– रमेश सर्राफ धमोरा
राजस्थान में पिछले तीस वर्ष से हर पांच साल बाद सत्ता बदलने का रिवाज चला आ रहा है। अगले महीने होने वाले राजस्थान विधानसभा के चुनाव में जहां भारतीय जनता पार्टी हर बार राज बदलने के रिवाज को बनाए रखने का प्रयास कर रही है। वही सत्तारूढ़ कांग्रेस फिर से सरकार बनाकर रिवाज बदलना चाहती है। चुनाव में दोनों ही पार्टियों पूरे दमखम के साथ उतरने जा रही है। तीसरे मोर्चे के रूप में बसपा, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी, आम आदमी पार्टी, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिममीन, भारतीय आदिवासी पाटी, वामपंथी पार्टियां जैसे छोटे राजनीतिक दल भी प्रदेश की राजनीति में तीसरी शक्ति बनकर सत्ता की चाबी अपने हाथ में लेना चाहते हैं।
राजस्थान में पिछले 30 वर्ष से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कांग्रेस की मुख्य धुरी बने हुए हैं। तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके अशोक गहलोत के इर्द-गिर्द ही कांग्रेस की राजनीति घूमती है। कांग्रेस में जैसा गहलोत चाहते हैं वैसा ही होता है। 1998 में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहते अशोक गहलोत पहली बार मुख्यमंत्री बने थे। तब राजस्थान में कांग्रेस की राजनीति में कई दिग्गज नेता सक्रिय थे, जिनमें मुख्य परसराम मदेरणा, शीशराम ओला, नवल किशोर शर्मा, नटवर सिंह, शिवचरण माथुर, जगन्नाथ पहाड़िया, हीरालाल देवपुरा, बलराम जाखड़, चौधरी नारायण सिंह, रामनारायण चौधरी, कमला बेनीवाल, खेत सिंह राठौड़, प्रद्युम्न सिंह, गुलाब सिंह शक्तावत जैसे दिग्गज नेता मौजूद थे। उस वक्त गहलोत ने इन सभी को मात देकर मुख्यमंत्री का पद हासिल किया था।
बाद में गहलोत ने एक-एक कर सभी बड़े नेताओं को सक्रिय राजनीति से किनारे लगा दिया। आज स्थिति यह है कि कांग्रेस की राजनीति में मुख्यमंत्री गहलोत के प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरे सचिन पायलट भी साइड लाइन हो चुके हैं। गांधी परिवार के वफादार भंवर जितेंद्र सिंह का व्यक्तित्व इतना बड़ा नहीं है कि उनके नाम पर मुख्यमंत्री पद के लिए आम सहमति बन सके। 2008 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहते सीपी जोशी मुख्यमंत्री पद के सबसे मजबूत दावेदार बने थे। मगर उनकी एक वोट से हुई हार ने उनका राजनीतिक करियर ही चौपट कर दिया था। गत वर्ष कांग्रेस आलाकमान ने गहलोत के स्थान पर सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने का प्रयास किया था। इसके लिए मल्लिकार्जुन खड़गे व अजय माकन पर्यवेक्षक बन कर जयपुर आए थे। मगर विधायकों द्वारा विधायक दल की बैठक का बहिष्कार कर देने से सचिन पायलट दूसरी बार मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए थे।
मुख्यमंत्री गहलोत पिछले पांच साल से लगातार अपनी सभाओं में कहते आ रहे हैं कि वह चौथी बार भी मुख्यमंत्री बनेंगे। मगर लगता है कि अब कांग्रेस में भी बड़ा उलट-पुलट होने वाला है। विधानसभा चुनाव के बाद यदि कांग्रेस फिर से सरकार बनाती है तो गहलोत के स्थान पर किसी नए नेता को ही कमान मिलने की अधिक संभावना नजर आने लगी है। पिछले पांच वर्ष में जिस तरह से गहलोत ने सरकार चलाई है। उससे कांग्रेस नेता राहुल गांधी संतुष्ट नहीं बताए जा रहे हैं।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा हायर की गई एक निजी प्रचार एजेंसी को लेकर भी पार्टी में बड़ा विवाद हुआ था। डिजाइन बाक्स को गहलोत ने अपनी छवि चमकाने के लिए हायर किया था। इस एजेंसी की कार्यप्रणाली को लेकर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा की एजेंसी के फाउंडर से तकरार हो चुकी है। एजेंसी की नियुक्ति कांग्रेस आलाकमान को पसंद नहीं आ रही है। कांग्रेस आलाकमान कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस के रणनीतिकार रहे सुनील कानुगोलू को राजस्थान में कांग्रेस की चुनावी रणनीति बनाने के लिए नियुक्त करना चाहता था। मगर मुख्यमंत्री गहलोत के विरोध के चलते उन्हें मध्य प्रदेश भेजना पड़ा था।
कांग्रेस आलाकमान ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को इस बार कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य भी नहीं बनाया है। जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी सचिन पायलट व कैबिनेट मंत्री महेंद्रजीत मालवीय को कार्य समिति में लिया गया है। आदिवासी नेता महेंद्रजीत मालवीय को कार्य समिति में लाकर राहुल गांधी प्रादेशिक नेतृत्व में बदलाव के संकेत दे रहें हैं। गहलोत के स्थान पर राजस्थान में सचिन पायलट, भंवर जितेंद्र सिंह, महेंद्रजीत मालवीय, सीपी जोशी जैसे नेताओं को बड़ी भूमिका मिल सकती है।
राजस्थान में भाजपा भी पूरे बदलाव के दौर से ही गुजर रही है। 2002 से लेकर अब तक पार्टी की एक छत्र नेता रही वसुंधरा राजे के स्थान पर पार्टी में कई नेताओं को आगे बढ़ाया जा रहा है। भाजपा में नया नेतृत्व लाने के लिए ही पार्टी ने इस बार किसी भी नेता के चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है। भाजपा सामूहिक नेतृत्व व कमल के निशान पर चुनाव मैदान में उतरने जा रही है। अभी प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़, उपनेता प्रतिपक्ष सतीश पूनिया, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, कैलाश चौधरी, अर्जुंन मेघवाल, सांसद दीया कुमारी, किरोड़ीलाल मीणा, राज्यवर्धन राठौड़ अग्रिम पंक्ति के नेताओं में शुमार हैं। प्रदेश में यदि भाजपा की सरकार बनती है तो इनमें से ही कोई मुख्यमंत्री बन सकता है।
जिस तरह से वसुंधरा राजे समर्थक नेताओं के टिकट काटे जा रहे हैं उससे लगता है कि आने वाला समय वसुंधरा राजे के लिए अच्छा नहीं रहने वाला है। 2013 से 20118 के कार्यकाल में वसुंधरा राजे के इर्द-गिर्द ऐसे चापलूस नेताओं की का जमावड़ा हो गया था जो सिर्फ उनकी जी हजूरी में ही लगे रहते थे। उस कार्यकाल में वसुंधरा राजे ने एक मुख्यमंत्री की बजाय महारानी के रूप में शासन चलाया था, जिसके चलते ही 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 163 सीटों से घटकर 73 सीटों पर सिमट गई थी।
प्रदेश में पार्टी की करारी हार से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वसुंधरा राज्य से नाराज हो गए। उसके बाद से ही उन्हें प्रदेश की राजनीति में अलग-थलग करना शुरू हो गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी वसुंधरा को बड़ी भूमिका नहीं दी गई थी। उसके उपरांत भी भाजपा ने प्रदेश की सभी 25 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इससे भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं को यह बात समझ में आ गई कि बिना वसुंधरा के भी राजस्थान में भाजपा मजबूती से पैर जमा सकती है।
इस बार के विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे को अभी तक कोई बड़ी भूमिका नहीं दी गई है। उनके कट्टर समर्थकों के टिकट भी काटे जा रहे हैं। वसुंधरा राजे गुट के नेताओं के स्थान पर नए लोगों को टिकट देकर पार्टी वसुंधरा राजे का रहा-सहा प्रभाव भी खत्म करने का प्रयास कर रही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राजस्थान में इस बार बड़ी संख्या में नये नेता चुन कर आएंगे, जिससे आने वाले समय में प्रदेश की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा।
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