नई दिल्ली (New Delhi)। केंद्र हो या राज्य में सरकार किसी की भी हो लेकिन रसूखदार मदनी परिवार (Influential Madani Family) का हर सरकार में दखल रहता है। देश में समाजिक सौहार्द और मुसलमानों (social harmony and muslims) के धार्मिक नेतृत्व देने के लिए बनाई गई संस्था जमीयत उलेमा-ए-हिंद (Jamiat Ulema-e-Hind) सुर्खियों में है। राजधानी नई दिल्ली में पिछले दिनों जमीयत के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में संगठन प्रमुख मौलाना अरशद मदनी ने ओम और अल्लाह को एक बता दिया।
अधिवेशन के अंतिम दिन अरशद मदनी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में आदम को हिंदू और मुसलमानों का पूर्वज बताया। मदनी ने कहा कि इस्लाम भारत के लिए नया धर्म नहीं है और मनु भी अल्लाह को पूजते थे। मदनी के इस बयान का हिंदू और जैन धर्मगुरुओं ने विरोध किया है।
जानिए क्या है जमीयत उलेमा-ए-हिंद
भारत में इस्लाम का आगमन 7वीं शताब्दी के आसपास हुआ था. आगमन के बाद इस्लाम का भारत में तेजी से विस्तार तो हुआ, लेकिन धार्मिक नेतृत्व की कमी लगातार बनी रही। इसी दौरान 1919 में तुर्की में इस्लाम के धर्मगुरू खलीफा के पद को ब्रिटिश हुकूमत ने खत्म करने का ऐलान कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कई देशों ने विरोध जताया और इसमें भारत की भी भूमिका अग्रणी थी। भारत में ब्रिटिश सरकार के इस फैसले के विरोध में खिलाफत आंदोलन की शुरुआत की गई।
खिलाफत आंदोलन के बीच में ही मौलाना अबुल मोहसिन मोहम्मद सज्जाद, अब्दुल बारी फिरंगी महली, अहमद सईद देहलवी, इब्राहिम सियालकोटी और किफायतुल्ला देहलवी ने मिलकर जमीयत उलेमा-ए-हिंद का गठन किया. किफायतुल्ला देहलवी पहले अध्यक्ष और अहमद सईद देहलवी महासचिव बनाए गए।
जमीयत उलेमा-ए-हिंद के गठन का मुख्य उद्देश्य मुसलमानों को धार्मिक नेतृत्व देना था. बाद में इसे और विस्तार किया गया और और अब जमीयत का विजन इस्लामिक मान्यताओं, पहचान की रक्षा करना, इस्लाम की शिक्षा को बढ़ावा देना है।
जमीयत पर पड़ी दारूल उलूम देवबंद का छाप
1857 में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन असफल होने के बाद कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं ने दारुल उलूम देवबंद की स्थापना की थी. जमीयत की स्थापना पर इसकी छाप देखने को मिली। दारुल उलूम में पढ़ने या पढ़ाने वाले मुस्लिम धर्मगुरुओं के हाथ में ही इसकी कमान रही। किफायतुल्ला देहलवी के बाद दारूल उलूम देवबंद के प्राचार्य महमूद हुसैन देबवंदी को 1920 में जमीयत का प्रमुख बनाया गया, लेकिन वे सिर्फ 30 दिन तक ही पद पर रह पाए. महमूद हुसैन के निधन के बाद फिर किफायतुल्ला को ही जमीयत की कमान मिली। 1940 में दारूल उलूम के संरक्षक महमूद अल-हसन के शिष्य मौलाना हुसैन अहमद मदनी के हाथों में जमीयत की कमान आई. हुसैन मदनी 1957 तक जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रमुख रहे।
पाकिस्तान का विरोध, सेक्युलर भारत की मांग
आजादी से पहले मोहम्मद अली जिन्नाह समेत कुछ मुस्लिम नेताओं ने 1940 में लाहौर अधिवेशन के दौरान अलग मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की मांग की. जिन्नाह और उनके समर्थकों की इस मांग का जमीयत ने पुरजोर विरोध किया।
द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर पाकिस्तान के मशहूर शायर अल्लामा इकबाल और हुसैन अहमद मदनी के बीच काफी बहस भी हुई. हुसैन अहमद मदनी ने कहा कि इस्लाम भारत के लिए नया नहीं है. मुसलमानों को भारत छोड़ने का कोई मतलब नहीं है।
मौलाना हुसैन मदनी ने तर्क देते हुए कहा था कि भारत में इस्लाम मानव इतिहास की शुरुआत से ही है और यह कि भारत की मिट्टी में सदियों से संतों, फकीरों का आना रहा है। इसलिए मुसलमानों को कहीं और जाने की जरुरत नहीं है।
हुसैन अहमद मदनी ने भाषण में कहा कि आजादी के बाद हम सभी को मिलकर भारत में ऐसी सरकार बनाने की कोशिश करनी चाहिए, जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और पारसी आदि सभी शामिल हों. इस्लाम में भी इसी तरह की आजादी का जिक्र किया गया है।
हुसैन मदनी की यह अपील काम कर गई और यूपी-बिहार के लाखों मुसलमानों ने भारत में ही रहने का फैसला किया. आजादी के बाद हुसैन मदनी ने सेक्युलर भारत के रास्ते पर चलने के लिए एक नए केंद्रीय कानून बनाने की मांग की। उन्होंने कहा कि इससे सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरतावाद को रोका जा सकता है।
अब 1 करोड़ सदस्य, 1700 ब्रांच
जमीयत उलेमा-ए-हिंद का राष्ट्रीय स्तर पर संचालन 30 सदस्यों की एक कमेटी करती है। कमेटी में एक अध्यक्ष, दो उपाध्यक्ष और एक महासचिव होते हैं. हरेक साल राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक भी बुलाई जाती है। जमीयत उलेमा-ए-हिंद से आधिकारिक तौर पर एक करोड़ लोग जुड़े हुए हैं। पूरे भारत में जमीयत की करीब 1700 ब्रांच हैं. असम, कर्नाटक, बिहार, यूपी समेत कई राज्यों में कार्यकारिणी का भी गठन किया गया है. जमीयत की ओर से शांति मिशन नामक एक पत्रिका का भी प्रकाशन किया जाता है।
जमीयत में कैसे बढ़ा मदनी परिवार का दबदबा?
17 साल तक जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रमुख हुसैन अहमदी के निधन के बाद अहमद सईद देहलवी को संगठन की कमान सौंपी गई।1959 में फकर्रूदीन अहमद जमीयत उलेमा के प्रमुख बने. 1963 में फकर्रूदीन ने हुसैन अहमदी के बड़े बेटे असद मदनी को महासचिव बना दिया। 1972 में फकर्रूदीन अहमद के निधन के बाद हुसैन अहमदी के बड़े बेटे और तत्कालीन महासचिव असद मदनी को जमीयत उलेमा-ए-हिंद का प्रमुख बनाया गया. असद अहमदी 34 सालों तक इस पद पर रहे. असद मदनी ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मुस्लिम नेताओं से चुनाव में भी भागीदारी लेने की अपील की।
असद मदनी जमीयत के पहले अध्यक्ष थे, जो राज्यसभा के लिए भी निर्वाचित हुए। कांग्रेस के टिकट पर असद तीन बार ऊपरी सदन में पहुंचे. 1988 में बाबरी मस्जिद और राम मंदिर आंदोलन मामले में ताला खोलने का फैसला निचली अदालत ने दिया था।
कांग्रेस में रहते हुए असद मदनी ने इसका विरोध किया और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार से इसके खिलाफ हाईकोर्ट में अपील दायर करने की अपील की. इस घटना के बाद असद की साख मुसलमानों में और ज्यादा बढ़ गई. 2006 में असद के निधन के बाद उनके छोटे भाई अरशद मदनी को जमीयत की कमान मिली। 2008 में असद मदनी के बेटे महमूद मदनी ने चाचा अरशद मदनी के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया. इसके बाद जमीयत उलेमा में विभाजन हुआ और महमूद मदनी ने अलग गुट बना लिया। 2022 में दोनों गुटों में समझौता हुआ और महमूद मदनी फिर से चाचा अरशद मदनी को अध्यक्ष बनाने पर राजी हो गए. वर्तमान में दोनों गुटों के बीच विलय की प्रक्रिया जारी है. असद मदनी की तरह उनके बेटे महमूद मदनी भी उत्तर प्रदेश से राज्यसभा सांसद रह चुके हैं।
देवबंद पर लगा आतंक का दाग
1994 में आतंकी मसूद अजहर को छुड़ाने के लिए आतंकियों ने पहली बार सहारनपुर में एक साजिश रची थी. उस वक्त एक विदेशी नागरिकों को कुछ आतंकियों ने अगवा कर लिया था। हालांकि, पुलिस एनकाउंटर में एक आतंकी मारा गया था. उसके बाद एटीएस की टीम ने कई बार देवबंद में आतंकी गतिविधियों से जुड़े डेटा के लिए छापा मारा। छवि खराब होती देख 2001 में जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने पहली बार एक प्रस्ताव पास किया और कहा कि आतंक जिहाद नहीं बल्कि एक फसाद है। इसके बाद हर सम्मेलन में आतंक का जमीयत ने कड़ा प्रतिरोध किया। 2008 में हैदराबाद में एक सम्मेलन में जमीयत ने आतंकवाद के खिलाफ फतवा भी जारी किया. इसी सम्मेलन में जमीयत ने मालेगांव विस्फोट का जिक्र करते हुए कहा कि किसी एक के आतंकी बन जाने से समाज को दोष नहीं देना चाहिए।
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