नई दिल्ली। दुनियाभर में वन्यजीवों की आबादी में भारी कमी आई है। स्तनधारी, पक्षियों, सरीसर्प, उभयचर और मछलियों की आबादी में 48 साल में औसतन 69 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। यह जानकारी हाल ही में विश्व वन्यजीव कोष (WWF) की ‘लिविंग प्लैनेट’ रिपोर्ट (LPR) 2022 में दी गई है। रिपोर्ट कुल 5,230 नस्लों की लगभग 32,000 आबादी पर केंद्रित है। इसमें दिए गए ‘लिविंग प्लैनेट सूचकांक’ (LPI) के मुताबिक, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के भीतर वन्यजीवों की आबादी चौंका देने वाली दर से घट रही है। रिपोर्ट में बताया गया कि ताजे पानी में रहने वाले जानवरों की आबादी में सबसे ज्यादा 83 फीसदी गिरावट हुई है। इसी तरह शार्क की आबादी में औसतन 71 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। इसकी वजह 1970 के बाद बढ़ी फिशिंग है। जिसमें 18 गुना का इजाफा हुआ।
आपको बता दें कि यह रिपोर्ट हर दो साल पर जारी की जाती है। इस रिपोर्ट को दो संस्थाएं वर्ल्ड वाइल्ड फंड फॉर नेचर (WWF) और जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन मिलकर प्रकाशित करती हैं। इस रिपोर्ट के जरिए यह बताने की कोशिश होती है कि दुनियभर में अलग-अलग जीव-जंतुओं की आबादी कैसे बढ़-घट रही है। इसका हमारे पारिस्थितिकी तंत्र पर क्या असर पड़ सकता है इसका भी संकेत रिपोर्ट में दिया जाता है।
दुनियाभर के 89 लेखकों द्वारा तैयार की गई यह रिपोर्ट बुधवार को जारी की गई है। रिपोर्ट के मुताबिक 1970 के मुकाबले 2018 में जीव-जंतुओं (स्तनधारी, पक्षियों, सरीसर्प, उभयचर और मछलियों) की आबादी में औसतन 69 प्रतिशत की गिरावट आई है। यानी, महज 48 साल के भीतर वन्यजीवों की आबादी में दो तिहाई से ज्यादा की कमी हुई है। साल के अंत में दुनिया के कई देश मॉन्ट्रियल में जैव विविधता की रक्षा के लिए एक नई वैश्विक योजना तैयार करने के लिए मिलने वाले हैं। उससे पहले आई यह रिपोर्ट चौंकाने वाली है।
भारत के दक्षिण में स्थित वर्षा वनों में सबसे दुष्प्रभाव दिखा है। हिमालय और इससे जुड़े जंगलों पर भी इसका बुरा असर नजर आ रहा है। इन क्षेत्रों को रिपोर्ट ने एक नक्शे में लाल व पराबैंगनी रंगों में दर्शाया। 2021 में जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा नुकसान उठाने वाले देशों में भारत सातवें स्थान पर रहा।
अगर लेटिन अमेरिका और कैरेबियन की बात करें तो इस इलाके में सबसे ज्यादा गिरावट आई है। 1970 के मुकाबले वन्यजीवों की आबादी में औसतन 94 फीसदी की कमी आई है। मीठे पानी की मछली, सरीसृप और उभयचरों में पैटर्न सबसे अधिक स्पष्ट था। अफ्रीका में 66 फीसदी, एशिया और पैसिफिक इलाके में 55 फीसदी, उत्तरी अमेरिका में 20 फीसदी, यूरोप और मध्य एशिया में 18 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है।
सबसे पहली बात कि इस रिपोर्ट में सभी तरह के जीव-जंतु शामिल नहीं हैं। ऐसे में ये कहना सही नहीं होगा कि हर तरह के वन्यजीवों की आबादी घट गई है। रिपोर्ट में बिना रीढ़ वाले जीवों यानी इन्वर्टीब्रेट्स को शामिल नहीं किया गया है। इसमें जेलीफिश, कोरल, घोंघे, ऑक्टोपस, केकड़े, झींगा मकड़ी, तितलियां और बीटल जैसे कई जीव आते हैं। जबकि, ये जीव पशु प्रजातियों में बहुमत में हैं।
उदाहरण के लिए तीन जैव प्रजातियों चिड़िया, भालू और शार्क को लेते हैं। अगर 1970 में चिड़िया की आबादी 50 थी और वो 2018 में घटकर 10 रह जाती हैं तो उसकी आबादी में गिरावट 80 फीसदी की होती है। वहीं, भालू की आबादी अगर 40 से घटकर 32 हो जाती है तो उसकी आबादी में 20 फीसदी की गिरावट हुई। इसी तरह शार्क की आबादी 20 से घटकर 10 रह जाती है तो उसकी आबादी में 50 फीसदी की गिरावट हुई। ऐसे में इन जीवों की औसत आबादी में औसतन 50 फीसदी की गिरावट हुई। जबकि, कुल जीवों के हिसाब से देखें तो आबादी में आई ये गिरावट 47 फीसदी की ही है। WWF ने इसे इस तरह से डिजाइन किया है जिससे आबादी में आ रहे बदलावों को समझा जा सके न कि कुल आबादी में आई कमी को बताया जाए।
रिपोर्ट के मुताबिक अध्ययन की गई कुल जीवों में आधी से अधिक की आबादी या तो स्थिर है या फिर बढ़ रही है। केवल तीन फीसदी प्रजातियां ऐसी हैं जिनकी आबादी तेजी से घट रही है। अगर इन प्रजातियों को हटा दिया जाए तो आबादी में आई औसत कमी में काफी सुधार दिखाई देता है।
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