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    मंडल और कमंडल की राजनीति का सिंबल बने थे कल्याण

  • August 22, 2021

    लखनऊ। वर्ष 1989-90 में जब देश में मंडल और कमंडल की राजनीति (Mandal and Kamandal politics) ने जोर पकड़ा। आधिकारिक तौर पर पिछड़े वर्ग की जातियों का वर्गीकरण हुआ और पिछड़े वर्ग की राजनीतिक ताकत पर मुहर लगने लगी, तब वणिकों और ब्राह्मणों की पार्टी के रूप में मशहूर हो चली भाजपा ने कल्याण सिंह (BJP Kalyan Singh) को पिछड़ा वर्ग का चेहरा बनाया और गुड गवर्नेंस का वादा किया।

    कल्याण सिंह की जहां हिन्दू हृदय सम्राट की छवि बन रही थी, वहीं वे लोधी राजपूतों के मुखिया के तौर पर भी उभर रहे थे। भाजपा में ओबीसी जातियों के फायर ब्रांड नेताओं की आमद होने लगी और कल्याण सिंह इनके मुखिया बन गए। वर्ष 1991 में 221 सीटें जीतने वाली भाजपा की कल्याण के नेतृत्व में सरकार बनी। कारसेवकों ने 06 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी और कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त कर दी गई। 1993 में फिर चुनाव हुए जिसमें भाजपा के वोट तो बढ़े पर सीटें घट गईं। भाजपा सत्ता से बाहर ही रही। दो साल बाद बसपा के साथ गठबंधन कर भाजपा फिर सत्ता में आई पर कल्याण सिंह मुख्यमंत्री नहीं बन पाए।


    अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में वर्ष 1996 में 425 सीटों की विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी 173 सीटें हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी बनी जबकि समाजवादी पार्टी को 108, बहुजन समाज पार्टी को 66 और कांग्रेस को 33 सीटें मिलीं पर तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने राष्ट्रपति शासन को छह महीने बढ़ाने के लिए केंद्र को संस्तुति भेज दी। इस पर भी विधिक संघर्ष उत्पन्न हो गया। इसकी वजह यह थी कि राज्य में राष्ट्रपति शासन का पहले ही एक साल पूरा हो चुका था। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय पर रोक लगाते हुए राष्ट्रपति शासन छह महीने बढ़ाने के केंद्र के फ़ैसले को स्वीकृति दे दी।

    भाजपा और बसपा ने छह-छह महीने राज्य का शासन चलाने का निर्णय लिया। इससे पहले 1995 में भाजपा और बसपा ने सरकार बनाई थी, पर बाद में भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया था, जिसकी वजह से राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। इस बार नया प्रयोग हुआ। पहले छह महीनों के लिए 21 मार्च 1997 को मायावती उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री बनाई गईं। 21 सितंबर 1997 को मायावती के छह महीने पूरे होने भाजपा के कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। उन्होंने मायावती सरकार के अधिकतर फ़ैसले बदल दिए। दोनों पार्टियों के बीच मतभेद उत्पन्न हो गए।

    नाराज मायावती ने एक महीने के भीतर ही 19 अक्टूबर 1997 को कल्याण सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने दो दिन के भीतर 21 अक्टूबर को कल्याण सिंह को अपना बहुमत साबित करने का फरमान दे दिया। बसपा, कांग्रेस और जनता दल में भारी तोड़-फोड़ हुई और कई विधायक भाजपा में आ गए। कल्याण सिंह को इसका मास्टर माइंड माना गया। विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी के निर्णय से कल्याण को कोई दिक्कत नहीं हुई लेकिन केसरीनाथ त्रिपाठी की खूब राजनीतिक आलोचना हुई।

    21 अक्टूबर 1997 को विधानसभा के भीतर विधायकों के बीच माइक फेंका-फेंकी, लात-घूंसे, जूता-चप्पल भी चले। विपक्ष की नामौजूदगी में कल्याण सिंह ने बहुमत साबित कर दिया। उन्हें 222 विधायकों का समर्थन मिला जो भाजपा की मूल संख्या 173 से 49 अधिक था। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की संस्तुति कर दी। 22 अक्टूबर को केंद्र ने इस संस्तुति को राष्ट्रपति के.आर.नारायणन को भेज दी। लेकिन राष्ट्रपति नारायणन ने केंद्रीय कैबिनेट की सिफारिश को मानने से इंकार कर दिया और दोबारा विचार के लिए इसे केंद्र सरकार के पास भेज दिया। केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की संस्तुति दोबारा राष्ट्रपति के पास नहीं भेजने का फ़ैसला किया। (एजेंसी, हि.स.)

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