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    जनगणमन क्या बोले ?

  • December 07, 2023

    – गिरीश्वर मिश्र

    भारत के चार प्रमुख राज्यों में हुए विधानसभा के ताजे चुनाव नतीजे कई अर्थों में आम आदमी और राजनीति के पंडितों हर किसी के लिए बेहद चौंकाने वाले साबित हुए हैं। पांचवा राज्य पूर्वोत्तर का मिजोरम है जहां जेडपीएम को जीत मिली। इस क्षेत्रीय पार्टी ने मिजो अस्मिता को आधार बनाया। लाल दुहोमा की पार्टी ने कुछ ही वर्षों में अपने लिए पर्याप्त समर्थन जुटा लिया। तीन प्रदेशों में भाजपा और एक में कांग्रेस की भारी जीत दर्ज हुई है। कांग्रेस ने दो राज्य गंवाए और एक नया राज्य हासिल किया। जनमत की सघन और तीव्र अभिव्यक्ति करते इन आशातीत परिणामों की व्याख्या किसी एक सूत्र से नहीं की जा सकती। जनता ने स्थानीय परिस्थितियों और राष्ट्रीय स्तर पर उभरते घटनाक्रम की निजी व्याख्या की।

    इस चुनाव में प्रत्याशियों की अपनी साख की भी खास भूमिका रही। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के उप मुख्यमंत्री जू देव और तेलंगाना में बीआरएस के मुख्यमंत्री केसीआर और कांग्रेस के मोहम्मद अजहरूद्दीन, मध्य प्रदेश के गृह मंत्री रहे नरोत्तम मिश्र जैसों की पराजय इसी के उदाहरण हैं।


    चुनाव के लिए सामान्य परिवेश रचने में भ्रष्टाचार के आरोप, राजनीतिक दलों की अंदरूनी खींचतान, योजनाओं और वादों का जमीनी स्तर पर लागू न होना, और जातीय संतुलन साधने में विफलता ने मतदाता की प्रेरणाओं को निश्चित रूप से प्रभावित किया। दूसरी ओर मध्य प्रदेश के जनादेश ने एक भिन्न चित्र प्रस्तुत किया। वहां के मुख्यमंत्री लम्बी अवधि से सत्ता में रहे। सोशल मीडिया पर मामा की विदाई का वीडियो खूब चला परंतु शिवराज सिंह की जनाभिमुखी यात्रा अनथक चलती रही।

    लाड़ली बहना जैसे महिला सशक्तीकरण के उनके प्रयास विशेष रूप से प्रभावी साबित हुए । परिस्थिति की जटिलता को देखते हुए केंद्रीय मंत्रियों को मैदान में उतारा गया।
    प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों ने पूरे माहौल में जान भरी और इन सब प्रयासों के परिणाम एंटी इनकंबेंसी और राजनीतिक थकान को झुठला दिया। चौहान छठीं बार बुधनी से चुनाव जीते। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री बघेल की वापसी को लेकर सब लोग आश्वस्त लग रहे थे। रमन सिंह जरूर बहुमत का दावा कर रहे थे जो भाजपा की रणनीति, मोदी जी का आकर्षण और सरकार की कमजोरियों के चलते सही साबित हुआ। भाजपा द्वारा धान की खरीद की राशि बढ़ाने का प्रस्ताव किया, महतारी वंदन योजना प्रस्तुत की, प्रधानमंत्री मोदी की गारंटी आई और भावी मुख्यमंत्री का नाम घोषित न करना भी सहायक हुआ।

    दक्षिण में तेलंगाना में कांग्रेस की जीत जनता में एक दशक पुरानी सत्ता के विरोध की मनःस्थिति का परिणाम था और कांग्रेस की भारत जोड़ो रैली का भी योगदान रहा। कांग्रेस की रणनीति बेहद प्रभावी साबित हुई और केसीआर को उनकी प्रलोभन वाली तमाम योजनाओं का लाभ न मिल सका। के सी आर के बेटे का हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार की आरोप उनके लिए मुसीबत हो गए। कांग्रेस ने महालक्ष्मी, इंदिरम्मा, और गृह ज्योति जैसी योजनाओं का वादा कर महिला मतदाता को रिझाया। कांग्रेस का पेशेवर चुनाव अभियान बाजी मार ले गया।

    राजस्थान में कांग्रेस ने बड़ी तैयारी की थी और मुख्यमंत्री गहलोत ने दावे भी किए थे और अपनी योजनाओं को मुख्य औजार बनाया पर जनता अपने पुराने ढर्रे के मुताबिक बाजी पलट दी। विधायकों को लेकर जन आक्रोश, पार्टी नेताओं के बीच तनाव, कानून व्यवस्था की बढ़ती मुश्किलों ने जनता के मन से भरोसा हटा दिया था। युवा वर्ग भी असंतुष्ट था। काफी बड़ी संख्या में कांग्रेसी मंत्रियों को हार का मुंह देखना पड़ा है। चुनाव में कांग्रेस की स्पष्ट अस्वीकृति उभर कर सामने आई। भाजपा ने गुटबाजी को रोका, क़ानून व्यवस्था की चूकों को लेकर कांग्रेस को घेरा। प्रधानमंत्री की गारंटी ने जनता में आश्वस्ति का भाव पैदा किया। उल्लेखनीय है कि भाजपा ने इस बार मुख्य मंत्री के रूप में किसी का नाम प्रस्तावित नहीं किया था जब कि कांग्रेस ने इनकी घोषणा की थी । संभवत: जनता और प्रत्याशियों के बीच इसका भी सकारात्माक संकेत गया।

    इन चुनावों ने प्रधानमंत्री मोदी की जन-स्वीकृति के ग्राफ को और ऊपर उठाया है। उनकी छवि, उपस्थिति और संवाद की लोकप्रियता परिपुष्ट हुई है। इसका कारण राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके नेतृत्व की विलक्षण गतिशीलता ने भारत की छवि को भरोसेमंद बनाया है। उनकी सतत सक्रियता सबको स्पर्श करती चलती है। ‘मन की बात’ और पद्म अलंकरणों के पात्रों के चयन में उनकी सामाजिक समावेश प्रवृत्ति झलक रही है। गरीबों, स्त्रियों, किसानों और हाशिये के उपेक्षितों के लिए होने वाली पहलों ने सरकार की जनपक्षीयता की लगातार पुष्टि की है।

    जन-सुविधाओं के लिए बड़े पैमाने पर डिजीटलीकरण, संसाधनों और इंफ्रास्ट्रक्चर का सतत विस्तार, आर्थिक मोर्चे पर मजबूती, प्रतिरक्षा तंत्र का सुदृढ़ीकरण, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के प्रयास जैसे कदम जनता में आश्वस्ति का भाव पैदा करते रहे हैं। इन सबसे उभरती ‘मोदी की गारंटी’ ने लोगों को प्रभावित किया और मीडिया की बदौलत इसका संदेश भी खूब प्रचारित प्रसारित हो रहा है । सामाजिक और राजनीतिक समीकरण साधना एक बड़ी चुनौती है और भाजपा ने इस दृष्टि से कई बड़े कदम उठाए हैं।

    विपक्षी दलों की सोच में जहां परिवारवाद और संकुचित दृष्टि बढ़ी है । जातिवाद और तुष्टिकरण का लाभ उठाने की जुगत के साथ बहुत से दल व्यक्तिगत दल की तरह काम कर रहे हैं। सांसद की बैठकों को देखें तो बड़ी असंतोषजनक स्थिति उभरती है। विपक्षी सांसद किस तरह लगातार हंगामा करते हुए अपनी उपस्थिति प्रमाणित करते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। प्रलोभन की राजनीति का आश्रय लेते हुए कुछ चुने लोगों को लाभ पहुंचाना आम बात हो चुकी है।

    साथ ही भ्रष्टाचार में संलिप्तता के अनेक बड़े मामले टी एम सी और कांग्रेस जैसे कई विपक्षी दलों की विश्वसनीयता और लोकप्रियता के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं। विपक्ष के अनेक दल नीति और दृष्टि को लेकर भिन्न-भिन्न मत रखते हैं। सभी दलों को साथ लेकर एक मोर्चा बनाने की नीतीश बाबू ने जो कवायद शुरू की थी वह आधार में ही लटकी हुई है। वह जमीनी स्तर पर नहीं उतर पा रही है। आईएनडीआईए एक दूर की कौड़ी ही बना हुआ है। कुल मिला कर असंगठित और संकल्पहीन विपक्ष में सकारात्माक एजेंडा और सार्थक आलोचना की भारी कमी खटकती रहती है।

    इस बदलते माहौल में खड़गे ने विपक्षी गठबंधन आईएनडीआईए की बैठक बुलाई है। कांग्रेस के लिए गहन आत्म मंथन का अवसर है। अपने अस्तित्व के लिए उसे निर्मम हो कर यह तय करना होगा कि अन्य दलों के साथ कैसा रिश्ता साधें और अपने लिए कौन सा मार्ग अपनाएं? मोदी के चेहरे पर जनता का भरोसा भाजपा को आश्वस्ति जरूर देता है और परिस्थितियों को जांच परख कर जूझने की उसकी सजग रणनीति के अच्छे परिणाम होते हैं। केंद्रीय नेताओं को राज्य स्तर पर लाकर चुनाव लड़ना जोखिम भरा काम था।

    इस बार कुल 21 भाजपायी सांसद विधानसभा के चुनावों में उतरे थे। इसके अच्छी संदेश गए और लाभकर परिणाम भी हुए। देश के सामने जन कल्याण, संस्थाओं का पुनर्जीवन, भ्रष्टाचार का उन्मूलन, आत्म निर्भर भारत का निर्माण, वंचितों की सामर्थ्य को बढ़ाना, पारदर्शिता, सुशासन, तथा महिलाओं, किसानों, और युवा वर्ग को अवसर उपलब्ध कराना जैसी बड़ी चुनौतियां अभी भी मुंह बाए खड़ी हैं। फौरी प्रलोभन दे कर वोट बटोरने की प्रथा कुछ तात्कालिक लाभ जरूर देती है परंतु अंततोगत्वा उसका नुक़सान ही होता है।

    इस प्रसंग में जातिगत जन गणना को एक नया उपाय बनाने के उपक्रम का जिक्र किया जा सकता है। इस चुनाव में इसे भुनाने की कोशिश हुई पर इसे किसी ने भाव नहीं दिया। विधान सभाओं का यह चुनाव भविष्य की राजनीति के लिए यदि कोई पूर्वाभास देता है तो वह यही है कि भारत की जनता एक ऐसे सशक्त भारत का स्वप्न देख रहा है जिसमें ऐसी पारदर्शी व्यवस्था हो जो लोक कल्याण से प्रतिबद्ध हो। भारत के सशक्त नेतृत्व इस लक्ष्य के साथ है, आवश्यकता है कि व्यक्ति, संस्था और संगठन के स्तर पर सबकी सहभागिता हो।

    (लेखक, अंतरराष्ट्रीय महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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