– योगेश कुमार गोयल
मध्य प्रदेश में गहरे बोरवेल में गिरी डेढ़ वर्षीया बच्ची को 10 घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद पुलिस तथा राज्य आपदा आपातकालीन रिजर्व बल (एसडीईआरएफ) ने सुरक्षित बाहर निकाल लिया। घटना 16 दिसंबर की है, जब भोपाल से करीब 350 किलोमीटर दूर छतरपुर जिले के नौगांव थाना क्षेत्र में राकेश कुशवाहा की बेटी दिव्यांशी खेत में खेलते हुए 80 फुट गहरे बोरवेल में गिर गई। बोरवेल में बच्ची के गिर जाने पर जोर-जोर से रोती उसकी मां की आवाज सुनकर जब आसपास के लोग मौके पर पहुंचे तो किसी ने स्थानीय पुलिस को इसकी सूचना दी। बच्ची 80 फुट गहरे बोरवेल में करीब 15 फीट की गहराई पर फंसी हुई थी, जिसे बचाव दल द्वारा ऑक्सीजन सपोर्ट दिया गया और बच्ची की हर गतिविधि पर नजर रखने के लिए बोरवेल में सीसीटीवी कैमरे डाले गए। आखिरकार बचाव टीमों द्वारा 17 दिसंबर की सुबह करीब एक बजे बच्ची को बोरवेल से सही-सलामत निकाला गया।
भोपाल की दिव्यांशी को तो बचाव दल ने कड़ी मशक्कत के बाद बचा लिया लेकिन बोरवेल में गिरने वाला हर बच्चा दिव्यांशी जितना भाग्यशाली नहीं होता। हर साल बोरवेल में बच्चों के गिरने के अबतक कई मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें से अधिकांश की बोरवेल के भीतर ही दम घुटकर मौत हो जाती है। चिंता की बात यह है कि ऐसे हादसों पर पूर्णविराम लगाने के लिए कहीं कोई कारगर प्रयास होता नहीं दिखता। बोरवेल हादसे पिछले कुछ वर्षों से जागरूकता के बावजूद निरन्तर सामने आ रहे हैं किन्तु इनसे सबक सीखने को कोई तैयार नहीं दिखता। ऐसे मामलों में अक्सर सेना-एनडीआरएफ की बड़ी विफलताओं को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं कि अंतरिक्ष तक में अपनी धाक जमाने में सफल हो रहे भारत के पास चीन तथा कुछ अन्य देशों जैसी वो स्वचालित तकनीक क्यों नहीं है, जिनका इस्तेमाल कर ऐसे मामलों में बच्चों को अपेक्षाकृत काफी जल्दी बोरवेल से बाहर निकालने में मदद मिल सके।
सवाल यह है कि आखिर बार-बार ऐसे दर्दनाक हादसों के बावजूद देश में बोरवेल और ट्यूबवैल के गड्ढे कब तक इसी प्रकार खुले छोड़े जाते रहेंगे। कब तब मासूम जानें इनमें फंसकर इसी तरह दम तोड़ती रहेंगी। कोई भी बड़ा हादसा होने के बाद प्रशासन द्वारा बोरवेल खुला छोड़ने वालों के खिलाफ अभियान चलाकर सख्ती की बातें तो दोहरायी जाती हैं लेकिन बार-बार सामने आते ऐसे हादसे यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि सख्ती की ये सब बातें कोई घटना सामने आने पर लोगों के उपजे आक्रोश के शांत होने तक ही बरकरार रहती हैं। ऐसे हादसों के लिए बोरवेल खुला छोड़ने वाले खेत मालिक के साथ-साथ ग्राम पंचायत और स्थानीय प्रशासन भी बराबर के दोषी होते हैं।
मध्य प्रदेश के देवास जिले में खातेगांव कस्बे के उमरिया गांव में हीरालाल नामक व्यक्ति को अपने खेत में सूखा बोरवेल खुला छोड़ देने के अपराध में जिला सत्र न्यायालय ने करीब दो साल पहले दो वर्ष सश्रम कारावास तथा 20 हजार रुपये अर्थदंड की सजा सुनाई थी। अदालत ने अपने आदेश में कहा था कि लोग बोरवेल कराकर उन्हें इस प्रकार खुला छोड़ देते हैं, जिससे उनमें बच्चों के गिरने की घटनाएं हो जाती हैं और समाज में बढ़ रही लापरवाही के ऐसे मामलों में सजा देने से ही लोगों को सबक मिल सकेगा। अगर मध्य प्रदेश में जिला अदालत के उसी फैसले की तरह ऐसे सभी मामलों में त्वरित न्याय प्रक्रिया के जरिये दोषियों को कड़ी सजा मिले, तभी लोग खुले बोरवेल बंद करने को लेकर सक्रिय होंगे अन्यथा बोरवेल इसी प्रकार मासूमों की जिंदगी छीनते रहेंगे और हम मासूम मौतों पर घडि़याली आंसू बहाने तक ही अपनी भूमिका का निर्वहन करते रहेंगे।
अब तक अनेक मासूम जिंदगियां बोरवेल में समाकर जिंदगी की जंग हार चुकी हैं किन्तु विडंबना है कि सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देशों के बावजूद कभी ऐसे प्रयास नहीं किए गए, जिससे ऐसे मामलों पर अंकुश लग सके। देश में प्रति वर्ष औसतन 50 बच्चे बेकार पड़े खुले बोरवेलों में गिर जाते हैं, जिनमें से बहुत से बच्चे इन्हीं बोरवेलों में जिंदगी की अंतिम सांस लेते हैं। ऐसे हादसे हर बार किसी परिवार को जीवन भर का असहनीय दुख देने के साथ-साथ समाज को भी बुरी तरह झकझोर जाते हैं।
भूगर्भ जल विभाग के अनुमान के अनुसार देशभर में करीब 2.7 करोड़ बोरवेल हैं लेकिन सक्रिय बोरवेलों की संख्या, अनुपयोगी बोरवेलों की संख्या तथा उनके मालिक का राष्ट्रीय स्तर का कोई डाटाबेस मौजूद नहीं है। बोरवेलों में बच्चों के गिरने की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में ऐसे हादसों पर संज्ञान लेते हुए कुछ दिशा-निर्देश जारी किए थे। 2013 में कई दिशा-निर्देशों में सुधार करते हुए नए दिशा-निर्देश जारी किए गए थे, जिनके अनुसार गांवों में बोरवेल की खुदाई सरपंच तथा कृषि विभाग के अधिकारियों की निगरानी में करानी अनिवार्य है जबकि शहरों में यह कार्य ग्राउंड वाटर डिपार्टमेंट, स्वास्थ्य विभाग तथा नगर निगम इंजीनियर की देखरेख में होना जरूरी है।
अदालत के निर्देशानुसार बोरवेल खुदवाने के कम से कम 15 दिन पहले डीएम, ग्राउंड वाटर डिपार्टमेंट, स्वास्थ्य विभाग और नगर निगम को सूचना देना अनिवार्य है। बोरवेल की खुदाई से पहले उस जगह पर चेतावनी बोर्ड लगाया जाना और उसके खतरे के बारे में लोगों को सचेत किया जाना आवश्यक है। इसके अलावा ऐसी जगह को कंटीले तारों से घेरने और उसके आसपास कंक्रीट की दीवार खड़ी करने के साथ गड्ढ़ों के मुंह को लोहे के ढक्कन से ढंकना भी अनिवार्य है लेकिन इन दिशा-निर्देशों का कहीं पालन होता नहीं दिखता। दिशा-निर्देशों में स्पष्ट है कि बोरवेल की खुदाई के बाद अगर कोई गड्ढ़ा है तो उसे कंक्रीट से भर दिया जाए लेकिन ऐसा न किया जाना हादसों का सबब बनता है। ऐसे हादसों में न केवल निर्बोध मासूमों की जान जाती है बल्कि रेस्क्यू ऑपरेशनों पर अथाह धन, समय और श्रम भी नष्ट होता है।
प्रायः होता यही है कि तेजी से गिरते भू-जल स्तर के कारण नलकूपों को चालू रखने के लिए कई बार उन्हें एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित करना पड़ता है। पानी कम होने पर जिस जगह से नलकूप हटाया जाता है, वहां लापरवाही के चलते बोरवेल खुला छोड़ दिया जाता है। कहीं बोरिंग के लिए खोदे गए गड्ढ़ों या सूख चुके कुओं को बोरी, पॉलीथीन या लकड़ी के फट्टों से ढांप दिया जाता है तो कहीं इन्हें पूरी तरह से खुला छोड़ दिया जाता है। अनजाने में ही कोई ऐसी अप्रिय घटना घट जाती है तो परिवार को जिंदगी भर का असहनीय दर्द दे जाती है।
न केवल सरकार बल्कि समाज को भी ऐसी लापरवाहियों को लेकर चेतना होगा ताकि भविष्य में फिर ऐसे दर्दनाक हादसों की पुनरावृत्ति न हो। देश में ऐसी स्वचालित तकनीकों की भी व्यवस्था करनी होगी, जो ऐसी विकट परिस्थितियों में तुरंत राहत प्रदान करने में सक्षम हों।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है।)
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