विश्व मरूस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस (17 जून) पर विशेष
योगेश कुमार गोयल
दुनियाभर में बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से मरूस्थलीकरण अर्थात् उपजाऊ जमीन के बंजर बन जाने की समस्या विकराल हो रही है। सूखे इलाकों में जब लोग पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन करते हैं तो वहां पेड़-पौधे खत्म हो जाते हैं और उस क्षेत्र की जमीन बंजर हो जाती है। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से वैश्विक स्तर पर मरूस्थलीकरण का मुकाबला करने के लिए जन जागरूकता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से वर्ष 1995 से प्रतिवर्ष विश्व मरूस्थलीकरण रोकथाम और सूखा दिवस मनाया जा रहा है। मरूस्थलीकरण और सूखे की बढ़ती चुनौतियों से मुकाबला करने हेतु लोगों को जागरूक करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 1994 में मरूस्थलीकरण रोकथाम का प्रस्ताव रखा था। इस दिवस के जरिये जनमानस को जल तथा खाद्यान्न सुरक्षा के साथ पारिस्थितिकी तंत्र के प्रति जागरूक करने, सूखे के प्रभाव को प्रत्येक स्तर पर कम करने के लिए कार्य करने और नीति निर्धारकों पर मरूस्थलीकरण संबंधी नीतियों के निर्माण के साथ उससे निपटने के लिए कार्ययोजना बनाने का दबाव बनाने का प्रयास किया जाता है।
आने वाले दिनों में मरूस्थलीकरण कितनी बड़ी समस्या बनकर सामने आ सकता है, यह संयुक्त राष्ट्र के इस अनुमान से समझा जा सकता है कि वर्ष 2025 तक दुनिया के दो-तिहाई लोग जल संकट की परिस्थितियों में रहने को विवश होंगे। जिससे मरूस्थलीकरण के चलते विस्थापन बढ़ेगा और आगामी 25 वर्षों में तेरह करोड़ से भी ज्यादा लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ सकता है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक विश्वभर के कुल क्षेत्रफल का करीब बीस फीसदी भूभाग मरूस्थलीय भूमि के रूप में है जबकि वैश्विक क्षेत्रफल का करीब एक तिहाई भाग सूखाग्रस्त भूमि के रूप में है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार गहन खेती के कारण 1980 से अबतक धरती की एक-चौथाई उपजाऊ भूमि नष्ट हो चुकी है और दुनियाभर में रेगिस्तान का दायरा निरन्तर विस्तृत हो रहा है, जिस कारण आने वाले समय में अन्न की भारी कमी हो सकती है। विश्वभर में करीब 130 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि क्षेत्र मानवीय क्रियाकलापों के कारण रेगिस्तान में बदल चुकी है और प्रति मिनट करीब तेइस हेक्टेयर उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में तब्दील हो रही है। विशेषज्ञों के अनुसार इसके चलते खाद्यान्न उत्पादन में प्रतिवर्ष दो करोड़ टन की कमी आ रही है।
भारत में भी मरूस्थलीकरण एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है क्योंकि इसके चलते करीब 30 प्रतिशत भूमि मरूस्थल में बदल गई है, जिसमें से 82 फीसदी हिस्सा राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, तेलंगाना इत्यादि देश के आठ राज्यों में ही है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक तमिलनाडु तथा जम्मू-कश्मीर के पांच-पांच, गुजरात, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश के चार-चार, महाराष्ट्र तथा हिमाचल प्रदेश के तीन-तीन, हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक तथा केरल के दो-दो और गोवा के एक जिले में मरूस्थलीकरण का काफी प्रभाव है। सीएसई की रिपोर्ट में बताया गया था कि 2003-05 से 2011-13 के बीच भारत में मरूस्थलीकरण काफी बड़े क्षेत्र तक बढ़ चुका है तथा सूखा प्रभावित 78 में से 21 जिले ऐसे हैं, जिनका पचास फीसदी से भी अधिक क्षेत्र मरूस्थलीकरण में तब्दील हो चुका है।
मरूस्थलीकरण से निपटने की चुनौतियों के बारे में केन्द्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावडेकर के अनुसार मंत्रालय भूमि के मरूस्थलीकरण को रोकने के लिए जल संसाधन मंत्रालय, कृषि मंत्रालय, भूमि सुधार विभाग तथा अन्य संबंधित मंत्रालयों के सहयोग से मिशन डिग्रेडेशन न्यूट्रल अभियान शुरू कर रहा है। मरूस्थलीकरण कृषि योग्य भूमि के खराब होकर अनुपजाऊ हो जाने की ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें जलवायु परिवर्तन के अलावा मानवीय गतिविधियों के कारण भी जमीन की उत्पादन क्षमता में कमी होते जाने से विभिन्न क्षेत्रों की भूमि रेगिस्तान में तब्दील हो जाती है। भारत में वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ाने में भी मरूस्थलीकरण की बहुत बड़ी भूमिका है, जिसके कारण लोगों के स्वास्थ्य और कार्य पर बुरा असर पड़ रहा है। इसके चलते लोगों में सांस, फेफड़े, सिरदर्द इत्यादि विभिन्न समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं।
माना जा रहा है कि अगर जमीन इसी तरह बंजर होती रही तो धरती से बहुत बड़ी संख्या में पेड़-पौधे तो खत्म हो ही जाएंगे, अगले 25 वर्षों में वैश्विक खाद्य उत्पादन में भी 12 फीसदी तक की कमी आ सकती है। दुनियाभर में प्रतिवर्ष आयरलैंड के क्षेत्रफल के बराबर अर्थात् करीब 70 हजार वर्ग किलोमीटर लंबा नया रेगिस्तान बन जाता है। अफ्रीका की करीब 40 फीसदी, एशिया की 39 फीसदी और दक्षिण अमेरिका की करीब 30 फीसदी आबादी आज रेगिस्तानी खतरे वाले इलाकों में रहती है। भारत में भी करीब तीस फीसदी जमीन बंजर हो चुकी है। हालांकि कुछ देशों द्वारा अब रेगिस्तान में तब्दील होती बंजर जमीनों को हरा-भरा बनाने के लिए प्रयास शुरू कर दिए गए हैं, जिनकी सराहना की जानी चाहिए। भारत में केन्द्र सरकार द्वारा देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान में उत्कृष्ट शोध केन्द्र की स्थापना कर भूमि के बंजर होने से बचाने का शोध कार्य शुरू किए जाने की घोषणा की जा चुकी है।
चीन तो अपने एक बहुत बड़े रेगिस्तान को तीन दशकों में हरे-भरे मैदान में तब्दील कर दुनिया के सामने मिसाल पेश कर चुका है। चीन का ‘कुबुकी’ नामक रेगिस्तान बंजर जमीन और निर्धनता का अभिशाप झेलते हुए कभी अपने ही देश में बिल्कुल अलग-थलग पड़ा था। उल्लेखनीय है कि मंगोलिया के भीतरी हिस्से में पड़ने वाला यह रेगिस्तान दुनिया का सातवां सबसे बड़ा रेगिस्तान है और अक्सर पूरे चीन में रेत के तूफान का बड़ा कारण बनता रहा था किन्तु 1988 में वहां की एक कम्पनी ‘एलिओन रिसोर्सेज’ ने जब सरकार और स्थानीय लोगों के सहयोग से इस रेगिस्तान की बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए यहां विशेष प्रकार के पौधे लगाने शुरू किए तो इस रेगिस्तान की सूरत ही बदलने लगी और तीन दशकों बाद आज स्थिति यह है कि यही रेगिस्तान अब होटल, पर्यटन तथा औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विश्वभर में अपनी एक अलग पहचान बना चुका है। यह रेगिस्तान अब दुनिया का सबसे बड़ा सिंगल स्टेज सोलर फार्म बन चुका है, जिसमें लगे साढ़े छह लाख सोलर पैनलों से अब चीन को हजारों मैगावाट बिजली प्राप्त हो रही है। बहरहाल, बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए भले ही सरकारी स्तर पर कुछ प्रयास शुरू किए गए हैं लेकिन इसके साथ वन क्षेत्रों में विस्तार के गंभीर प्रयासों की भी सख्त जरूरत है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)