संसार में तीन अनादि सत्तायें हैं। यह सत्तायें नित्य अर्थात् सदा रहने वाली हैं। इनका अभाव कभी नहीं होता। जो पदार्थ अनादि होता है वह अनन्त अर्थात् नाशरहित व अमर भी होता है। इस कारण से इन तीनों पदार्थों का कभी नाश व अभाव नहीं होगा। हमारा आधुनिक विज्ञान वेदों से कोसों दूर है। वह वेदों के सत्य तथ्यों पर ध्यान नहीं देता और सृष्टि रचना व संचालन विषयक अनेक प्रकार की कल्पायें करता है। वेद सत्य व सनातन ग्रन्थ हैं जिनकी उत्पत्ति वा आविर्भाव परमात्मा की प्रेरणा से ऋषियों की आत्माओं में सृष्टि के आरम्भ में हुआ था। यदि वेद न होते तो अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्य ज्ञानवान न होते और शेष सृष्टि में भी मनुष्यों को किसी प्रकार का ज्ञान न होता। परमात्मा के मुख्य कर्तव्यों में सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व संहार सहित वेदों का ज्ञान देना तथा जीवों के उनके अनेक पूर्वजन्मों के कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देना होता है। यह तीनों काम मनुष्य सम्पादित नहीं कर सकते। मनुष्य के पास जो शरीर, इन्द्रियां व अन्तःकरण आदि अवयव हैं, वह भी परमात्मा ने प्रकृति के द्वारा बनाकर प्रदान कर रखे हैं। हर क्रिया व कार्य का कारण व प्रेरणा हुआ करती है जो कि चेतन सत्ता द्वारा ही होती है। यह सृष्टि भी परमात्मा द्वारा प्रकृति में ज्ञानमय प्रेरणा व क्रिया के फलस्वरूप ही अस्तित्व में आई है। ज्ञानरूप सत्ता ही सभी बुद्धियुक्त कार्यों वा रचनाओं का निमित्त कारण हुआ करती है। इस प्रकार ज्ञानयुक्त नियमों से बने यह विशाल संसार और मनुष्य आदि प्राणियों के शरीर भी एक परमात्मा द्वारा रचे गये कार्य हंै। वेद, दर्शन तथा उपनिषद सहित सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर ईश्वर, जीव व प्रकृति विषयक सभी भ्रान्तियां दूर हो जाती हैं। मनुष्य निभ्र्रान्त हो जाता है। योग साधना व वैदिक साहित्य के स्वाध्याय से मनुष्य सत्य को प्राप्त होता है और विवेक उत्पन्न होकर वह संसार के सभी रहस्यों को भी जानने में सफल होता है जो विज्ञान से जानने भी सम्भव नहीं होते।
विज्ञान ईश्वर को नहीं मानता परन्तु वेद ईश्वर के सत्यस्वरूप का निरुपण करते हैं। वेद ईश्वर को अनादि, नित्य व नाश रहित सत्ता मानते हैं। वेदों का अध्ययन कर ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप का प्रकाश कर आर्यसमाज के दूसरे नियम में बताया है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। जीवात्मा भी चेतन तत्व है जो अनादि, नित्य, अविनाशी, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, जन्म व मरण धर्मा, कर्मों का कर्ता व भोक्ता, मुनष्य जन्म में धर्माधर्म के कार्य करने में स्वतन्त्र परन्तु फल भोगने में ईश्वर के अधीन, वेदाध्ययन कर अविद्या दूर करने में समर्थ, योगाभ्यास कर समाधि प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ होने सहित ईश्वरोपासना, संगतिकरण तथा दान आदि कर जीवन को उच्च अवस्था प्राप्त कराने में समर्थ सत्ता है। जीवात्मा का जन्म पूर्वजन्मों के कर्म भोगने, मनुष्य योनि में नये कर्म करने तथा अपवर्ग वा मोक्ष के लिये प्रयत्न करने के लिये होता है। इसका विवेचन हमें दर्शन ग्रन्थों में पढ़ने को मिलता है जो पूर्णतया तर्क व युक्ति सहित ज्ञान है एवं विज्ञान सम्मत भी हंै। ईश्वर व जीव चेतन सत्तायें हैं जबकि तीसरी सत्ता प्रकृति है जो कि जड़ है। यह प्रकृति तीन गुणों सत्व, रज व तम से युक्त होती है। इसी से परमाणु, अणुओं सहित महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रायें, मन, बुद्धि, चित्त सहित पांच महाभूत बनने हैं। इन सबसे मिलकर ही यह संसार बना है जिसे सर्वज्ञ परमात्मा ने अपने स्वशक्ति से पूर्वकल्पों के समान बनाया है।
श्यकता की पूर्ति के लिये नहीं है। ईश्वर तो पूर्ण सत्ता है जिसमें किसी पदार्थ, सुख व आनन्द की प्राप्ति की न्यूनता व अभाव नहीं है। ईश्वर पूर्णानन्द से युक्त स्वस्वरूप में स्थित रहने वाली सत्ता है। परमात्मा हमारी इस सृष्टि को अपनी अनादि प्रजा जीव जो संख्या में अनन्त हैं, उनके भोग व अपवर्ग के लिये बनाता है। अनादि काल से अपने स्वभाव से वह सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय करता आ रहा है। यह क्रम अनन्त बार किया जा चुका है और भविष्य में भी सदा चलता रहेगा, कभी रुकेगा नहीं। अपवर्ग वा मोक्ष पर्यन्त जीवात्माओं का अपने कर्मानुसार जन्म-मरण होता रहेगा। मनुष्य उभय योनि तथा अन्य योनियां भोग योनियां होती है। उभय योनि होने के कारण ही मनुष्य योनि को मोक्ष का द्वार कहते हैं। इस रहस्य को वैदिक धर्मी जानते हैं और ईश्वर की उपासना व यज्ञ आदि परोपकारों के कामों को करते हुए मोक्ष के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। इस वैदिक धर्म एवं संस्कृति से उत्तम व उपादेय अन्य कोई विचार, मान्यता, सिद्धान्त व मत नहीं है। इसी कारण से सृष्टि के आरम्भ से लगभग 1.96 अरब वर्षों तक, अर्थात् महाभारत युद्ध तक, यही वैदिक धर्म संसार के सभी लोगों का एकमात्र धर्म, मत, संस्कृति व परम्पराओं के ग्रन्थ रहे हैं। आज भी वेद प्रासंगिक हैं और सब मतों व विचारों से आधुनिक व नवीन है। इसी की शरण में आकर जीव वा मनुष्यों को शान्ति प्राप्त होती है। एक विदेशी दार्शनिक का कथन है कि उपनिषदों का अध्ययन कर उसे जीवन में शान्ति व सुखों की प्राप्ति हुई है और उसे विश्वास है कि उसके मरने के बाद भी उसकी आत्मा को शान्ति प्राप्त होगी। ऐसे महत्वपूर्ण वैदिक धर्म को सभी मनुष्यों का अध्ययन करना चाहिये और इसके लिये प्रथम ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये जो वेद व वैदिक धर्म विषयक सभी बातों को तर्क व युक्तिपूर्वक प्रस्तुत करता तथा वेदों के सत्यस्वरूप व शिक्षाओं से परिचित कराता है। सत्यार्थप्रकाश सहित वेदांग, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति तथा वेदों का अध्ययन करने पर ही मनुष्य जीवन का कल्याण हो सकता है अन्यथा स्वाध्याय से जिस ज्ञान व लक्ष्यों की प्राप्ति की प्रेरणा होती है, उसके न होने से मनुष्य जीवन सफल होने की सम्भावना नहीं होती।
ईश्वर ने सृष्टि को इस लिये बनाया है कि वह जीवों को उनके पूर्वकल्प व जन्मों में किये गये पाप व पुण्य कर्मों का, जिन्हें धर्म व अधर्म भी कहते हैं, फल प्रदान कर सके। परमात्मा को जीवों को मोक्ष के आनन्द की प्राप्ति का अवसर भी देना था। यदि जीव न होते तो यह सृष्टि न बनती। यदि प्रकृति भी न होती तो भी इस सृष्टि का निर्माण न हो सकता। किसी भी उपयोगी भौतिक पदार्थ का निर्माण भौतिक जड़ उपादान कारण से ही होता जिसे चेतन ज्ञानवान सत्ता परमात्मा वा मनुष्य किया करते हैं। मनुष्य केवल पौरुषेय रचनायें ही कर सकते हैं जबकि परमात्मा अपौरुषेय रचनायें व कार्य, जिसे पुरुष वा मनुष्य नहीं कर सकते, करता है। अतः किसी भी रचना में रचना करने वाली सत्ता, जिसके लिये रचना की जाती है वह तथा जिससे रचना हो सकती है वह पदार्थ, इन तीन पदार्थों वा सत्ताओं का होना आवश्यक होता। यह तीनों पदार्थ इस सृष्टि में अनादिकाल से विद्यमान है। यह हैं ईश्वर, जीव तथा प्रकृति। ईश्वर ने इस सृष्टि को प्रकृति नामक उपादान कारण से जीवों को भोग व अपवर्ग प्रदान करने के लिये रचा है। इस प्रकार से यह तीनों पदार्थ सृष्टि की रचना व संचालन में आवश्यक व अपरिहार्य हैं। हमें इस रहस्य को जानना है तथा इसे जानकर अपवर्ग की प्राप्ति करने के लिये ईश्वर की उपासना व यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्मों को करना है। इसी लिये परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया है व इसे आदर्श रूप में चला रहा है। ओ३म् शम्।
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