-सिद्धार्थ शंकर
भारतीय सेना और नौसेना में महिला अफसरों को स्थाई कमीशन देने की मांग को लेकर दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि सेना एक महीने के अंदर महिला अधिकारियों के लिए स्थाई कमीशन देने पर विचार करे और उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए इन्हें स्थाई कमीशन दे। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने परमानेंट कमीशन के लिए महिला अफसरों के लिए बनाए गए मेडिकल फिटनेस मापदंडों को मनमाना और तर्कहीन बताया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हमारे समाज का ताना-बाना पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए ही बनाया गया है। अगर समय रहते इसे बदला नहीं गया, तो महिलाओं को पुरुषों के बराबर मौके नहीं मिल पाएंगे। 17 साल की कानूनी लड़ाई के बाद पिछले साल फरवरी में थलसेना में महिलाओं को बराबरी का हक मिलने का रास्ता साफ हुआ था। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि उन सभी महिला अफसरों को तीन महीने के अंदर आर्मी में स्थाई कमीशन दिया जाए, जो इस विकल्प को चुनना चाहती हैं।
स्थाई कमीशन पर बात करें तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले आर्मी में 14 साल तक शॉर्ट सर्विस कमीशन में सेवा दे चुके पुरुषों को ही स्थाई कमीशन का विकल्प मिल रहा था, लेकिन महिलाओं को यह हक नहीं था। दूसरी ओर वायुसेना और नौसेना में महिला अफसरों को स्थाई कमीशन पहले से मिल रहा है। शॉर्ट सर्विस कमीशन में महिलाएं 14 साल तक सर्विस के बाद रिटायर हो जाती हैं। अब वे स्थाई कमीशन के लिए अप्लाई कर सकेंगी। सेलेक्ट होने वाली महिला अफसर आगे भी सर्विस जारी रख सकेंगी और रैंक के हिसाब से रिटायर होंगी। आर्मी में महिलाओं को अब बराबरी का हक मिलेगा।
महिलाओं को सेना की सभी 10 स्ट्रीम- आर्मी एयर डिफेंस, सिग्नल, इंजीनियर, आर्मी एविएशन, इलेक्ट्रॉनिक्स एंड मैकेनिकल इंजीनियर, आर्मी सर्विस कॉर्प, इंटेलीजेंस, जज, एडवोकेट जनरल और एजुकेशनल कॉर्प में परमानेंट कमीशन मिल पाएगा। सेना में महिलाओं की भर्ती को लेकर जिस तरह के अवरोध थे, वे भी महज सामाजिक पूर्वाग्रहों पर आधारित थे और उसे हटाना एक सभ्य और लोकतांत्रिक समाज की जिम्मेदारी थी। लेकिन जब उन अवरोधों पर विचार करके उन्हें खत्म किया गया, तो लैंगिक स्तर पर भेदभाव वाली परंपरा को कायम रखने का कोई मतलब नहीं था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने अगर ऐसे आग्रहों को मानने से इनकार किया और बराबरी के हक में फैसला दिया तो इसे व्यवस्था में बदलाव को जगह देने की प्रक्रिया कहा जा सकता है।
विडंबना यह है कि एक लोकतांत्रिक और विकासमान समाज में जहां सरकारों और समूचे सत्ता-संस्थानों को अपनी ओर से सामाजिक गैर-बराबरी के पैमानों को खत्म करके समानता आधारित समाज की जमीन मजबूत करने की पहलकदमी करनी चाहिए, वहीं कई बार इसके खिलाफ दलीलें पेश करके जड़ता और यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश की जाती है। पहले सेना में और फिर नौसेना में महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन देने के मसले पर सरकार ने जैसा संकीर्ण रुख अपनाया, वह अफसोसजनक है। यों भी महिलाओं ने मौका मिलने पर अमूमन हर मोर्चे पर अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं के साथ यह साबित किया है कि वे किसी भी मामले में कमतर नहीं हैं, बल्कि बेहतर ही हैं।
ऐसे में खुद सरकार की ओर से महिलाओं को महज स्थायी कमीशन से वंचित रखने के लिए उनकी शारीरिक सीमाओं का हवाला देना विचित्र दलील थी। इसलिए स्वाभाविक ही शीर्ष अदालत ने केंद्र की दलील को सीधे तौर पर लैंगिक रूढिय़ों का मामला बताते हुए कहा था कि सामाजिक और मानसिक कारण बता कर महिला अधिकारियों को अवसर से वंचित रखना बेहद भेदभावपूर्ण रवैया है और यह बर्दाश्त के काबिल नहीं है।
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