लोकतंत्र में राजदंड कैसा… राजा-महाराजा चले गए… राजतंत्र चला गया… हजारों लोगों की कुर्बानियां… सैकड़ों लोगों की शहादत के बाद हमने लोकतंत्र को पाया… अपनों के द्वारा चुने गए अपनों को देश का नेतृत्व थमाया… राजपाट का युग मिटाया और जिस राजदंड को हमने वर्षों पहले दफनाया और भारत के संविधान को अपने भविष्य का मसीहा बनाया, जिसकी सरमाएदारी में देश का प्रधानमंत्री हो या राष्ट्रपति, सांसद हो या विधायक, जनता से लेकर जनतंत्र तक लोकतंत्र का शंख बजा रहा है…लोकतंत्र के उसी मंदिर में राजदंड की स्थापना और उसके आगे जनता के लिए जनता के द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री का साष्टांग समझ में नहीं आया… प्रधानमंत्री ने राजदंड के आगे साष्टांग क्या किया पूरे देश का मीडिया, न्यूज चैनल, अखबार और बुद्धिजीवी उसी राजदंड के आगे साष्टांग करते नजर आए, जिस राजदंड की परिपाटी ने वर्षों जनता का दोहन किया… कई सिरफिरे राजा-महाराजाओं ने जिस राजदंड को अपनाकर चमड़े के सिक्के चलवाए… किसानों पर जुल्म ढाए… जनता से जजिया कर वसूला… कइयों को मौत के घाट उतारा… उन राजा-महाराजाओं को मिटाकर, राजदंड को दफनाकर हमने लोकतंत्र का परचम लहाराया… तब प्रजा हुआ करती थी, अब जनता हुआ करती है… तब राजतंत्र हुआ करता था, अब लोकतंत्र है… तब राजा का हुक्म चलता था, अब संविधान की मर्यादाएं चलती हैं… फिर संसद के नए भवन में राजदंड की स्थापना कर देश में राजशाही का संदेश क्यों दिया जा रहा है… और उसे पूरा देश स्वीकारता क्यों नजर आ रहा है… पता नहीं क्या हो गया है इस देश की सोच को… संसद भवन की नई इमारत को जज्बातों से जोड़ा जा रहा है… उसे देश का गौरव बताया जा रहा है… उसके निर्माण को ऐतिहासिक बताया जा रहा है… गोदी मीडिया मूर्खों की तरह कल से लेकर आज तक कान खाए जा रहा है… वह तो केवल एक इमारत है… जज्बात तो उस पुराने संसद भवन से जुड़़े हैं, जिसे आज इतिहास में दफनाया जा रहा है… जिस संसद भवन ने देश की आजादी का पहला सूरज देखा… जिस संसद भवन में नेहरू ने सबसे पहले शपथ ली… जिस संसद भवन में केवल एक वोट से पराजय पर देश के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने इस्तीफा देकर पूरी दुनिया में भारत के लोकतंत्र का मस्तक ऊंचा किया… जिस संसद भवन ने अपने सीने पर गोलियां खाईं… जिस संसद में सांसदों को बचाने के लिए जवानों ने अपनी जान देकर शहादत और कुर्बानी की मिसाल बनाई… जो संसद भवन भारत के लोकतंत्र और संविधान का साक्षी बना, उस संसद भवन से जज्बात जुड़े होने चाहिए… न कि उस इमारत से, जिसे तो अभी केवल संसद भवन का नाम मिला है… उससे जज्बात जोडऩे में, उसे इतिहास बनने में कई युग बीतेंगे… अभी तो वह केवल सुविधा और वैभव का साक्षी है…जिसे जनता की कमाई से बनाया गया है… उसमें जब देश के चुने हुए सांसद लोकतंत्र की निष्ठा के बीज बोएंगे और जनधर्म के यज्ञ में अपने कत्र्तव्यों की आहुति देंगे, तब इस संसद भवन से जज्बात जुड़ेंगे… तब हम उसके इतिहास पर गर्व कर सकेंगे, हमारी पीढिय़ों के लिए राजदंड नहीं, बल्कि लोकतंत्र के किस्से जीवन का हिस्सा बनेंगे…
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