– आर.के. सिन्हा
मुनव्वर राणा हमारे दौर के मकबूल शायर के रूप में जाने जाते रहे हैं। वे देशभर के मुशायरों-कवि सम्मेलनों में पिछले पांच दशकों से लेकर आज भी छा जाते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं से एक संवेदनशील शायर के रूप में पहचान बनाई थी। राणा गजलों के अलावा संस्मरण भी लिखते रहे हैं। पर राणा कुछ समय से लगातार विभिन्न मसलों पर इस तरह की टिप्पणियां कर रहे हैं, जो उनकी शख्सियत से मेल नहीं खाती। इसमें कोई दिक्कत नहीं है अगर किसी मसले पर उनकी राय बाकी से अलग हो। लोकतंत्र में हर इंसान को अपनी बात रखने का अधिकार है। दिक्कत तो यह है कि बुढ़ापे में वे गटरनुमा और बदबूदार भाषा बोलने लगे हैं।
ताजा मामले में राणा जी ने भारत के पूर्व चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति रंजन गोगई को लेकर जिस भाषा का इस्तेमाल किया है उसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। उन्होंने ऐसा क्यों किया यह समझ से परे है। वजह कुछ भी हो लेकिन एक साहित्यकार या किसी भी सभ्य इंसान से उम्मीद होती है कि वह हर तरह के लोगों का ज़िक्र मर्यादित भाषा के साथ ही करेगा। दरअसल राणा आरोप लगा रहे हैं गोगई पर कि उन्होंने राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए राममंदिर मसले पर हिन्दुओं का पक्ष लिया। इसका मोटा-मोटी मतलब यह हुआ कि आप सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मान नहीं रहे हैं। हालांकि जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था तब राणा और शेष सारे मुसलमान नेता कह रहे थे कि वे कोर्ट के फैसले को मानेंगे। अब चूंकि फैसला उनके मनमाफिक नहीं आया तो ये गोगई पर ही आरोप लगाने लगे। वे यह भी क्यों भूल गए कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला पांच सदस्यीय बेंच ने सर्वानुमति से दिया था। उसमें एक मुस्लिम जज भी था।
मुनव्वर राणा ने कहा है, “रंजन गोगई जितने कम दाम में बिके, उतने में हिंदुस्तान की एक ‘रंडी’ भी नहीं बिकती है।” जो शायर मां की महानता पर गजल रचता है और जिसकी अपनी भी दो बेटियां है, वह किसी अन्य स्त्री पर इतना घटिया आरोप कैसे लगा सकता है। राणा से कभी यह उम्मीद नहीं थी। मैं उनसे कई बार मिला हूं और उन्हें कई कवि सम्मेलनों में ससम्मान आमंत्रित भी किया है। मुझे उनकी इस घटिया हरकत से सच में गहरा आघात लगा है। यह लाजिमी भी है। जब हम किसी शख्स का हृदय से आदर करें और वह हमारी अपेक्षाओं पर खरा न उतरे तो मन उदास और खिन्न हो ही जाता है। राणा ने अपने लाखों प्रशंसकों को दुखी किया है। राणा मुझे कभी भविष्य में मिलेंगे तो मैं उनसे कहूंगा कि आप तो मां पर बहुत शानदार कलम चलाते थे, क्या आपको पता नहीं कि एक रंडी भी मां होती है। वह भी किसी की बहन और बेटी भी है। आप और आपकी शायरी पर लानत है। तो देख लें कि गंगा-जमुना तहजीब की बातें करने वाला नकली ढकोसलापंथी शख्स राममंदिर बनने से कितना दुखी है।
एकबार राणा ने देश की नौटंकी कला की जान गुलाब बाई पर भी इसी तरह की छींटाकशी की थी। उन्हें यह नहीं पता कि नौटंकी हमारे सांस्कृतिक जीवन की अनमोल निधि है। हमारा गौरव है। नौटंकी हमारी लोक सांस्कृतिक परंपरा का जीवंत प्रवाह है। गुलाब बाई ने नौटंकी नाट्यशैली को शिखर तक पहुंचाया, उसे सींचा, नया जीवन दिया। एक तरह से वे राणा जैसे शायरों से कमतर नहींI उनके बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी हिकारत और पितृसत्ता की हिंसा का परिचायक है। यह अपनी जड़ों को न पहचानने की नालायकी भी है। गुलाब बाई अपनी कला के शिखर पर पहुँचीं जहाँ राणा न तो अबतक पहुँच पाये हैं न ही इस जिन्दगी में कोई उम्मीद है।
राणा के नक्शे-कदम पर उनकी पुत्रियाँ भी चल रही हैं। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सीएए, एनआरसी के विरोध प्रदर्शन में भाग लेने आई राणा की बेटी सुमैया राना ने कहा था कि “हमें ध्यान रखना है कि हमें इतना भी तटस्थ नहीं होना है कि हमारी पहचान खत्म हो जाए। पहले हम मुसलमान हैं और उसके बाद कुछ और हैं। हमारे अंदर का जो दीन है, जो ईमान है, वह जिंदा रहना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि हम अल्लाह को भी मुंह दिखाने लायक न रह जाएं।”
राणा को अपनी बेटी की इतनी गंभीर टिप्पणी पर कायदे से उसे सार्वजनिक रूप से फटकार लगानी चाहिए थी। पर उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। इसका मतलब यही है कि अपनी बेटी की अभद्र टिप्पणी में उनकी पूरी सहमति थीI तो यही माना जाए न कि राणा अपनी बेटी के विचारों के साथ खड़े हैं? अब तो यही लगता है कि उनकी बेटियां भी उन्हीं के विचारों को प्रचारित कर रही हैं।
दरअसल मुनव्वर राणा की शायरी का कोई ठोस आधार भी नहीं है। उन्होंने ‘मुहाजिरनामा’ नाम से एक गजल कही है। यह उन लोगों का कथित दर्द बयां करती कृति है जो बंटवारे के वक़्त भारत से पाकिस्तान चले गए थे। उनको वहां के लोगों ने मुहाजिर कहकर बुलाना शुरू कर दिया। पर क्या मुनव्वर राणा को पता है कि वे जिनके हक में शायरी कर रहे हैं, उन्हें कभी किसी ने भारत छोड़ने के लिए कहा था क्या? क्या उन्हें इस बात की जानकारी है कि मुहाजिरों ने कराची में जाकर उलटे सिंधी हिन्दुओं को मारा भी था? ये मुहाजिर ही पाकिस्तान आंदोलन को ताकत दे रहे थे। जब इन मुहाजिरों ने स्थानीय सिंधी, बलोच और पंजाबी बिरादरियों के हकों को मारना चालू किया और उसका स्वाभाविक विरोध हुआ तो उन्हें भारत वापस आने की इच्छा सताने लगी। तब उन्हें जन्नत की हकीकत समझ में आई। उन्हें तो अब भी पाकिस्तान में दोयम दर्जे का नागरिक मानते हैं। पर इससे क्या होता है। कहते हैं कि लम्हों ने खता की थी और सदियों ने सजा पाई। अब उन्हें क्रूर इस्लामिक देश पाकिस्तान में ही मुहाजिर बनकर रहना होगा।
बहरहाल बात यह है कि राममंदिर मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले और फिर राममंदिर के शिलान्यास के बाद मुनव्वर राणा और असदुद्दीन ओवैसी जैसे सांप्रदायिक लोगों का दर्द सबके सामने आ गया है। ये राममंदिर का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से विरोध कर रहे हैं। राममंदिर निर्माण की प्रक्रिया चालू होने के साथ ही इन्हें भारत की धर्मनिरपेक्षता खतरे में नजर आने लगी है। इन्हें तब सबकुछ सही लग रहा था जब कश्मीर घाटी के लाखों हिन्दुओं को उनके अपने घर से निकाला गया था। तब राणा और ओवैसी जैसों की जुबानें सिल गई थीं। या यूँ कहें कि ये मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे- जश्न मना रहे थे। ये सब देश देख रहा है। क्या देश कभी इन दोगले चरित्र के नेताओं को अब कभी सम्मान के भाव से देखेगा? सवाल ही नहीं उठता।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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