– आर.के. सिन्हा
हर बार की तरह इस लोकसभा चुनाव में भी अपने को राजनीति का विद्वान बताने वाले ज्ञानियों ने किस संसदीय क्षेत्र में किसके हक में बयार बह रही है, इस विषय पर लिखना-बताना शुरू कर दिया है। वे अपना विश्लेषण रखते हुए बताते हैं कि वहां ( उस संसदीय क्षेत्र में ) इतने फीसद क्षत्रिय, ब्राह्मण, दलित, पिछड़े, अति पिछड़े, यादव वगैरह हैं। यहां तक तो सब ठीक है। पर जातियों का गणित बताने वाले मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों की जातियों पर मौन ही रहते हैं। उन्हें जातियों के कोढ़ के बारे में सिर्फ हिन्दुओं की ही चर्चा करनी होती है। उन्हें लगता है कि मानों जातियां सिर्फ हिन्दू धर्म में ही हैं। जैसे कि बाकी धर्मावलंबी किसी जात-पात में यकीन नहीं करते। इससे एक बात बहुत साफ हो जानी चाहिए हमारे यह कथित विद्वान देश की जमीनी हकीकत से कितने नावाकिफ हैं। उन्हें यह मालूम ही नहीं है कि जाति भारत का सच है। कोई इंसान अपना धर्म बदल सकता है, पर जाति उसके साथ हमेशा रहती है। वह जाति से अपने को दूर नहीं कर पाता है। राममनोहर लोहिया यह बात बार-बार कहा करते थे।
अगर बात मुसलमानों की करें तो सब जानते हैं कि मुसलमान अशराफ, अजलाफ और अरजाल श्रेणियों में बंटे हैं। शेख, सैयद, मुगल और पठान अशराफ कहे जाते हैं। अशराफ का मतलब है, जो अफगान-अरब मूल के या हिन्दुओं की अगड़ी जातियों से धर्मांतरीत मुसलमान हैं। अजलाफ पेशेवर जातियों से धर्मांतरित मुसलमानों का वर्ग है। एक तीसरा वर्ग उन मुसलमानों का है,जिनके साथ शेष मुसलमान भी संबंध नहीं रखते। इन्हें ही पसमांदा मुसलमान कहते हैं। हालांकि इस्लाम में जाति का विचार तो नहीं है। इस्लाम जाति के कोढ को ललकारता भी है। इसके बावजूद सारा मुसलमान समाज जाति के दलदल में फंसा है। मुसलमानों में अलग-अलग जातियों के अपने कब्रिस्तान तक हैं। राजधानी में पंजाबी मुसलमानों के कब्रिस्तान में गैर-पंजाबी मुसलमानों का प्रवेश निषेध है। शिया और सुन्नियों के तो प्राय: अपने अलग-अलग कब्रिस्तान तो होते ही हैं। शियाओं की अपनी मस्जिदें भी होती हैं। वे अन्य मस्जिदों में नहीं जाते। अपने को मुसलमानों का रहनुमा कहने वाले मुसलमान नेता भी पसमांदा मुसलमानों के मसलों को उठाने की जहमत नहीं दिखाते। मशहूर शायर मोहम्मद इकबाल बार-बार बताते थे कि उनके पुरखे हिन्दू पंडित थे।
खैर, अपने को बाबा साहब आंबेडकर का अनुयायी बताने वाले दलित नेताओं को शायद यह मालूम हो कि बाबा साहेब ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा को संबोधित करते हुए बहुत साफ शब्दों में कहा था, “जाति तो राष्ट्र विरोधी है। …पर, भारत में जातियों के असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इनसे समाज बिखरता है।”
भारत के कई राज्यों में ईसाई बहुमत में हैं और उन राज्यों के मुख्यमंत्री भी ईसाई हैं। पर इसका यह कतई मतलब नहीं है कि वहां जातियां नहीं हैं। ईसाई धर्म अनेक संप्रदायों में बिखरा हुआ है। ईसाई कैथोलिक, सीरियन, ओर्थोडोक्स, प्रोटेस्टेंट्स और अनेक असंगठित समूहों में फैला है। भारत में ईसाइयों का पहला प्रभावकारी स्वरूप कैथोलिक देश पुर्तगाल से 1498 ई. में पुर्तगालियों के आने से हुआ और ब्रिटिश, मूलत: एंग्लीकन या प्रोटेस्टेंट, का प्रभाव ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन 1757 से हुआ। उपर्युक्त सभी समूह स्वतंत्र हैं, परंतु अधिकांश लोगों द्वारा एक आस्था रखने वाले समूह के रूप में देखे जाते हैं। जब कभी भारतीय ईसाइयों की तरफ देखा जाए तो इन वास्तविकताओं को समझना चाहिए।
भारत में कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट के बीच की दूरियों को कम करने की कोशिशें चलती रहती हैं। दक्षिण भारत इस बाबत आगे रहा। वहां पर कैथोलिक चर्च तथा प्रोटेस्टेंट चर्च ने प्राकृतिक आपदा के समय मिल-जुलकर काम किया। मसलन केरल में कुछ साल पहले आई बाढ़ और सुनामी के समय दोनों चर्च मिलकर पीड़ितों के पुनर्वास के लिये काम कर रहे थे। यह सुखद पहल है। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच उस तरह की कतई कटुतापूर्ण स्थिति नहीं है जैसी हम मुसलमानों के सुन्नी और शिया संप्रदायों में देखते हैं। वहां पर तो कटुता ना होकर दुश्मनी है। उनमें आपस में हमेशा तलवारें खिंची रहती हैं। इस्लाम के नाम पर बने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में शियाओं की लगातार हत्याएं हो रही हैं। उन्हें दोयम दर्जे का इंसान माना जाता है। अफगानिस्तान में तालिबानियों ने हजारों शिया मुसलमानों का कत्लेआम किया है। ईरान और सऊदी अरब में कुत्ते-बिल्ली वाला बैर का मुख्य कारण यही है कि ईरान शिया और सऊदी सुन्नी मुसलमानों का मुल्क है।
दरअसल कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट में कुछ बिंदुओं पर मतभेद रहे हैं। कैथोलिक मदर मैरी की पूजा में भी विश्वास करते हैं। प्रोटेस्टेंट उन पर विश्वास नहीं करते हैं और उनके लिए मैरी केवल यीशु की भौतिक मां है। हां,दोनों संप्रदायों के लिये ईसा मसीह तथा बाइबिल परम आदरणीय हैं। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के लिए पवित्र दिन क्रिसमस और ईस्टर ही हैं।
सिख धर्म में जाति का मुद्दा काफी जटिल है। गुरु गोबिंद सिंह ने 13 अप्रैल, 1699 को खालसा की स्थापना के साथ सभी जातिगत असमानता को समाप्त कर दिया था। आस्थावान सिख जातिगत भेदभाव नहीं करते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी सिख आवश्यक रूप से अपनी आस्था के अनुसार कार्य करते हैं। नतीजतन, जाति सिख धर्म में मौजूद है, हालांकि शेष भारतीय समाज की तुलना में एक कमजोर रूप में। वैसे सिखों की कुछ प्रमुख जातियों में जाट, अरोड़ा, खत्री, रामगढि़या, सैनी, छिम्बा आदि हैं। अब बड़ा सवाल वही है कि लोकसभा से लेकर ग्राम पंचायत के चुनावों में जातियों के महत्व पर बात करने वालों को सिर्फ हिन्दुओं की ही जाति क्यों दिखाई देती है। क्या उन्हें अन्य धर्मों में जाति के असर की जानकारी नहीं है या वे अपनी निगाहें सिर्फ हिन्दू धर्म से आगे लेकर ही नहीं जाना चाहते?
इससे साफ है कि बहुत सारे स्वयंभू विद्वान अपने को प्रगतिशील साबित करने के लिए हिन्दू धर्म में फैली गड़बड़ियों पर लिखते-बोलते हैं। यह सब करके वे अपने को पूरी तरह से एक्सपोज कर लेते हैं। अगर कोई लेखक बेखौफ होकर ईमानदारी से नहीं लिखता है तो समझ लें कि वह सच्चा लेखक नहीं है। खैर, यह सुखद है कि हिन्दू धर्म में जाति के कोढ़ के खिलाफ अरसे से आवाजें उठती रही हैं। हिन्दू धर्म में जात-पात के खिलाफ बहस चलती रहती है। यही हिन्दू धर्म की शक्ति भी है।
(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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