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    विश्व दिव्यांग दिवस: देश को समझाना होगा प्रधानमंत्री का दर्द

  • December 03, 2022

    – रमेश सर्राफ धमोरा

    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विकलांगों को दिव्यांग कहने की अपील के पीछे तर्क था कि शरीर के किसी अंग से लाचार व्यक्तियों में ईश्वर प्रदत्त कुछ खास विशेषताएं होती हैं। विकलांग शब्द उन्हें हतोत्साहित करता है। अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री के आह्वान पर लोगों ने विकलांगों को दिव्यांग कहना शुरू कर दिया है। अनेक दिव्यांगों ने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाना शुरू कर दिया है। मगर दुखद यह है कि आज भी तमाम लोग दिव्यांगों को दयनीय दृष्टि से देखते हैं।

    संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1992 में हर वर्ष 03 दिसंबर को अंतरराष्ट्रीय विकलांग दिवस मनाने घोषणा की गई थी। इसका उद्देश्य समाज के सभी क्षेत्रों में दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों को बढ़ावा देना और राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में दिव्यांगों के बारे में जागरुकता बढ़ाना था। मगर अधिकतर लोगों को इस बात का भी पता नहीं होता है कि उनके घर के आसपास कितने दिव्यांग रहतें हैं। उन्हें समाज में बराबरी का अधिकार मिल रहा है कि नहीं। किसी को इस बात की कोई फिक्र नहीं हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारत में दिव्यांग आज भी अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए दूसरों पर आश्रित है।


    दुनिया में आठ प्रतिशत लोग दिव्यांगता का शिकार हैं। दिव्यांगता अभिशाप नहीं है। शारीरिक अभावों को यदि प्रेरणा बना लिया जाए तो दिव्यांगता व्यक्तित्व विकास में सहायक हो जाती है। यदि सोच सही रखी जाए तो अभाव भी विशेषता बन जाते हैं। दिव्यांगता से ग्रस्त लोगों का मजाक बनाना, उन्हें कमजोर समझना और उनको दूसरों पर आश्रित समझना एक भूल और सामाजिक रूप से एक गैर जिम्मेदाराना व्यवहार है। हम इस बात को समझें कि उनका जीवन भी हमारी तरह है और वे अपनी कमजोरियों के साथ उठ सकते है।

    दुनिया में बहुत से ऐसे दिव्यांग हुए हैं जिन्होंने अपने साहस, संकल्प और उत्साह से विश्व इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अपना नाम लिखवाया है। शक्तिशाली शासक तैमूर लंग हाथ और पैर से शक्तिहीन था। मेवाड़ के राणा सांगा तो बचपन में ही एक आंख गवाने तथा युद्ध में एक हाथ एक पैर तथा 80 घावों के बावजूद कई युद्धों में विजेता रहे थे। सिख राज्य की स्थापना करने वाले महाराजा रणजीत सिंह की एक आंख बचपन से ही खराब थी। सुप्रसिद्ध नृत्यांगना सुधा चंद्रन की दायीं टांग नहीं थी। फिल्म गीतकार कृष्ण चंद्र डे तथा संगीतकार रविंद्र जैन देख नहीं सकते थे। पूर्व क्रिकेटर अंजन भट्टाचार्य मूक-बधिर थे। वर्ल्ड पैरा चैम्पियनशिप खेलों में झुंझुनू जिले के दिव्यांग खिलाड़ी संदीप कुमार व जयपुर के सुन्दर गुर्जर ने भाला फेंक प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीत कर भारत का मान बढ़ाया है।

    विश्व में अनेकों ऐसे उदाहरण मिलेंगे जो बताते है कि सही राह मिल जाए तो अभाव एक विशेषता बनकर सबको चमत्कृत कर देती है। यदि दिव्यांग व्यक्तियों को समान अवसर तथा प्रभावी पुनर्वास की सुविधा मिले तो वे बेहतर गुणवत्तापूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं। देश में दिव्यांगों की मदद के लिए बहुत सी सरकारी योजनाएं संचालित हैं। अफसोस इतने वर्षों बाद भी देश में आज तक आधे दिव्यांगों को ही दिव्यांगता प्रमाण पत्र मुहैया कराया जा सका है। ऐसे में सभी दिव्यांगों को इनका लाभ मिल पाना मुश्किल है। वैसे भी दिव्यांगता प्रमाण पत्र हासिल करना चुनौती से कम नहीं है। सरकारी कार्यालयों और अस्पतालों के कई दिनों तक चक्कर लगाने के बाद भी लोगों को मायूस होना पड़ता है। हालांकि सरकारी दावा है कि इस प्रक्रिया को सरल किया गया है, लेकिन हकीकत इससे काफी दूर है।

    केंद्र ने दिव्यांग युवाओं को सरकारी नौकरी में सीधी भर्ती की प्रक्रिया को आसान किया है। दृष्टि बाधित, बधिर और चलने-फिरने में दिव्यांगता या सेरेब्रल पल्सी के शिकार लोगों को उम्र में 10 साल की छूट देकर एक सकारात्मक कदम उठाया है। अब दिव्यांग लोगों के प्रति सोच में बदलाव लाने का समय आ गया है। दिव्यांगों को समाज की मुख्यधारा में तभी शामिल किया जा सकता है जब समाज इन्हें अपना हिस्सा समझे। इसके लिए व्यापक जागरुकता अभियान की जरूरत है।

    (लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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