नई दिल्ली। अगर आप पटाखों का इतिहास खोजने निकलेंगे तो सीधा चीन पहुंच जाएंगे. बारूद (Gunpowder) का जन्म चीन में ही छठी से नौंवी सदी के बीच हुआ. तांग वंश के समय बारूद की खोज हुई यानी पटाखे, जो सही मायनों में आतिशबाजी है उसका जन्म भी चीन में ही हुआ.
शुरुआती समय में चीन (China) के लोग बांस को जब आग में जलाते, तो उसमें मौजूद एयर पॉकेट्स फूटने लगते. ये धरती पर मौजूद प्राकृतिक पटाखा कहा जाए, तो गलत नहीं. चीनी मान्यता है कि इससे बुरी शक्तियों (evil forces) का नाश होता है.
फिर आई बारूद से पटाखा बनाने की बारी. चीन में पोटेशियम नाइट्रेट, सल्फर और चारकोल (Potassium Nitrate, Sulfur and Charcoal) को मिलाकर पहली बार बारूद बनाया गया. इसे बांस के खोल में भरकर जब जलाया गया, तो विस्फोट पहले से तगड़ा हुआ. कालांतर में बांस की जगह कागज ने ले ली.
बारूद का भारत (India) आगमन हुआ, मुगलों के साथ. पानीपत का प्रथम युद्ध, उन पहली लड़ाइयों में से एक थी जिसमें बारूद, आग्नेयास्त्र और तोप (ammo, firearms and cannon) का इस्तेमाल हुआ. बाबर के तोपखाने के आगे इब्राहिम लोधी (Ibrahim Lodhi) टिक ना सका और इस तरह बाबर युद्ध जीत गया.
पानीपत के पहले युद्ध यानी 1526 के बाद बारूद से जब भारत का परिचय हो गया. तो आतिशबाजी (Fireworks) भी यहां पहुंची. अकबर का समय आने तक आतिशबाजी शादी-ब्याह और उत्सवों का हिस्सा बनने लगी. आतिशबाजी राजसी ठाठ-बाट की पहचान के साथ जुड़ता चला गया.
बारूद महंगा था, इसलिए लंबे समय तक ये राजसी घरानों, अमीर लोगों के मनोरंजन का ही साधन रहा. पहले शादी-ब्याह में आतिशबाजी से तरह-तरह के करतब दिखाने वाले कलाकार हुआ करते थे, जिन्हें आतिशबाज कहा जाता था.
आज भारत में तमिलनाडु (Tamil Nadu) का शिवकाशी पटाखा बनाने का सबसे बड़ा केंद्र है. लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था. मॉर्डन पटाखे बनाने का काम अंग्रेजी सरकार (english government) के दौर में कलकत्ता में हुआ.
अंग्रेजी सरकार में बंगाल उद्योग का केन्द्र था. वहां माचिस की फैक्टरी थी, जहां बारूद इस्तेमाल होता था. यहीं पर आधुनिक भारत की पहली पटाखा फैक्टरी लगी, जो बाद में शिवकाशी ट्रांसफर पहुंच गई.
19वीं सदी में एक मिट्टी की छोटी मटकी में बारुद भरकर पटाखा बनाया जाता था. जब उसे जमीन पर पटका जाता, तो रोशनी और आवाज होती. शायद ‘पटकने’ से ही ‘पटाखा’ शब्द भी आया. इसे तब ‘भक्तापू’ या ‘बंगाल लाइट्स’ कहा जाता था.
पटाखों के शिवकाशी पहुंचने की कहानी भी दिलचस्प है. पी. अय्या नादर और उनके भाई शांमुगा नादर 1923 में अपनी आजीविका के लिए बंगाल की एक माचिस फैक्टरी में काम करने पहुंचे. वहां उन्होंने माचिस बनाने का कौशल विकास किया.
कलकत्ता से आठ महीने बाद जब नादर बंधु शिवकाशी लौटे, तो जर्मनी से मशीनें मंगाकर अनिल ब्रांड और अय्यन ब्रांड की माचिस बनाने का काम शुरू किया. बाद में उन्होंने आतिशबाजी बनाई और देखते ही देखते शिवकाशी भारत की Firework Capital बन गया.
साल 1940 में अंग्रेज सरकार ने इंडियन एक्प्लोसिव कानून बनाया. इसके बाद आतिशबाजी बनाने से लेकर रखने तक के लिए लाइसेंस की जरूरत पड़ने लगी. इसलिए आतिशबाजी की पहली आधिकारिक फैक्टरी 1940 में ही बनी.
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