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    लोकतंत्र का यह कैसा रूप

  • May 05, 2021
    डॉ.रामकिशोर उपाध्याय
    पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत पाने वाली तृणमूल कांग्रेस नंदीग्राम में मिली एक पराजय से मानसिक संतुलन खोती दीख रही है। पूरा राज्य हिंसा, भय और अराजकता की चपेट में है। देश के तथाकथित बुद्धिजीवी, कलाकार व मानवाधिकार कार्यकर्त्ता चुप क्यों हैं? जय-पराजय लोकतंत्र की परम्परा है किन्तु बंगाल में विजेता दल के कार्यकर्त्ता चुनाव परिणाम आते ही अपने राजनीतिक विरोधियों के साथ ऐसा बर्बर व्यवहार कर रहे हैं, जैसा विदेशी आक्रमणकारी जीत के बाद किया करते थे।
    जिन भाजपा कार्यकर्ताओं की घर में घुसकर नृशंस हत्याएँ की गईं वे भी बंगाली थे। पराजित दल का सदस्य होने से उनके नागरिक अधिकार समाप्त नहीं हो गए, फिर क्यों उन्हें मारा जा रहा है ? यह कैसी बिडम्बना है कि स्वयं को पत्रकार और स्तंभकार कहने वाले लोग ममता बनर्जी से इन हत्याओं पर प्रश्न पूछने के स्थान पर उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में कैसे आ जाना चाहिए, इसके लिए तरह-तरह का मशविरा देते हुए कलम घिस रहे हैं। निरपराध लोगों की गर्दनें काटी जा रही हैं और नैरेटिव सैटर आगामी सात राज्यों में भाजपा को कैसे पराजित किया जाए, इसकी चिंता में लगे हैं। यदि बंगाल के स्थान पर भाजपा शासित किसी राज्य में इस प्रकार विरोधी दल के कार्यालय में आग लगाई गई होती और हत्याएँ की गईं होतीं क्या तब भी देश का मीडिया और तथाकथित एक्टिविस्ट यों ही चुप रह जाते ? लोकतंत्र का यह कैसा रूप है जिसमें चुनी हुई सरकार ही अपने विरोधियों की हत्याएँ करा रही है फिर भी बंगाल में किसी को न असहिष्णुता दीखती है न हिंसा, न संविधान खतरे में है और न हीं किसी को डर लग रहा है ?

    बंगाल में कम्युनिस्टों के शासन में राजनीतिक हत्याओं का जो खेला शुरू हुआ था, ममता राज में अभी भी वैसे ही चल रहा है। इस विनाशकारी खेल को शीघ्र ही समाप्त नहीं किया गया तो अन्य राज्यों में भी छोटे-छोटे राजनीतिक दल इस रक्तचरित्र को अपनाना आरम्भ कर सकते हैं। फिर राष्ट्रिय दलों का वहाँ जीवित रह पाना भी असंभव हो जाएगा। कांग्रेस ने भले ही स्वयं समाप्त हो जाने की शर्त पर ममता के पक्ष में अपना वोटबैंक शिफ्ट हो जाने दिया हो किन्तु इस हिंसा के समर्थन से उसका भी कोई भला नहीं होने वाला। स्मरण रहे ममता बनर्जी भविष्य में विरोधियों की नेता के रूप में सोनिया गांधी का स्थान ही ले सकती हैं मोदी का नहीं।
    यद्यपि राज्य के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होते हैं तथा उससे केंद्र सरकार के भविष्य का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। मोदी जी के लिए इसे संयोग कहें या सुअवसर कि देश के लगभग दर्जन भर से अधिक विपक्षी दलों को मिलाकर भी कोई ऐसा व्यक्ति सामने नहीं है जिसे मोदी के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जा सके। मीडिया जगत की इस समय की टिप्पणी यही है कि कांग्रेस के पास राष्ट्रीय स्तर का संगठन तो है पर नेता नहीं है तथा उसके अन्य सहयोगी दलों के पास नेता हैं किन्तु राष्ट्रीय स्तर का संगठन नहीं है। किन्तु यह समय ऐसे विमर्श का नहीं है।
    इस समय सबसे महत्वपूर्ण बात है बंगाल में होने वाली हत्याओं को तत्काल रोकना। क्या यह कम दुखद नहीं है कि स्वयं को मोदी विरोधी कहने वाले गैर भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने भी इन हत्याओं पर शोक प्रकट नहीं किया और न ही निंदा की ? लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। सरकार चाहे तृणमूल की हो या किसी भी अन्य दल की, राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखना उसका प्रथम कर्तव्य है। बंगाल में राज्य सरकार यदि अपने कर्तव्य से च्युत होती है तो उसके ऊपर संवैधानिक अंकुश लगाना ही पड़ेगा। लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। भारत के राष्ट्रपति महोदय को या न्यायालय को स्वयं संज्ञान लेकर बंगाल में कानून व्यवस्था की समीक्षा करनी चाहिए।
    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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