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    शीतकालीन सत्र पर बढ़ती राजनीतिक तपिश

  • December 18, 2020

    – सियाराम पांडेय ‘शांत’

    कोरोना महामारी से पूरी दुनिया जूझ रही है। विकसित देशों में तो कोरोना ने कहर ढा रखा है। सघन आबादी वाला देश होने के बाद भी भारत में कोरोना संक्रमण की दर दुनिया के विकसित देशों के मुकाबले अगर कम है तो इसके पीछे सावधानी ही है। केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या 99.32 लाख से ज्यादा है। तसल्ली की बात है कि उनमें 94.56 लाख से अधिक लोग संक्रमणमुक्त भी हुए लेकिन 3.32 लाख लोग अभी भी कोरोना संक्रमित हैं। जिस तरह रोज कोरोना संक्रमितों की नई खेप आ रही है, उसे हल्के में हरगिज नहीं लिया जा सकता। देश में अभीतक लगभग कोरोना से 1 लाख 44 हजार लोगों की मौत हुई है। कोरोना की वैक्सीन अभी आई नहीं है।

    सरकार के स्तर पर कोरोना के खतरों को लेकर निरंतर आगाह किया जा रहा है। इसके बाद भी कुछ लोग कोरोना को कमतर आंक रहे हैं। इसके विपरीत केंद्र सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र अभी नहीं बुलाने का निर्णय लिया है तो उसके पीछे उसकी सोच सांसदों को तो कोरोना से बचाने की है ही, उनके संपर्क में आनेवालों की सुरक्षा की भी है। विपक्ष इसे लोकतंत्र की हत्या के रूप में देख रहा है। इसे जनता से जुड़े सवालों से बचने की सरकार की कोशिश मान रहा है। कांग्रेस का तर्क है कि जब देश में स्कूल-कॉलेज खुल सकते हैं, रेस्टोरेंट एवं बार खुल सकते हैं, सभी आर्थिक गतिविधियां शुरू की जा सकती हैं, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की रैलियां हो सकती हैं तो संसद सत्र क्यों नहीं बुलाया जा सकता?

    सभी स्कूल-कॉलेज आज भी नहीं खुल पाए हैं। आर्थिक गतिविधियां सीमित दायरे में चल रही हैं। देश में जो कुछ भी हो रहा है, कोविड नियमावली के तहत हो रहा है लेकिन शीतकालीन सत्र में सारे सांसद पहुंचेंगे। वे पास-पास बैठेंगे भी, उन सांसदों में कुछ बुजुर्ग भी हैं। ऐसे में अगर सरकार ने शीतकालीन सत्र की बजाय सीधे बजट सत्र बुलाने का निर्णय लिया है तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है। संसद में वैसे भी सत्र का अधिकांश समय हंगामा और विपक्ष के वॉकआउट में गुजर जाता है, काम तो अंतिम दो-चार दिन ही होता है। सरकार अगर चाहती है कि बजट सत्र में ही महत्वपूर्ण निर्णयों व प्रस्तावों पर चर्चा हो जाएगी तो यह उसका दृष्टिकोण है। इससे तो देश के धन की बचत ही होगी। इससे लोकतंत्र कैसे कमजोर होगा?

    शीतकालीन सत्र के आयोजन को लेकर बढ़ती राजनीतिक तपिश ठीक नहीं। विपक्ष के दावों पर यकीन करें तो देश में लोकतंत्र की रोज हत्या होती है और रोज जीवित भी हो जाता है। लोकतंत्र कब कमजोर हो जाएगा और कब मजबूत, कहना कठिन है। संवाद से लोकतंत्र को मजबूती मिलती है। विचार-विमर्श से समाधान की राह आसान होती है। सोचने-समझने की ताकत मिलती है, यहां तक तो ठीक है लेकिन विमर्श में अगर पूर्वाग्रह का समावेश हो जाए तो विमर्श कितना लोकहितकारी होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है।

    कांग्रेस को लगता है कि शीतकालीन सत्र चलता तो सरकार को विपक्ष के कड़े सवालों का सामना करना पड़ता। इसलिए महामारी का बहाना लेकर उसने संसद का शीतकालीन सत्र आयोजित नहीं करने का निर्णय लिया है। किसानों की अनदेखी का भी कांग्रेस आरोप लगा रही है। ऐसा नहीं कि इस समय संसद सत्र नहीं चल रहा है तो विपक्ष सवाल दागने के लिए उचित वक्त का इंतजार कर रहा है। विपक्ष का तर्क है कि मानसून सत्र भी छोटा हो गया था। उसे संसद सत्र पर होने वाले खर्च का भी अनुमान लगाना चाहिए। इस बात पर भी विचार करना चाहिए जब शोर-शराबे और हंगामे से संसद की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ती है तब देश को कितना नुकसान होता है? उस स्थिति में इस देश का लोकतंत्र कमजोर होता है या मजबूत?

    वर्ष 2011 में जेपीसी के गठन पर विपक्ष और सरकार के बीच गतिरोध के चलते शीतकालीन सत्र पूरी तरह ठप हो गया था। वर्ष 2012 में एफडीआई में सुधार के मुद्दे पर गतिरोध के चलते संसद का शीतकालीन सत्र न केवल बार-बार बाधित हुआ बल्कि बीच में ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करना पड़ा था। गौरतलब है कि उस समय कांग्रेस की ही देश में सरकार थी। क्या संसद सत्र को बीच में स्थगित कर देने से लोकतंत्र कमजोर नहीं होता। नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में संसद सत्र के दौरान व्यवधान तो खूब हुए लेकिन इस सच को भी नकारा नहीं जा सकता कि मोदी के शासनकाल में संसद के दोनों सदन अपेक्षाकृत ज्यादा चले और काम भी ज्यादा हुए। वर्ष 2015 में राज्यसभा में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए ने विपक्ष की रुकावटों की वजह से अपने 55 घंटे खोए। उसे इस सत्र में काम करने के लिए 112 घंटे मिले थे। लोकसभा में भाजपा को बहुमत हासिल है और वहां भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सांसदों ने 115 घंटे काम किए। कामकाज के लिहाज से लोकसभा में 102 प्रतिशत तो राज्यसभा में 46 प्रतिशत ही काम हुआ था। वहीं लोकसभा में 87 प्रतिशत प्रश्नकाल हुआ था और राज्यसभा में महज 14 फीसदी।

    संसद के हर एक सदन को चलाने के लिए 29 हजार रुपए प्रति मिनट का खर्चा बैठता है। राज्यसभा में घंटों का नुकसान होने की वजह से राजकोष को 10 करोड़ का नुकसान पहुंचा। वर्ष 2018 में शीतकालीन सत्र में तीन तलाक बिल अधर में लटक गया था। विपक्ष के विरोध के चलते संसद का कितना समय बर्बाद होता है, यह किसी से छिपा नहीं है।

    शीतकालीन सत्र का आयोजन होना चाहिए था। इसमें देश को आगे बढ़ाने संबंधी प्रस्तावों पर चर्चा होती है। नए कानून बनते हैं और पुराने कानूनों में सुधार होते हैं। यह एक पक्ष है लेकिन जनप्रतिनिधियों को संक्रमण से बचाना भी सरकार की जिम्मेदारी है। इसमें दोष तलाशने की नहीं, इसे सार्थक तरीके से लेने की जरूरत है।

    (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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