लखनऊ/नरसिंहपुर। ज्योतिष और द्वारका शारदा पीठ के शंकराचार्य जगद्गुरु स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती (Shankaracharya Jagadguru Swami Swaroopanand Saraswati) का रविवार को निधन हो गया। उन्होंने 99 वर्ष की आयु में अपराह्न करीब 3.30 बजे नरसिंहपुर के झोतेश्वर स्थित परमहंसी गंगा आश्रम (Paramhansi Ganga Ashram at Jhoteshwar, Narsinghpur) में अंतिम सांस ली।
आपको बता दें कि वे लम्बे समय से अस्वस्थ चल रहे थे। बताया गया है कि हृदयगति रुकने से उनका निधन हुआ। उनके निधन से श्रद्धालुओं और संत समाज में शोक की लहर फैल गई। उनके शिष्य ब्रह्मविद्यानंद ने बताया कि आज सोमवार शाम 5 बजे उन्हें आश्रम में ही समाधि दी जाएगी।
स्वरूपानंद सरस्वती अपनी युवावस्था में क्रांतिकारी संत थे
ब्रह्मलीन जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती अपनी युवावस्था में क्रांतिकारी संत के रुप में प्रसिद्ध थे। इसके चलते ब्रिटिश हुकूमत ने उत्तर प्रदेश की वाराणसी जेल में उन्हें नौ माह तक बंदी बनाये रखा था। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के प्रमुख शिष्यों में अविमुक्तेश्वरानन्द सरस्वती का कहना है कि जब वह युवा थे तब देश में आजादी की लड़ाई चल रही थी। स्वामी स्वरूपानंद भी स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गये। देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ उनकी मुहिम के चलते वह देश भर में क्रांतिकारी साधु के रुप में प्रसिद्ध हुए।
अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम चलाने के लिए स्वामी स्वरूपानंद को पहले वाराणसी की जेल में नौ महीने और फिर मध्य प्रदेश की जेल में छह महीने अंग्रेजों ने बंदी बनाये रखा। इस दौरान वह करपात्री महाराज के राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी रहे।
ईसा से पूर्व आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में एक-एक यानी चार मठों की स्थापना की थी। इन चारों मठों में उत्तर के बद्रिकाश्रम का ज्योर्तिमठ, दक्षिण का शृंगेरी मठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी का गोवर्धन मठ और पश्चिम में द्वारका का शारदा मठ शामिल है। मठ के प्रमुख को मठाधीश कहा जाता है. मठाधीश को ही शंकराचार्य की उपाधी दी जाती है।
मठाम्नाय के अनुसार, शंकराचार्य की उपाधि ग्रहण करने के लिए पात्र का संन्यासी और ब्राह्मण होना आवश्यक है। इसके अलावा संन्यासी दंड धारण करने वाला होना चाहिए। इंद्रियों पर उसका नियंत्रण होना चाहिए और तन-मन से वह पवित्र हो। संन्यासी का वाग्मी होना आवश्यक है यानी वह चारों वेद और छह वेदांगों का वह परम विद्वान हो और शास्त्रार्थ में निपुण हो।
इन समस्त नियमों को धारण करने वाले संन्यासी को वेदांत के विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करना पड़ता है. इसके बाद सनातन धर्म के 13 अखाड़ों के प्रमुख, आचार्य महामंडलेश्वर और संतों की सभा शंकराचार्य के नाम पर सहमति जताती है, जिस पर काशी विद्वत परिषद की मुहर लगाई जाती है। इस प्रकार संन्यासी शंकराचार्य बन जाता है. इसके बाद शंकराचार्य दसनामी संप्रदाय में से किसी एक संप्रदाय पद्धति की साधना करता है।
मठ में होता क्या है
मठ सनातन धर्म में धर्म-आध्यात्म की शिक्षा के सबसे बड़े संस्थान कहे जाते हैं। इनमें गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहन होता है और शिक्षा भी इसी परंपरा से दी जाती है. इसके अलावा मठों द्वारा विभिन्न सामाजिक कार्य भी किए जाते हैं।
चारों मठ
ज्योतिर्मठ: उत्तराखंड में बद्रीनाथ स्थित ज्योतिर्मठ के अंतर्गत दीक्षा ग्रहण करने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘गिरि’, ‘पर्वत’ और ‘सागर’ संप्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है। ज्योतिर्मठ का महावाक्य ‘अयमात्मा ब्रह्म’ है। इस मठ के पहले मठाधीश त्रोटकाचार्य थे. स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती इसके 44वें मठाधीश बनाए गए थे. अथर्ववेद को इस मठ के अंतर्गत रखा गया है।
श्रृंगेरी मठ – दक्षिण भारत के चिकमंगलूरु स्थित शृंगेरी मठ के अंतर्गत दीक्षित होने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘सरस्वती’, ‘भारती’ और ‘पुरी’ विशेषण लगाए जाते हैं. शृंगेरी मठ का महावाक्य ‘अहं ब्रह्मास्मि’ है. इस मठ के अन्तर्गत यजुर्वेद को रखा गया है. मठ के पहले मठाधीश आचार्य सुरेश्वराचार्य थे. वर्तमान में स्वामी भारती कृष्णतीर्थ इसके शंकराचार्य हैं जो 36वें मठाधीश हैं।
गोवर्धन मठ– भारत के पूर्व में गोवर्धन मठ है जो ओडिशा के जगन्नाथ पुरी में है। इस मठ के अंतर्गत दीक्षित होने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘वन’ और ‘आरण्य’ विशेषण लगाए जाते हैं. मठ का महावाक्य ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ है और ‘ऋग्वेद’ को इसके अंतर्गत रखा गया है। गोवर्धन मठ के पहले मठाधीश आदि शंकराचार्य के प्रथम शिष्य पद्मपाद चार्य थे। वर्तमान में निश्चलानन्द सरस्वती इस मठ शंकराचार्य हैं जोकि 145वें मठाधीश हैं।
शारदा मठ– पश्चिम में गुजरात के द्वारका में शारदा मठ है. इसके अंतर्गत दीक्षा ग्रहण करने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘तीर्थ’ और ‘आश्रम’ विशेषण लगाए जाते हैं. इस मठ का महावाक्य ‘तत्त्वमसि’ है और ‘सामवेद’ को इसके अंतर्गत रखा गया है. शारदा मठ के पहले मठाधीश हस्तामलक (पृथ्वीधर) थे. वह आदि शंकराचार्य के चार प्रमुख शिष्यों में से एक थे. स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को इस मठ का 79वें शंकराचार्य बनाया गया था।
शंकराचार्य की हैसियत
शंकराचार्य की हैसियत सनातन धर्म के सबसे बड़े गुरु की होती है. बौद्ध धर्म में दलाईलामा और ईसाई धर्म में पोप इसके समकक्ष माने जाते हैं। आदि गुरु शंकराचार्य के नाम पर इस पद की परंपरा शुरू हुई थी। आदि गुरु को जगद्गुरु की उपाधि प्राप्त है, जिसका इस्तेमाल पहले केवल भगवान श्रीकृष्ण के लिए ही किया जाता था। समस्त हिंदू धर्म इन चारों मठों के दायरे में आता है. विधान यह है कि हिंदुओं को इन्हीं मठों की परंपरा से आए किसी संत को अपना गुरु बनाना चाहिए।
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