नई दिल्ली। कोलकाता (Kolkata) के सरकारी अस्पताल में महिला डॉक्टर के साथ रेप (Female doctor raped in government hospital) और हत्या की घटना के बाद पूरे देश में आक्रोश का माहौल है। इस बीच भारतीय जनता पार्टी के नेता बिगड़ती कानून व्यवस्था का आरोप लगाते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का इस्तीफा मांग रहे हैं और राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर रहे हैं। वहीं चुनाव में देरी के कारण महाराष्ट्र में भी राष्ट्रपति शासन लगाने की अटकलें लगाई जा रही हैं। बंगाल के मामले पर भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता शाज़िया इल्मी ने कहा था कि उचित अथॉरिटी को बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने पर विचार करना चाहिए।
इस बीच पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंद बोस भी कोलकाता रेप केस के बाद एक्शन मोड में हैं। राज्यपाल बोस गृह मंत्री अमित शाह और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से मुलाकात करने दिल्ली पहुंचे हैं। ऐसे में पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति के कयासों ने जोर पकड़ लिया है। वहीं बीजेपी नेताओं की ओर से बंगाल में राष्ट्रपति शासन की मांग पर राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने कहा कि मांग तो मांग होती है, जो भी फैसला लिया जाएगा, सोच समझकर राज्य के हित में लिया जाएगा। ऐसे में ये जानना जरूरी हो जाता है कि किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन कब और किन परिस्थितियों में लगता है। राष्ट्रपति शासन लगने के बाद राज्य की व्यवस्था में क्या-क्या बदल जाता है?
दरअसल राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने की व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 355 और अनुच्छेद 356 में दी हुई है। अनुच्छेद 355 कहता है कि केंद्र सरकार को राज्यों को बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति से बचाना चाहिए। केंद्र सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्य सरकारें संविधान के अनुसार काम करें। अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति को शक्ति प्राप्त है कि वो राज्य में संवैधानिक तंत्र के विफल होने पर राज्य सरकार की शक्तियों को अपने अधीन ले सकता है। किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन की घोषणा करने के लिए अक्सर इन दो अनुच्छेदों का एक साथ इस्तेमाल होता है। अगर राज्य सरकार संविधान के अनुसार काम करने में विफल रहती है तो राज्यपाल इस संबंध में एक रिपोर्ट भेज सकता है। राज्यपाल की सिफारिश को जब कैबिनेट की सहमति मिल जाती है तो किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लग सकता है। जरूरी नहीं कि राष्ट्रपति शासन हमेशा कानून व्यवस्था बिगड़ने पर ही लागू हो, जब किसी राज्य में किसी दल के पास बहुमत ना होने और गठबंधन की सरकार भी ना बन पाने की स्थिति में राज्यपाल राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर सकता है।
राष्ट्रपति शासन में सबसे खास बात ये है कि इस अवधि के दौरान राज्य के निवासियों के मौलिक अधिकारों को खारिज नहीं किया जा सकता। इस व्यवस्था में राष्ट्रपति मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्री परिषद को भंग कर देता है। राज्य सरकार के कामकाज और शक्तियां राष्ट्रपति के पास आ जाती हैं। इसके अलावा राष्ट्रपति चाहे तो यह भी घोषणा कर सकता है कि राज्य विधायिका की शक्तियों का इस्तेमाल संसद करेगी। इससे संसद ही राज्य की विधायिका के तौर पर काम करती है। ऐसी स्थिति में बजट प्रस्ताव को भी संसद ही पारित करती है। राष्ट्रपति शासन के प्रावधान केंद्र सरकार को किसी भी असामान्य स्थिति में प्रभावी ढंग से निपटने में सक्षम बनाते हैं। राष्ट्रपति शासन लगने के दो महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों यानी लोकसभा और राज्यसभा द्वारा इसको पास किया जाना जरूरी है।
अगर उस समय लोकसभा भंग होती है तो इस व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए राज्यसभा में बहुमत हासिल करना होता है। फिर लोकसभा गठन होने के एक महीने के भीतर वहां भी अप्रूवल लेना जरूरी है। दोनों सदनों की ओर से सहमति मिलने पर राष्ट्रपति शासन छह महीने तक रहता है। इसे छह-छह महीने करके अधिकतम 3 साल तक बढ़ाया जा सकता है। बंगाल के साथ महाराष्ट्र पर भी लोगों की नजरें हैं। महाराष्ट्र विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने के छह महीने के अंदर चुनाव कराए जा सकते हैं। यानी 26 नवंबर 2024 को जब महाराष्ट्र में विधानसभा का कार्यकाल खत्म होगा, उसके बाद राष्ट्रपति शासन लग सकता है। मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने भी अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि राष्ट्रपति शासन लगाने में कुछ भी गलत नहीं है। मतदान और गिनती की प्रक्रिया कुछ हफ्तों में पूरी कर ली जाएगी।
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