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छोडक़र हमें कहां जाओगे… जहां जाओगे हमें पाओगे…

  • March 24, 2025

    पिता की वाणी…
    मैं हूं… यहीं कहीं हूं… संस्कार के रूप में… शिक्षा के स्वरूप में… निर्भिकता… निडरता और निष्पक्षता के
    शब्दों में… जब तक यह हैं… मैं यहीं रहूंगा…

    लोग परमपिता को खोजते हैं…मुझे अपने पिता में परम नजर आते हैं… लोग मंदिरों में जाते हैं… मेरे पिता मेरे घर को मंदिर बनाते हैं… लोग मूर्तियों के आगे सर झुकाते हैं… मुझे अपने पिता में ही शिल्पकार के दर्शन हो जाते हैं… मुझे उनकी लगन याद आती है… मुझे उनकी नजरें अब समझ में आती हैं… मुझे उनकी तन्मयता और समर्पण के उन पलों का अहसास होता है, जो वो मुझमें कुछ खोज रहे थे…मेरे भविष्य को गढ़ रहे थे… मेरी बुनियाद को रच रहे थे… जब वो स्वयं को समर्पित कर रहे थे, तब मैं आकार ले रहा था… मैं उनका अंश हूं… मैं उनका वंश हूं, इस गौरव की अनुभूति मुझे हर पल होती है… उनकी देह से बिछुड़े हुए आज 42 वर्ष हो गए, उनकी आत्मा आज भी हमारे ईर्द-गिर्द विचरण करती है… उनकी स्मृति किसी खजाने की तरह मेरे जेहन में रहती है… वो मेरी प्रेरणा ही नहीं, मेरे पूज्य ही नहीं, मेरी ऐसी विरासत हैं, जिनकी सोच, जिनके आदर्श, जिनके संकल्प की हिफाजत करना मेरे जीवन का लक्ष्य बचा है…अपने जीवन के अल्प समय में ही उन्होंने बिना किसी गुरुदक्षिणा के ऐसा ज्ञान दिया, जो किसी ग्रंथ में नहीं मिल सकता… पिता का यह परम हर किसी की जिंदगी में होता है, लेकिन उस परम सुख को पहचानना, उसे नवाजना, उस राह पर चल पाना हर किसी के सौभाग्य में नहीं होता है… हमारा सौभाग्य है कि हमने त्रेता, द्वापर और सतयुग की धरती भारत भूमि पर जन्म लिया… जहां संस्कार में पिता और दुलार में माता का सौभाग्य मिला…मां वो होती है, जिसका हम अंश तो होते हैं, पर उसका कोई वंश नहीं होता… और पिता वो होता है, जो केवल अपने पुत्र के लिए स्वयं को समर्पित कर देता है… उसे मूर्ति बनाने के लिए ज्ञान और उसूलों की छैनी चलाते हुए उसका दिल कई बार खून के आंसू रोता है, लेकिन शिल्पकार पुत्र के जीवन को गढक़र ही दम लेता है…इस शिल्प को गढऩे में वो खुद पत्थर हो जाता है… अपने जीवन के सारे सुख झोंक डालता है… कांटों की शय्या पर सोकर वो द्रोण बन जाता है…और जाते-जाते अपनी अयोध्या हमें सौंप जाता है…ऐसे ही थे मेरे बाबूजी… इस अखबार के जनक और प्राण-पुरुष स्व. नरेशचंदजी चेलावत… आज बच्चे अपने पिता को डैडी या पापा कहकर बुलाते हैं… कई बच्चे तो पिता का नाम लेने में भी नहीं हिचकिचाते हैं, लेकिन हम उन्हें बाबूजी कहकर श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, अनुराग और अधिकार का वो सुख पाते थे, जो किसी और संबोधन में नहीं हो सकता…उनके इस संबोधन में ‘जी’ शब्द भी जुड़ा हुआ होता था, जो उन्हें उनके समर्पण के बदले सम्मान की पुष्टि कराता था… बाबूजी शुरू से कर्मठ, लगनशील और मेहनती रहे ही, लेकिन वे जिद्दी और स्वाभिमानी भी थे… वो हमें यह बताने में भी नहीं हिचकिचाते थे कि उन्होंने अपने बीते दिन ट्रेन में रात काटकर गुजारे…नौकरी कर निकाले और रोज कमाने और खाने की गर्दिशों से जूझते हुए भूखे रहकर भी बिताए…इतना ज्ञान-भर काफी था हमारे लिए… कि हमें अपने पिता के संघर्षों को समझना है… बिना अंधकार आगे बढऩा है…हर वक्त इस बात से डरना है कि वक्त हर वक्त परीक्षा लेता है और गुरु का ज्ञान ही इस परीक्षा की सफलता का माध्यम रहता है… लिहाजा हम अपने गुरु के ज्ञान और उनके बताए मार्ग पर चलते रहे..शुरू में अग्निबाण का जन्म मुझे अपने पिता की सनक और जिद का नतीजा नजर आया… जीवन की परवाह किए बिना अपने इस संकल्प को साकार करने के लिए दिन-रात जुटे रहना…न भूख न प्यास का ख्याल रखना… खाली जेब और खाली पेट के साथ इस अखबार को पैरों पर खड़ा करने की जद्दोजहद का साक्षी रहा मेरा बचपन या यूं कहें जवानी की ओर बढ़ते कदम कभी लडख़ड़ाते थे तो कभी सहारा बांधते थे और ऐसे में पसीने से लथपथ थके-मांदे होकर भी वो उंगली पकडक़र राह पर चलाने के लिए आ जाते थे… अब ऐसे इंसान को कौन ईश्वर नहीं मानेगा…कौन उनमें पिता के साथ परम नहीं निहारेगा…मैं निहारता रहा…मैं मानता रहा…जो राह वो दिखाते उन पर कदम बढ़ाता गया…पता ही नहीं चला किताबों की जगह कब कलम हाथ आ गई…और स्कूल की जगह कब दफ्तर विश्वविद्यालय बन गया…सब कुछ चलता रहा… जिस शहर में कोई यह नहीं जानता था कि शाम का अखबार भी होता है, वहां नई परंपरा बनाना, नई जरूरत जगाना और लोगों के जीवन का हिस्सा बन पाना इस चमत्कार को हमारे बाबूजी ने साकार कर दिखाया…शहर शाम के अखबार की चाहत से सराबोर हो गया…हर शख्स शाम के अखबार, यानी अग्निबाण का इंतजार करने लगा… उनका सपना साकार होने लगा… लेकिन वक्त किसी और उधेड़बुन में हमारे सपने को तोडऩे में जुट गया… शरीर के साथ निष्ठुरता दिखाते, जरूरत से ज्यादा स्वयं पर बोझ डालते…जागते हुए जिंदगी गुजराते हमारे बाबूजी को दिल दगा दे गया… यकायक आज ही के दिन अपना सपना हमें सौंपकर महाप्रयाण कर गए…हम हतप्रभ रह गए…खोने का गम आंसू बनकर आंखों से निकलने के बजाय दिल में पीड़ा दे रहा था…अब क्या होगा जैसी सोच और उनकी देह के सामने खड़ा था… और जवाब भी वही था- अब शिल्प, यानी हमें संघर्ष करना है…संकल्प को लक्ष्य बनाकर बढऩा है…वो कहते थे कोई रहे-न रहे अखबार रहना चाहिए… लिहाजा उनके महाप्रयाण के दिन को भी साकार करते हुए सुबह देह क्रिया के बाद शाम को अखबार निकालकर इस शहर में उनका संदेश इस अखबार के लाखों पाठकों तक पहुंचा दिया कि वो यहीं हैं… यहीं कहीं हैं…वो इस अखबार में अमर रहेंगे…तब से लेकर आज तक अग्निबाण का हर शब्द केवल विचार या समाचार नहीं, बल्कि उनकी प्रेरणा, सत्य, निर्भीकता, निडरता और पाठकों के प्रति हमारी निष्ठा का प्रमाण होता है…यह व्यवसाय नहीं आभास है…यह अखबार नहीं विश्वास है…हम सत्य लिखते ही नहीं, बल्कि सत्य पर चलते भी हैं…इस सच्चाई की ताकत हमारे वो लाखों पाठक हैं, जो हमें हर दिन अपनेपन का अहसास कराते हैं और हमारे बाबूजी हमारा संबल बढ़ाते हैं…वर्ष बीते, युग बीते, पिता का प्रेम कभी आंका नहीं जाएगा… उनके होने का अहसास हर बेटे का हौसला बढ़ाएगा… मंदिरों में ईश्वर को पाना भले ही मुश्किल है, मगर जो श्रद्धा से अपने दिल में झांक पाएगा उसे अपना ईश्वर वहीं नजर आएगा…सफलता का यही माध्यम है…यही सीढ़ी है…जीवन में यदि गुरु मिल जाए और पिता ही गुरु बन जाए और ऐसे गुरु को बच्चे समझ पाएं तो ज्ञान की मोहताजी समाप्त हो जाती है…संघर्ष की शैली बदल जाती है…राहें आसान हो जाती हैं…मंजिलों की चाहत खत्म हो जाती है और सफर ही मंजिल बन जाता है… सफर पर कई मुकाम आते हैं…संघर्षों के कांटे नजर आते हैं…लेकिन ऐसे में गुरु के ज्ञान रास्ता दिखाते हैं… समय बदल रहा है…या यूं कहें समय बदल गया…बच्चे पिता को ज्ञान सिखाते हैं… पिता भी लाचार हो जाते हैं… बच्चों की राह पर चलने लग जाते हैं… उनके अनुभव और ज्ञान विवशता की बलि चढ़ जाते हैं और इसीलिए बच्चे नए संघर्ष के कांटों में उलझ जाते हैं…हमने अपने प्राण-पुरुष से स्वयं को समर्पित कर राह का ज्ञान पाया है…किसी भी व्यवसाय की सफलता के लिए…किसी भी लक्ष्य के मुकाम के लिए…किसी भी सफर की मंजिल के लिए लोग तन-मन-धन लगाते हैं, लेकिन अग्निबाण वो साकार स्वरूप है, जिसमें बाबूजी नेे अपने प्राण लगाए हैं…उनके प्राणों से सिंचित यह पौधा शब्द सरोवर का, मान-सम्मान का… निर्भीकता -निडरता का वह वटवृक्ष बन चुका है, जिसकी छाया में हम हैं…

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    इन्दौर में होटल किराए पर लेकर ड्रग्स और देह व्यापार का अड्डा चलाने वाले धराए

    Mon Mar 24 , 2025
    52 ग्राम एमडी ड्रग्स जब्त, कई युवतियों के नाम-पते भी मिले इंदौर। क्राइम ब्रांच (Crime Branch) ने एक ऐसे होटल संचालक (Hotel Operator) को गिरफ्तार किया है, जो किराए पर होटल लेकर वहां ड्रग्स ( drug) और देह ( prostitution) व्यापार का कारोबार करता था। उसके पास से पुलिस ने 52 ग्राम एमडी ड्रग्स जब्त […]
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