुड़, ईंटों का चूरा और अन्य सामग्री मिलाकर इसे तैयार किया जाता है और फिर विशेषज्ञों की देखरेख में छत भरने का काम शुरू होता है। काफी हिस्से में यह कार्य शुरू हो चुका है। कई स्थानों पर नई मेहराब और कुछ अन्य कलाकृतियों को बनाने का काम भी बाहर से आई कारीगरों की टीम कर रही है।
राजबाड़ा को संवारने का काम साढ़े तीन साल पहले स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत शुरू किया गया था, लेकिन बाद में कुछ खतरनाक हिस्सों के कारण काम रोकना पड़ा, क्योंकि अहमदाबाद और वडोदरा के कई बड़े विशेषज्ञों को बुलवाकर इसके लिए मार्गदर्शन मांगा गया। कई हिस्से अत्यधिक जीर्णशीर्ण थे, जहां काम करने के दौरान नुकसान होने का अंदेशा बना हुआ था। आंतरिक हिस्सों में कई जगह कार्य पूर्ण कर लिए गए हैं, लेकिन ऊपरी हिस्सों में मेहराब को संवारने और दीवारों का काम चल रहा है। अधिकारी कहते हैं कि अभी यह कहना मुश्किल है कि राजबाड़ा का काम कितने दिनों में पूरा हो जाएगा, क्योंकि एक जगह काम करने के दौरान दूसरे अन्य काम भी सामने आ जा रहे हैं। वडोदरा, जयपुर और पंजाब के कई शहरों के कारपेंटर राजबाड़ा का पुराना स्वरूप लौटाने के लिए जुुटे हुए हैं।
राजबाड़ा में ही बनाए घोल के लिए टैंक
अधिकारियों के मुताबिक राजबाड़ा परिसर के खुले क्षेत्र में आठ से दस टैंक बनाए गए हैं, जिनमें विशेष घोल तैयार किया जाता है। इसके लिए प्लास्टिक की कई बड़ी कोठियां मंगवाई गई हैं, जिनमें टैंक के पहले उन सामग्री को रखा जाता है। अब तक करीब चार से पांच क्विंटल गुड़ का प्रयोग घोल बनाने के लिए हो चुका है। वहीं दूसरी ओर सर्वाधिक बिल्व पत्र के फल को तोडक़र उसके गूदा को अन्य सामग्रियों में मिलाया जाता है। उड़द दाल, चूना, गुड़-ईंटों का चूरा और अन्य सामग्रियां इसके प्रयोग में लाई जाती हैं।
ऐसे होता है प्रयोग
सारी सामग्री को वहां बनाए गए टैंकों में करीब 15 दिनों तक रहने दिया जाता है और उसकी इतनी बदबू आती है कि कारीगरों को गमछा अथवा मास्क लगाकर काम करना होता है। राजबाड़ा की सबसे ऊपरी मंजिल पर टावर और अन्य छत को भरने का काम चल रहा है, जिसमें परंपरागत तरीके से बनाए गए घोल से छत भरी जा रही है। वहां सीमेंट का उपयोग नहीं किया जा सकता और इसी के चलते स्थानीय पुरातत्व विभाग के अधिकारियों का मार्गदर्शन लेकर यही काम हो रहा है। 80 से ज्यादा कर्मचारियों की टीम घोल को छतों पर बिछाने का काम करती है और इस घोल से न केवल नई छत बन जाती है, बल्कि पुरानी छतों के हिस्से भी मजबूत होते हैं।
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