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मांग का सिंदूर न सही… महाराष्ट्र के इन गांवों में कैसे बदल रहा विधवाओं का नसीब

  • April 07, 2025

    नई दिल्ली । महाराष्ट्र (Maharashtra)के गांवों में एक खामोश लेकिन दमदार क्रांति(The powerful revolution) चल रही है, जो विधवाओं (Widows)की चूड़ियों की खनक(tinkling of bangles) वापस ला रही है। यह क्रांतिकारी बदलाव विधवा महिलाओं की मांग में सिंदूर की जगह समाज में सम्मान भर रही है। सदियों से चली आ रही विधवा-विरोधी कुरीतियों को जड़ से उखाड़ फेंकने का बीड़ा इन गांव वालों ने खुद उठाया है। राज्य के 27000 ग्राम पंचायतों में से 7683 गांवों ने विधवाओं के प्रति भेदभाव वाली कुरीतियों को खत्म करने की आधिकारिक घोषणा की है।


    महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में सामाजिक बदलाव की एक सशक्त लहर उठ रही है। यह सामाजिक क्रांति कोल्हापुर के हेरवड़ गांव से शुरू हुई थी, जिसने मई 2022 में भारत का पहला गांव बनकर विधवा विरोधी परंपराओं पर रोक लगाने का ऐतिहासिक निर्णय लिया। इस गांव ने ‘मांग का सिंदूर पोंछना’, ‘चूड़ियां तोड़ना’ और ‘मंगलसूत्र व पायल उतारना’ जैसी प्रथाओं पर पाबंदी लगाई।

    हेरवड़ गांव की पहल रंग लाई

    इसके बाद कई गांवों ने इस पहल को अपनाया और विधवाओं को सार्वजनिक गणपति पूजन, हल्दी-कुमकुम, और झंडा वंदन जैसे आयोजनों में आमंत्रित करना शुरू किया। मानवाधिकार आयोग ने भी इस दिशा में संज्ञान लेते हुए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को विधवाओं की गरिमा की रक्षा और जीवन स्तर सुधारने का निर्देश दिया है।

    पुनर्विवाह समेत कई कुरीतियां लगभग बंद

    हेरवड़ के पूर्व सरपंच सुरगोंडा पाटिल ने बताया कि अब गांव में ऐसी कुरीतियां लगभग बंद हो चुकी हैं और कुछ विधवाओं ने पुनर्विवाह भी किया है। नागपुर के कडोली गांव की पूर्व सरपंच प्रांजल वाघ ने बताया कि उन्होंने तो हेरवड़ के पहले ही विधवाओं को सामाजिक आयोजनों में शामिल करना शुरू कर दिया था, हालांकि अभी भी कई जगहों पर विरोध का सामना करना पड़ता है।

    नासिक के मुसलगांव के सरपंच अनिल शिर्साट ने बताया कि गांव में इन प्रथाओं का प्रचलन नहीं है और पंचायत की फंडिंग का 15% हिस्सा हर साल पांच जरूरतमंद विधवाओं की मदद के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

    कोल्हापुर, सांगली और सोलापुर में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता ललित ने बताया कि 76 ग्राम पंचायतों ने विधवा विरोधी परंपराओं को खत्म करने की शपथ ली है। वे ICDS व ASHA कार्यकर्ताओं की मदद से जागरूकता फैला रहे हैं। उन्होंने कहा, “महिलाएं स्वेच्छा से ऐसे कर्मकांड नहीं करतीं, उन्हें मजबूर किया जाता है। हमें कानून के साथ-साथ एक सशक्त अभियान की भी ज़रूरत है।”

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