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    रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत भूमिका से बेचैन क्यों है चीन?

  • August 26, 2024

    नई दिल्ली. War is the failure of diplomacy… इसका सीधा सा मतलब है कि जब समस्याएं बातचीत की टेबल पर हल नहीं होती तो अक्सर वे युद्ध कि ओर ले जाती हैं. ऐसे ही एक युद्ध की आग में रूस और यूक्रेन (Russia and Ukraine) ढाई साल से धधक रहे हैं. इसी युद्ध की रणभेरियों के बीच प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) 46 दिनों के भीतर दोनों देशों का दौरा कर चुके हैं. मकसद साफ था- युद्ध की विभीषिका के बीच शांति (peace) का संदेश देना. ऐसे में जब राष्ट्रपति जेलेंस्की (President Zelensky) भरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहते हैं कि पुतिन की तुलना में प्रधानमंत्री मोदी ज्यादा शांति चाहते हैं तो इसकी गंभीरता का आकलन करना जरूरी हो जाता है. भारत दोनों देशों के बीच पीसमेकर की भूमिका निभाने के लिए तैयार है. खुद यूक्रेन और अमेरिका को भारत से उम्मीदें हैं कि वह यह भूमिका बखूबी निभा सकता है लेकिन चीन इससे सहज नजर नहीं आता.



    पीएम मोदी के यूक्रेन दौरे के ऐलान के बाद से ही वैश्विक स्तर पर हलचल बढ़ी. भारतीय प्रधानमंत्री के यूक्रेन दौरे को लेकर देश-दुनिया में जमकर चर्चा हुई. इसे संयोग कहेंगे या कुछ और लेकिन पीएम मोदी के यूक्रेन पहुंचने से दो दिन पहले ही चीन के प्रधानमंत्री ली कियांग ने रूस का रुख किया था, जहां उन्होंने बेहद गर्मजोशी से राष्ट्रपति पुतिन से मुलाकात की.

    रूस की ओर चीन का झुकाव किसी से छिपा नहीं है. लेकिन इसके बावजूद वह खुद को इस युद्ध में निष्पक्ष देश के तौर पर पेश करने की कोशिश करता रहा है. यूक्रेन पर हमले के बाद जब अमेरिका सहित कई यूरोपीय देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे, तब चीन डटकर रूस के पाले में खड़ा हो गया था. राष्ट्रपति जिनपिंग ने पुतिन से साफ कह दिया था कि रूस की आर्थिक मदद जारी रखी जाएगी.

    आखिर चीन को भारत से दिक्कत क्या है?

    भारत की लगातार मजबूत हो रही ग्लोबल छवि से चीन चिढ़ा हुआ है. युद्ध के समय में भारत को दुनिया के कई बड़े देश संभावित पीसमेकर के तौर पर देख रहे हैं. चीन को यह रास नहीं आ रहा. वह वैश्विक स्तर पर भारत की लगातार मजबूत हो रही छवि से अनकंफर्टेबल है.

    पीएम मोदी के यूक्रेन दौरे से चीन इस कदर चिढ़ा हुआ था कि सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स में संभावित पीसमेकर के तौर पर भारत की भूमिका को सिरे से नकारा गया है. अखबार में कहा गया कि पीएम मोदी ने दोनों युद्धग्रस्त देशों के बीच की खाई को खत्म करने की उत्सुकता दिखाई है. लेकिन भारत के पास ऐसा करने की क्षमता ही नहीं है. भारतीय प्रधानमंत्री का यह कदम केवल अपने अस्तित्व को वैश्विक स्तर पर दिखाने की कोशिश भर है. भारत दोनों देशों के बीच शांति स्थापित करने में कोई भूमिका नहीं निभा पाएगा.

    चीन की मंशा वैश्विक स्तर पर अपना वर्चस्व कायम करने की है. एक्सपर्ट्स मानते हैं कि 2023 में चीन ने ईरान-सऊदी अरब डील में अहम भूमिका निभाई थी. चीन जानता है कि रूस और यूक्रेन युद्ध के बीच पीसमेकर की भूमिका निभाकर वैश्विक स्तर पर उसकी अहमियत बढ़ सकती है. यह सफलता चीन के लिए कई दरवाजे खोल सकती है. ये भी एक वजह है कि चीन रूस और यूक्रेन के बीच शांति बहाली में भारत की संभावित भूमिका को लेकर शुरुआत से ही असहज है.

    क्या रूस और यूक्रेन दोनों नावों में सवार होना चाहता है चीन?

    रूस से चीन की दोस्ती जगजाहिर है. लेकिन इसके बावजूद वह यूक्रेन के इन्फ्रास्ट्रक्चर में भी कई सालों से निवेश बढ़ा रहा है. चीन ने यूक्रेन में ऊर्जा से लेकर कृषि और परिवहन तक कई सेक्टर्स के प्रोजेक्ट्स में निवेश किया है. 2016 से 2021 में यूक्रेन में चीन का निवेश पांच करोड़ डॉलर से बढ़कर 26 करोड़ डॉलर हो गया है. 2019 में चीन, यूक्रेन का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर बनकर उभरा था. इसके साथ ही यूक्रेन ने चीन के साथ एक अहम डिफेंस डील भी की थी. 2017 में यूक्रेन चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट एडं रोड इनिशिएटिव योजना से भी जुड़ चुका है.

    मई 2023 में चीन के विशेष प्रतिनिधि ली हुई ने यूक्रेन, पोलैंड, फ्रांस, जर्मनी और रूस का दौरा किया था. इस दौरान रूस और यूक्रेन के बीच सीजफायर प्लान भी पेश किया था. खुद राष्ट्रपति जिनपिंग इस युद्ध को रोकने को लेकर 12 सूत्रीय शांति योजना भी पेश कर चुके हैं. लेकिन इस योजना में क्षेत्रीय सीमाओं की संप्रभुता का सम्मान करने से लेकर शीतयुद्ध के दौर की मानसिकता से बाहर निकलने तक हवा-हवाई बातें ही हैं, पीसमेकिंग को लेकर किसी तरह का ठोस खाका पेश नहीं किया गया.

    वहीं, राष्ट्रपति जेलेंस्की दो नावों में सवार होने की चीन की मंशा को पहले ही भांप गए हैं. यही वजह है कि उन्होंने इस साल सिंगापुर में हुए शांग-रीला डायलॉग में रूस की मदद करने के लिए चीन को आड़े हाथों लिया था. जेलेंस्की ने कहा था कि चीन की मंशा सिर्फ अपनी ग्लोबल छवि चमकाने की है. ईरान-सऊदी अरब डील में अहम भूमिका निभाने के बाद चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षाएं और ज्यादा बढ़ी हैं.

    चीन की नजरों में पीएम मोदी का यूक्रेन दौरा

    23 अगस्त को दुनियाभर की नजरें पीएम मोदी पर टिकी थीं. उन्होंने कीव पहुंचकर राष्ट्रपति जेलेंस्की को गले लगाया, बड़े भाई की तरह उनके कंधे पर हाथ रखकर उन्हें ढांढस बंधाया और शांति का संदेश भी दिया. लेकिन चीन को यह सब रास नहीं आया और उसने भारत के इस कदम को रूस और अमेरिका के बीच बैलेंसिंग एक्ट बताया. चीन ने एक तरह से इसे सांकेतिक कदम बताया है.

    रिटायर्ड भारतीय राजनयिक अनिल त्रिगुणायत का कहना है कि पीएम मोदी का कीव दौरा संवाद और कूटनीति का मौका तैयार कर सकता है. हालांकि, यह आसान नहीं होगा. शांति की कोशिश करते रहनी होगी.

    राजनीतिक विश्लेषक और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार रह चुके हर्ष खरे ने पीएम मोदी के यूक्रेन दौरे को अमेरिका को खुश करने की रणनीति बताया था. उन्होंने कहा था कि पीएम मोदी के इस दौरे से कोई भी ठोस नतीजे निकलने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. वह सिर्फ पश्चिमी देशों को खुश करने के इरादे से यूक्रेन गए थे.

    कई रिपोर्ट्स के मुताबिक, पीएम मोदी के यूक्रेन दौरे के इस स्ट्रैटेजिक कदम को उसकी ग्लोबल इमेज से जोड़कर देखा जा रहा है. एक्सपर्ट्स का मानना है कि पीएम मोदी वैश्विक स्तर पर यह दिखाना चाहते हैं कि भारत किसी तरह के बाहरी दबाव में कोई कदम नहीं उठाता बल्कि उसके लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि हैं.

    अमेरिका को नहीं है चीन पर भरोसा!

    रूस और यूक्रेन के बीच पीसमेकर की भूमिका निभाने को लेकर चीन बेचैन है. लेकिन रूस से नजदीकियों और उसकी अति महत्वाकांक्षा की वजह से अमेरिका और यूरोप के देश चीन को संदेह की नजरों से देखते हैं. ज्यादा समय नहीं हुआ है, जब व्हाइट हाउस के राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि अगर रूस- यूक्रेन युद्ध में चीन खुद को शांतिदूत के रूप में देखता है तो इसे कतई स्वीकार नहीं किया जाएगा. अगर ऐसा होता है तो इसका मतलब होगा कि पुतिन को अपने हिसाब से नए सिरे से योजना बनाने के लिए अधिक समय देना होगा. किर्बी ने कहा था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि चीन और रूस अंतरराष्ट्रीय नियमों की खिलाफत करते हैं.

    लेकिन उन्होंने मंच से रूस और यूक्रेन युद्ध के भविष्य को लेकर एक बड़ा संकेत भी दिया था. हैरिस ने कहा था कि अगर वह पांच नवंबर को होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव में जीतकर राष्ट्रपति बनती हैं तो इस युद्ध को खत्म कराने में उनकी भूमिका अहम होगी. अमेरिका इस ढाई साल से चले आ रहे इस युद्ध को रोकने के लिए कारगर कदम उठाएगा और शांति बहाली पर जोर देगा.

    मोदी के कीव दौरे के दौरान राष्ट्रपति जेलेंस्की ने भारत से गुजारिश की थी कि वह रूस की अर्थव्यवसव्था को पंगु बनाने के लिए उससे तेल खरीदना बंद कर दे. लेकिन हकीकत ये है कि भारत अपनी जरूरतों के लिए सस्ते दाम पर लगातार रूस से तेल खरीद रहा है. चीन को पछाड़ते हुए भारत रूस से तेल खरीद का सबसे बड़ा खरीदार बन गया है. जुलाई में भारत के कुल तेल आयात में रूसी कच्चे तेल की हिस्सेदारी 44 फीसदी रही. इसमें रिकॉर्ड 2.07 मिलियन बैरल प्रतिदिन का इजाफा हुआ है.

    लेकिन भारत ने रूस पर अपनी निर्भरता को कम करने की कोशिश की है. स्टॉकहम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) की रिपोर्ट के मुताबिक, हाल के सालों में भारत में रूस के हथियारों का आयात घटा है. रूस के बजाए भारत अब अमेरिका, फ्रांस और इजरायल से भी हथियार खरीद रहा है. यह कदम भारत की उस रणनीति का भी हिस्सा है, जिसके तहत भारत किसी एक देश पर अपनी निर्भरता को खत्म कर रहा है और स्ट्रैटेजिक ऑटोनोमी को बढ़ा रहा है.

    बीते ढाई साल से युद्ध का दंश झेल रहे दोनों ही देशों के लिए अब यह जंग हार और जीत के मायनों से परे है. इस युद्ध में अब जीत को लेकर ना तो कोई उत्साह बचा है और ना ही हार की आशंका की चिंता है. यह युद्ध अब आत्मसम्मान का सवाल बन गया है.

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