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    नक्सलियों की कमर तोड़ने में क्यों नहीं मिल रही पूरी सफलता

  • April 29, 2023

    – योगेश कुमार गोयल

    नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में बड़ा हमला करते हुए आईईडी से निशाना बनाकर सुरक्षाबलों की गाड़ी को विस्फोट से उड़ा दिया। इस हमले में एक चालक सहित डीआरजी (डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड) के 10 जवान शहीद हो गए। माना जा रहा है कि नक्सलियों की मुखबिरी के कारण ही नक्सली इतनी बड़ी वारदात को अंजाम देने में सफल हुए। हालांकि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कह रहे हैं कि नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई अंतिम दौर में चल रही है और नक्सलियों को किसी भी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा, सरकार योजनाबद्ध तरीके से नक्सलवाद को खत्म करेगी लेकिन हकीकत यही है कि इसी प्रकार के बयान हर नक्सली हमले के बाद सुनने को मिलते रहे हैं। वास्तविकता यही है कि नक्सल समस्या बहुत पुरानी है, जिस पर अभी तक काबू नहीं पाया जा सका है। सरकारें भले ही बदलती रही हों पर जमीनी हकीकत यही है कि नक्सली हमले नहीं रुके हैं। यदि छत्तीसगढ़ में पिछले 13 वर्षों के आंकड़ों पर नजर डालें तो 2010 से अब तक 10 बड़े नक्सली हमले हुए हैं, जिनमें हमारे करीब 200 जवान शहीद हो चुके हैं।

    डीआरजी के जवान नक्सलियों के निशाने पर सबसे ज्यादा होते हैं क्योंकि 2008 में पहली बार गठन के बाद से नक्सलियों के खिलाफ वे कई अभियानों को सफलतापूर्वक अंजाम दे चुके हैं, इसीलिए वे नक्सलियों के सबसे बड़े दुश्मन माने जाते हैं। ‘डीआरजी’ छत्तीसगढ़ पुलिस के स्पेशल जवान हैं, जिनकी भर्ती विशेष रूप से नक्सलियों से लड़ने के लिए ही की गई है। डीआरजी के जवानों में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सली और बस्तर के ही वातावरण में पले-बढ़े लोग शामिल होते हैं और यही कारण है कि नक्सलियों के खिलाफ सबसे बड़ी सफलता अभी तक इन्हीं जवानों को ही मिली है।


    हालांकि बार-बार हो रहे नक्सली हमलों और इनमें जवानों की शहादत को देखते हुए सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर नक्सलियों पर पूरी तरह लगाम कसने में कौन-सी मुश्किलें सामने आ रही हैं, क्यों नक्सली हमलों पर पूरी तरह लगाम कसने में सफलता नहीं मिल पा रही? केन्द्र सरकार द्वारा 2021 में लोकसभा में बताया गया था कि छत्तीसगढ़ में 2020 तक कुल 3722 नक्सली हमलों में हमारे 489 जवान शहीद हो चुके हैं। हालांकि गृह मंत्रालय का दावा है कि वर्ष 2018 के मुकाबले 2022 में नक्सली हिंसा की घटनाओं में 39 फीसदी की कमी आई है और सुरक्षा बलों के मारे जाने की संख्या भी 26 फीसदी घटी है लेकिन कुछ समय से नक्सली जिस प्रकार अपनी ताकत का अहसास कराते हुए बेलगाम नजर आ रहे हैं, ऐसे में उन्हें कुचलने के लिए सरकार द्वारा रणनीतियों में बड़े बदलाव की जरूरत महसूस की जाने लगी है।

    सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि नक्सली अब अत्याधुनिक हथियारों और शक्तिशाली विस्फोटकों का भी खुलकर इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी खड़ा होता है कि जंगलों में उन तक ये खतरनाक हथियार और शक्तिशाली विस्फोटक कहां से और कैसे पहुंच रहे हैं? सवाल यह भी है कि सुरक्षा बलों की टीम के किसी अभियान की जानकारी नक्सलियों को कई बार पहले ही कैसे मिल जाती है? नक्सलियों की गतिविधि की भनक पाकर जंगल में उन्हें तलाशने के अभियान पर निकलने वाले जवान खुद कैसे उन्हीं के शिकार बन जाते हैं? कैसे नक्सलियों को जवानों की मुहिम की पल-पल की खबर होती है? जाहिर-सी बात है कि बगैर स्थानीय लोगों के समर्थन के यह संभव नहीं है।

    दरअसल नक्सली गुट अपनी सक्रियता वाले इलाके के चप्पे-चप्पे से वाकिफ होते हैं और स्थानीय लोगों से सम्पर्क भी उनके काम आता है। ऐसे में बेहद जरूरी है कि नक्सली समूहों के खिलाफ सुरक्षा के प्रत्यक्ष मोर्चों के साथ-साथ एक मजबूत और सुगठित खुफिया तंत्र गठित करने पर विशेष ध्यान दिया जाए। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि नक्सलियों को प्रायः स्थानीय स्तर पर समर्थन मिलता रहा है और इन्हीं में उनके कुछ खास मुखबिर भी शामिल होते हैं। ऐसे में इस सवाल का जवाब भी तलाशा जाना चाहिए कि नक्सलियों को स्थानीय स्तर पर मिलते इस समर्थन के आखिर कारण क्या हैं?

    नक्सलवाद की जड़ों का सफाया न हो पाने का एक कारण पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा सर्च के नाम पर स्थानीय आदिवासियों का उत्पीड़न किया जाना भी है। दरअसल कई बार ऐसे मामले सामने आते रहे हैं, जब नक्सली होने के संदेह में स्थानीय लोगों को प्रताड़ित किया जाता है और कभी-कभी तो जान से मार दिया जाता है। कहने का तात्पर्य यही है कि पुलिस की छवि लोगों का भरोसा जीतने के बजाय उन्हें डराने वाली ज्यादा रही है, जिसका नुकसान नक्सल विरोधी अभियान को होता रहा है। सरकार द्वारा प्रायः नक्सल विरोधी अभियान को और गति देने के लिए जवानों की तैनाती बढ़ाने पर विचार किया जाता है जबकि मूल समस्या कार्रवाई बल की संख्यात्मक कमी नहीं बल्कि रणनीतिक खामियां हैं, जिससे नक्सल विरोधी रणनीति पर सवालिया निशान लगते रहे हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो नक्सली समस्या का पूरी तरह समाधान तब तक संभव नहीं है, जब तक सरकारें ऐसे इलाकों में लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हुए विकास कार्यों को बढ़ावा देने को लेकर नीतियां बनाकर उन पर दृढ़तापूर्वक अमल नहीं करती।

    (लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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