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    किस करवट बैठेगा तालिबान !

  • April 19, 2021

     

    अरविंद कुमार शर्मा

    अफगानिस्तान में कट्टरपंथी तालिबान से करीब 20 साल तक लड़ने के बाद इस साल अमेरिका का आखिरी सैनिक भी सितंबर में वहां से वापस लौट जायेगा। अमेरिका और तालिबान के बीच पिछले दिनों हुए एक समझौते के बाद ऐसा हो रहा है। समझौते के मुताबिक, अब अफगानिस्तान में शांति कायम करने में तालिबान भी सहयोगी होगा और वहां की राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदार बनेगा। इस साल 29 फरवरी को कतर की राजधानी दोहा में हुए समझौते के मुताबिक, तालिबान अपने यहां अलकायदा जैसे संगठनों को पनाह नहीं देगा, जो अमेरिका के लिए परेशानी खड़ा करें।

    तालिबान अपने वादे पर कितना कायम रहेगा, यह तो भविष्य की बात है। इतना जरूर है कि अफगानिस्तान में मौजूद विदेशी सैनिकों पर हमले बंद हो गए हैं, पर इसके विपरीत स्थानीय लोगों की मुसाबतें फिर से बढ़ने लगी हैं। फिर तालिबान ने भी समझौते की भाषा छोड़ यह एलान कर दिया है कि इस युद्ध में उसने अमेरिका को हरा दिया है। ऐसे में यह विश्लेषण स्वाभाविक है कि 2001 के बाद से अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी से स्थानीय लोगों को क्या मिला। यह कैसे हुआ कि ताकतवर देश अमेरिका लगभग हार की स्थिति में अफगानिस्तान से वापस हो रहा है। इस हलचल का पड़ोसी भारत और पाकिस्तान पर क्या असर होगा?

    अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के करीबी और सीनेट आर्म्ड सर्विस कमेटी के अध्यक्ष जैक रीड ने अमेरिकी कांग्रेस में कहा है कि तालिबान की सफलता में तालिबान को पाकिस्तान में मिल रही सुरक्षित पनाह मददगार बनी हैं। तालिबान के इन पनाहगारों को खत्म करने में अमेरिका विफल रहा। हाल के एक अध्ययन के मुताबिक, पाकिस्तान में तालिबान के सुरक्षित अड्डे और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई जैसे संगठनों के जरिए तालिबान को मजबूती मिली। वर्ष 2018 में अमेरिकी सहयोग से एक अफगानिस्तानी अध्ययन के अनुसार पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में तालिबानियों को सैन्य और खुफिया सहयोग प्रदान किया। इसके परिणामस्वरूप अमेरिकी सैनिक, अफगानी सुरक्षा बल के जवान और वहां के नागरिक मारे गये। यहां ज्ञातव्य है कि अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान सहयोगी बना हुआ था। जैक रीड कहते हैं कि यह विरोधाभासी स्थिति रही। पाकिस्तान ने बहुत बड़ी आर्थिक मदद के बदले हमें अपने हवाई क्षेत्र और अन्य सुविधाओं का उपयोग तो करने दिया, पर तालिबानियों की भी मदद करता रहा। अपने यहां पनाह पाए तालिबानी नेताओं को वह वार्ता के लिए राजी करता रहा किंतु वादे के विपरीत ऐसे पनाहगारों को संरक्षण भी देता रहा। जैक रीड को इस बात की तकलीफ है कि अमेरिका पाकिस्तान में तालिबानी अड्डों को नष्ट नहीं कर पाया।


    अब अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों के लौटने के बाद अपने अच्छे रिश्तों के कारण पाकिस्तान तालिबानियों से दोस्ती की स्थिति में रहेगा। यह अफगानिस्तान के अंदर दूसरे पक्ष (चुनी हुई सरकार) से उसकी दूरी को और अधिक बढ़ाएगी। जहां तक भारत की बात है, हमने अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार से ही रिश्ते रखे हैं। यही नहीं, वहां की संसद, कई बांध और सड़क निर्माण सहित बड़ी परियोजनाओं में भारत सहयोगी है। उसका विपुल धन, संसाधन और इंजीनियर लगे हुए हैं। शांति समझौते के मुताबिक तालिबान भी वहां की व्यवस्था में भागीदार हुआ तो भारत को दिक्कतें हो सकती हैं। फिर वह नए सिरे से तालिबान से रिश्ते बनाना चाहे तो पाकिस्तान को असहजता होगी।

    बहरहाल, एक आंकड़े के मुताबिक, पिछले करीब 20 साल में तालिबान के विरुद्ध जारी युद्ध में अमेरिका के करीब दो हजार 300 सैनिक मारे गए। संघर्ष के दौरान 20 हजार से भी अधिक अमेरिकी सैनिक चोटिल हुए हैं। इसके मुकाबले अफगानी नागरिकों और सेना को कहीं अधिक नुकसान हुआ है। राष्ट्रपति अशरफ गनी ने 2009 में ही स्वीकार किया था कि सिर्फ पांच साल में 45 हजार अफगानी सैनिकों ने इस संघर्ष में जान गंवाई है। ब्राउन यूनिवर्सिटी ने अपने एक शोध में 2001 के बाद 64 हजार से भी अधिक अफगानियों के मारे जाने की जानकारी दी थी। अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र के मिशन के मुताबिक तो यह संख्या एक लाख, 11 हजार से भी अधिक है।

    जहां तक खर्च की बात है, अमेरिका ने अफगानिस्तान में इस दौरान 143 अरब, 27 करोड़ डॉलर खर्च किए हैं। अमेरिका ने 36 अरब डॉलर अफगानिस्तान सरकार और विकास योजनाओं पर लगाए तो अफगानिस्तान नेशनल आर्मी और वहां के पुलिस बल के प्रशिक्षण पर भी भारी रकम खर्च की है। यह सब कुछ अफगानिस्तान के बहाने दुनिया से कट्टरपंथ के असर को कम करने के लिए हुआ। अब जबकि अफगानिस्तान की व्यवस्था में तालिबान भागीदार होगा, बहुत कुछ उसके अगले रुख पर निर्भर करेगा।

     

     

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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