नई दिल्ली। उपराष्ट्रपति चुनाव (vice president election) के लिए एनडीए की तरफ से उम्मीदवार के एलान के एक दिन बाद ही संयुक्त विपक्ष ने भी अपने प्रत्याशी की घोषणा कर दी है। राकांपा नेता शरद पवार (Sharad Pawar) ने रविवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बताया कि विपक्ष की तरफ से इस बार मार्गरेट अल्वा (Margaret Alva) उपराष्ट्रपति पद की दावेदार होंगी।
आल्वा के नाम के एलान के साथ ही इस बात पर भी चर्चा शुरू हो गई कि आखिर वे हैं कौन? एनडीए की ओर से उम्मीदवार बनाए गए जगदीप धनखड़ के मुकाबले आल्वा का राजनीतिक अनुभव कितना है? इसके अलावा विपक्ष ने आखिर क्यों उन्हें उपराष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार बनाने का फैसला किया है?
कौन हैं मार्गरेट अल्वा?
मार्गरेट आल्वा का जन्म 14 अप्रैल 1942 को कर्नाटक के मंगलुरु जिले के दक्षिण कनारा में हुआ था। इस लिहाज से मौजूदा समय में उनकी उम्र 80 साल के पार है। अल्वा कर्नाटक के एक इसाई परिवार से आती हैं। उनकी शुरुआती शिक्षा कर्नाटक में ही हुई। उन्हें बेंगलुरू के माउंट कारमेल कॉलेज से बीए की डिग्री हासिल की और इसके बाद गवर्मेंट लॉ कॉलेज से कानून की पढ़ाई की। उनका विवाह 1964 में निरंजन थॉमस अल्वा से हुआ था। दोनों के एक बेटी और तीन बेटे हैं।
अल्वा की राजनीति में एंट्री 1969 में हुई। दरअसल, उनके ससुर वॉकिम अल्वा और सास वॉयलेट अल्वा लंबे समय से कांग्रेस से जुड़े थे और सांसद थे। ऐसे में राजनीति में एंट्री लेने में उन्हें खास दिक्कत नहीं हुई। यह वही दौर था, जब कांग्रेस के दो धड़ों के बीच विवाद चरम पर था और इसमें सिंडिकेट के वर्चस्व वाली कांग्रेस (ओ) और इंदिरा गांधी के नियंत्रण वाली कांग्रेस (आई) के अस्तित्व को लेकर विवाद जारी था। अल्वा ने इस मौके पर खुद को इंदिरा गांधी के धड़े के साथ रखा। इंदिरा ने उन्हें कर्नाटक की राज्य इकाई को संभालने का मौका दिया। बाद में कांग्रेस के इंदिरा गांधी के पास जाने का फायदा मार्गरेट अल्वा को जबरदस्त तौर पर मिला। संगठन में तो उनका कद बढ़ा ही, साथ में पार्टी ने उन्हें राज्यसभा भी भेजने का फैसला कर लिया।
संगठन में कितना रहा जोर?
इंदिरा गांधी सरकार में 1975 से 1977 (इमरजेंसी के दौरान) मार्गरेट अल्वा को ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) की संयुक्त सचिव और फिर 1978 से 1980 तक कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस कमेटी (केपीसीसी) की महासचिव का पदभार सौंप दिया गया।मार्गरेट अल्वा 1974 से लगातार चार बार छह-छह साल की अवधि के लिए राज्यसभा से निर्वाचित हुईं। 1984 की राजीव गांधी सरकार में उन्हें संसदीय मामलों का केंद्रीय राज्य मंत्री बनाया गया। बाद में अल्वा ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय में युवा मामले, खेल, महिला एवं बाल विकास के प्रभारी मंत्री का पद संभाला।
1991 में उन्हें कार्मिक, पेंशन, जन परिवेदना और प्रशासनिक सुधार (प्रधानमंत्री से सम्बद्ध) की केंद्रीय राज्य मंत्री बनाई गईं। कुछ समय के लिए उन्होंने विज्ञान एवं तकनीकी मंत्री के रूप में भी काम किया। इसके अलावा उन्होंने कई संसदीय कमेटियों में भी काम किया। राज्यसभा सदस्यता खत्म होने के बाद 1999 में कांग्रेस ने उन्हें उत्तर कन्नड़ सीट से लोकसभा चुनाव के लिए टिकट दिया। उन्होंने 2004 में भी सांसदी के लिए चुनाव लड़ा। हालांकि, इसमें उन्हें हार मिली थी। इसके बावजूद उनका राजनीतिक कद कमजोर नहीं हुआ। 2004 से 2009 तक अल्वा एआईसीसी में महासचिव के पद पर रहीं और पार्लियामेंट्री स्टडीज एंड ट्रेनिंग ब्यूरो में सलाहकार के पद पर रहीं। यह ब्यूरो सभी चुने हुए सांसदों के साथ राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर काम करता है।
अल्वा का पार्टी शीर्ष नेतृत्व से विवाद नवंबर 2008 में सामने आया था। तब उन्होंने आरोप लगाया था कि कर्नाटक में चुनाव के लिए कांग्रेस की सीटें बोली लगाने वालों के लिए खुली हैं। इन्हें मेरिट के आधार पर नहीं दिया जा रहा। उनके इन आरोपों पर कांग्रेस आलाकमान ने सख्त आपत्ति जताई थी। इसके बाद उन्हें पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ बैठक के लिए बुलाया गया। रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस बैठक में अल्वा और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के बीच विवाद और ज्यादा बढ़ गया और इस मीटिंग के बाद ही उन्होंने या तो कुछ पदों से इस्तीफा दे दिया या पार्टी ने उन्हें हटा दिया। हालांकि, बाद में कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज करने के बाद अल्वा से सुलह कर ली। राज्यपाल के तौर पर मार्गरेट अल्वा का कार्यकाल अगस्त 2009 में शुरू हुआ। उन्हें उत्तराखंड का राज्यपाल बनाया गया। अल्वा इस राज्य की पहली महिला राज्यपाल रहीं। हालांकि, इस दौर में वे सक्रिय राजनीति से अलग-थलग पड़ गईं। मई 2012 तक इस पद परहने के बाद उन्हें राजस्थान का गवर्नर नियुक्त किया गया। वे अगस्त 2014 तक राजस्थान की राज्यपाल रहीं।
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