– आर.के. सिन्हा
भारत और चीन सीमा पर तनाव बरकरार है और भारत-पाकिस्तान के बीच भी गोला-बारूद चल ही रहे हैं। भारत फिलहाल अपने दो घोर शत्रु देशों का सरहद पर एक साथ प्रतिदिन सामना कर रहा है। दोनों देश बार-बार साबित कर चुके हैं कि ये सुधरने वाले हरगिज नहीं। आप इनसे मैत्रीपूर्ण संबंधों की अपेक्षा कर ही नहीं सकते। इनके डीएनए में भारत विरोध है। साफ है कि भारत को अपने इन पड़ोसी मुल्कों की नापाक हरकतों का मुकाबला करने के लिए हर वक्त चौकस रहना होगा। अटल बिहारी वाजपेयी जी बार-बार कहा करते थे कि ‘आप अपने मित्र बदल सकते हैं, पर दुर्भाग्य से पड़ोसी नहीं।’ बात यहीं पर समाप्त नहीं होती। ये दोनों दुश्मन देश एक-दूसरे के घनिष्ठ मित्र भी हैं। कम-से-कम ऊपर से देखने में तो यही लगता है।
हालांकि कूटनीति में कोई देश किसी का स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता। यह भी संभव है कि भारत से खुंदक ही इन्हें आपस में करीब लाती हो। तो क्या अब कभी भारत का चीन के साथ युद्ध हुआ तो पाकिस्तान भी चीन के हक में खुलकर मैदान में आएगा? इसी के साथ अगर पाकिस्तान का भारत के साथ युद्ध हुआ तो चीन भी अपने मित्र देश पाकिस्तान के हक में लड़ेगा? ये सवाल वर्तमान में महत्वपूर्ण हो चुके हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह जी सार्वजनिक रूप से कह रहे हैं कि अगर भारत-चीन युद्ध छिड़ता है तो पाकिस्तान शांत नहीं बैठेगा। वह भी चीन के हक में लड़ेगा। चूंकि अमरिंदर सिंह सैन्य मामलों के गहन जानकार हैं, इसलिए उनकी चेतावनी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
सीमा पर शांति दूर की संभावना
जरा देखें कि एक तरफ कुछ दिन पहले ही लद्दाख की गलवान घाटी में भारत-चीन के सौनिकों के बीच संघर्ष हुआ था। उसके बाद से ही सीमा पर शांति एक दूर की संभावना-सी बनी हुई है। हालांकि दोनों पक्ष बातचीत भी कर रहे हैं, ताकि माहौल शांत हो जाए। पर यह तो मानना होगा कि बातचीत के नतीजे फिलहाल बहुत सराकात्मक नहीं आए हैं।
चीन के साथ चल रहे सीमा विवाद पर भारत के चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ जनरल बिपिन रावत ने 24 अगस्त को कहा कि “लद्दाख में चीनी सेना के अतिक्रमण से निपटने के लिए सैन्य विकल्प भी है। लेकिन यह तभी अपनाया जाएगा जब सैन्य और कूटनीतिक स्तर पर वार्ता विफल रहेगी।” रावत के बयान से आम हिन्दुस्तानी आश्वस्त हो सकता है कि भारत किसी भी स्थिति के लिए तैयार है। रावत ने जो कहा उसमें कुछ ग़लत नहीं लगा। यह एक सधा हुआ बयान है। भारत की रक्षा तैयारियां युद्धस्तर पर हैं। भारत को अब तो फ्रांस से 5 राफेल विमान मिल चुके हैं जो अति शक्तिशाली युद्ध क्षमता से संपन्न हैं।
जंग के लिए कितना तैयार भारत
फ्रांस से खरीदे गए बेहद आधुनिक और शक्तिशाली 36 राफेल विमानों की पहली खेप भारत आ चुकी है। निश्चित रूप से राफेल लड़ाकू विमानों का भारत में आना हमारे सैन्य इतिहास में नए युग का श्रीगणेश है। इन बहुआयामी विमानों से वायुसेना की क्षमताओं में क्रांतिकारी बदलाव आएंगे। राफेल विमान का उड़ान के दौरान प्रदर्शन श्रेष्ठ है। इसमें लगे हथियार, राडार एवं अन्य सेंसर तथा इलेक्ट्रॉनिक युद्धक क्षमताएं लाजवाब माने जाते हैं। कहना न होगा राफेल के आने से भारतीय वायुसेना को बहुत ताकत मिली है।
आप इसे यूं समझ सकते हैं कि हमारी रक्षा तैयारियां सही दिशा में है। इसलिए भगवान न करें कि अगर चीन के साथ युद्ध की नौबत आई तो इसबार चीन के गले को दबा देने के पुख्ता इंतजाम भारतीय सेना के पास हैं। पर सवाल वही है कि क्या तब पाकिस्तान भी युद्ध में कूद पड़ेगा? अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो 1962 में चीन के साथ हुई जंग के समय पकिसतान भी उसके हक में लड़ना चाह रहा था। पर वहां शिखर स्तर पर इस बाबत कोई सर्वानुमति नहीं बनने के कारण वह मैदान में नहीं आया। उधर, पाकिस्तान ने भारत पर 1965, 1971 और फिर कारगिल में हमला बोला तो चीन भी तटस्थ रहा। वैसे उसने हमला तो 1948 में भी किया था। पर तब की दुनिया अलग थी। कहते हैं कि 1965 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान और उनके विदेश मंत्री जुल्फिकार भुट्टो को उम्मीद थी कि चीन उनके हक में आएगा, पर यह नहीं हुआ। पाकिस्तान ने कच्छ में अपनी नापाक हरकतें चालू कर दी थीं। पाकिस्तान के अदूरदर्शी सेना प्रमुख मूसा खान ने कच्छ के बाद कश्मीर में घुसपैठ चालू कर दी। वो भारत को कच्छ और कश्मीर में एकसाथ उलझाना चाहता था। लेकिन, भारतीय सेना ने उसकी कमर तोड़ दी। भारतीय सेना के कब्जे से बहुत दूर नहीं था लाहौर। यानी कश्मीर पर कब्जा जमाने की चाहत रखने वाला पाकिस्तान लाहौर को ही खोने वाला था। भारत ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) से करीब आठ किमी दूरी पर स्थित हाजी पीर पास पर कब्जा जमा लिया था। भारत ने 1971 की जंग में पाकिस्तान को तो दो फाड़ ही करके रख दिया था और कारगिल में भी उसकी कसकर धुनाई की थी। दोनों मौकों पर चीन ने अपने मित्र के हक में भारत से पंगा लेने से बचना ही सही माना था।
हालांकि यह भी सच है कि 1971 से अबतक वैश्विक स्तर पर दुनिया का चेहरा-मोहरा बहुत बदल चुका है। चीन पर पाकिस्तान की निर्भरता का आलम यह है कि वह चीन में लाखों मुसलमानों पर रोज हो रहे अत्याचारों को लेकर जुबान तक नहीं खोलता। उसे भय सताता है कि कहीं चीन उससे नाराज न हो जाए। पाकिस्तान को लंबे समय से मुंहमांगी मदद देने वाले सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने भी पाकिस्तान से दूरियां बना ली है।
पिछले साल जब सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने इस्लामाबाद का दौरा किया तो संकट में फंसे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के लिए 20 अरब डॉलर के समझौतों पर हस्ताक्षर हुए और ऐसा लगा कि सऊदी अरब और पाकिस्तान के ऐतिहासिक रिश्तों को नया आयाम मिल गया है। लेकिन हाल ही में दोनों देशों में दूरियां इसलिए हुई क्योंकि सऊदी अरब कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान के हिसाब से नहीं चला। पाकिस्तान को उम्मीद थी कि भारत ने जब जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा खत्म किया तो सउदी अरब उसके साथ भारत की निंदा करेगा। पर यह नहीं हुआ। जबकि चीन उसके साथ रहा। इसलिए कहा जा रहा है कि अगर अब भारत का चीन से युद्ध हुआ तो पाकिस्तान उसके साथ खुलकर आ जाएगा। इस आशंका के आलोक में भारत को अपनी रक्षा तैयारियों को और चाक-चौबंद रखना होगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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