– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने भरोसा दिलाया था कि वह संसद के भंग होने के सवाल पर तुरंत फैसला करेगा लेकिन दो दिन के बावजूद उसने इसे मंगलवार तक के लिए टाल दिया है। उसने इसे क्यों टाला होगा? उसने पीपीपी के रवैए की इस मांग को पहले रद्द किया कि इस मामले को अदालत की पूरी बेंच निपटाए। जजों ने पूछा कि पांच जजों की इस बेंच पर आपको भरोसा क्यों नहीं है? जज इतने गुस्से में आ गए कि उन्होंने कहा कि अगर आपको हमारी निष्पक्षता में विश्वास नहीं है तो हम सब इस्तीफा देने को तैयार हैं। अदालत का फैसला क्या होगा, कहना मुश्किल है। हो सकता है कि वह संसद के भंग करने को जायज ठहरा दे और चुनाव के द्वारा नई सरकार बनवाने का समर्थन कर दे। पाकिस्तान के लिए यही भला है।
इमरान सरकार और फौज के संबंध काफी कठिन हो गए हैं। ऐसे में उस सरकार का इस्लामाबाद में चलते रहना बड़ा मुश्किल है। इमरान सरकार की दूसरी बड़ी दिक्कत यह है कि उसके अपने सांसद उससे टूट गए हैं। उन्होंने विपक्षियों से हाथ मिला लिया है। अब वह अल्पमत की सरकार भर रह गई है। उसकी तीसरी मुसीबत यह है कि उसकी सरकार का गठबंधन तो टूटा ही, सारे विपक्षी दल एकजुट हो गए। सबसे बड़ी बात तो यह कि इमरान ने आशाएं खूब जगाईं और सपने खूब दिखाए लेकिन महामारी से निपटने में और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उनके पासे उल्टे पड़ गए।
उनकी रूस-यात्रा ने भी पाकिस्तान की फौज को परेशान कर दिया। इन सब कारणों के रहते उनकी सरकार का ढह जाना स्वाभाविक था लेकिन उनकी जगह अगर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के कारण यदि अभी विरोधी गठबंधन की सरकार बन गई तो यह सवाल बहुत तीखे रूप में उठ खड़ा होगा कि यह गठबंधन या यह सरकार कहां तक लोकमत के समर्थन की दावेदार है? यह लोक-समर्थन नहीं बल्कि दल-बदल और पार्टियों के दल-दल से मिलकर बनेगी। इसमें कितना नैतिक बल होगा? परस्पर विरोधी दल कब तक एक साथ टिके रहेंगे? और यह सरकार टिक भी गई तो डेढ़ साल बाद तो इसे चुनाव करवाने ही होंगे।
ऐसे में लगता है कि पाकिस्तान अधर में रहेगा। उसकी डगमगाती अर्थ-व्यवस्था इस बीच चौपट भी हो सकती है। इस नए गठबंधन के सर्वोच्च नेताओं से फौज के अत्यंत कटु संबंध रहे हैं। फौज ने पीपीपी और मुस्लिम लीग (न) के नेताओं के तख्ता-पलट कई बार किए हैं। अब जन-समर्थन के बिना सत्तारूढ़ हुए इन दोनों दलों को क्या फौज बर्दाश्त कर लेगी? यदि पाकिस्तान का सर्वोच्च न्यायालय उक्त विश्लेषण को ध्यान में रखेगा तो वह संसद को भंग करने और चुनाव करवाने के फैसलों पर मुहर भी लगा सकता है।
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
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