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    समुदायों को बांटने वाला है उत्तर प्रदेश का कानून

  • December 02, 2020

    : कपिल सिब्बल

    जब कानून सांप्रदायिक रूप से विभाजनकारी एजेंडों से प्रेरित होते हैं तो वे समुदायों के भीतर संदेह पैदा करते हैं, जिसके फलस्वरूप अलगाव की भावना पैदा होती है. इससे सामाजिक शांति और सद्भाव पर नकारात्मक असर पड़ता है. उत्तर प्रदेश सरकार का हाल ही में ‘लव जिहाद’ से संबंधित लाया गया उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्मातरण निरोधक अध्यादेश, 2020 ऐसा ही एक सांप्रदायिक प्रयास है, जिसका उद्देश्य चुनावी लाभ हासिल करना है.

    लव जिहाद एक अवधारणा है, जिसकी रूपरेखा अस्पष्ट है. हालांकि सरल शब्दों में इसका मतलब यह है कि अगर एक मुस्लिम लड़का, एक गैर-मुस्लिम लड़की के साथ प्यार करता है, उससे शादी करना चाहता है और वह इस्लाम धर्म अपनाती है तो इस तरह के विवाह को कानून द्वारा संदेह की निगाह से देखा जाएगा और इसे निरस्त करने का अधिकार होगा. यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता की जड़ों पर हमला है क्योंकि इस तरह के विवाह को कानूनी रूप से संदिग्ध नहीं ठहराया जा सकता है. यह उस ‘निजता के अधिकार’ के मूल पर प्रहार है जिसे संवैधानिक रूप से संरक्षण प्रदान किया गया है.

    अध्यादेश सामूहिक धर्मातरणों को भी लक्षित करता है, जो अतीत में हुए हैं. इसमें 1930 के दशक में ईसाई धर्म के लिए होने वाले धर्मातरण, 1950 के दशक में दलितों द्वारा बौद्ध धर्म अपनाना और 2000 के दशक में मिजो ईसाइयों का यहूदी धर्म में धर्मातरण शामिल है. प्रलोभन के चलते धर्मातरण करने वालों में उपेक्षित जातियों और जनजातियों के लोग होते हैं जो गरिमा और भौतिक लाभ पाने की उम्मीद के चलते ऐसा करते हैं. डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म की जाति संरचना से विमुख होकर बौद्ध धर्म अपनाया था.

    इस तरह के बड़े धर्मातरण के कारण जटिल हैं और इन पर अलग से विचार करने की आवश्यकता है. प्रस्तावित कानून के तहत सामूहिक धर्मातरण के दोषियों को 10 साल तक की कैद और 50000 रु. का न्यूनतम जुर्माना हो सकता है. हालांकि यह जोर-जबरदस्ती, अनुचित प्रभाव, गलतबयानी और प्रलोभन के आधार पर होने वाले धर्मातरण को रोकने के लिए न्यायसंगत है, लेकिन अगर मुस्लिम लड़का और गैर-मुस्लिम लड़की या इसके विपरीत लोग अपनी मर्जी से शादी करने की इच्छा रखते हैं, तो इन बातों को साबित करना मुश्किल है क्योंकि यह पूरी तरह से व्यक्तिगत मामला है.

    दो लोगों के बीच विवाह उनके लिए व्यक्तिगत मामला है. यह उनमें से किसी को भी शादी से बाहर निकलने की अनुमति देता है. इसके अलावा पीड़ित व्यक्ति दूसरे के खिलाफ जोर-जबरदस्ती, धोखाधड़ी, अनुचित प्रभाव या गलत बयानी का आरोप लगाने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन ऐसा कुछ नहीं होने पर भी अगर कानून एक ऐसे व्यक्ति के लिए कोई दबाव या धोखाधड़ी नहीं होने की बात साबित करना अनिवार्य करता है जिसने स्वेच्छा से किसी अन्य धर्मावलंबी के साथ विवाह किया है तो यह अकल्पनीय बात है.

    जीवनसाथी पर स्वेच्छा से विवाह के प्रमाण पेश करने का बोझ डालना कानूनी रूप से असमर्थनीय हो सकता है. दो महीने पहले धर्मातरण की अनुमति लेने की बाध्यता वास्तव में मनमानी और निजता के अधिकार का उल्लंघन है. किसी के किसी के साथ विवाह करने और साथी के धर्म को अपनाने के व्यक्तिगत कृत्य में राज्य की कोई भूमिका नहीं है.

    अध्यादेश उन लोगों के परिवार के सदस्यों या रिश्तेदारों को एफआईआर दर्ज करने की अनुमति देता है जिसका धर्मातरण किया गया है. यह बात अध्यादेश को उन स्थितियों में उत्पीड़न का साधन बनाती है जहां अंतरजातीय विवाह स्वैच्छिक होते हैं. हमने केरल में हादिया के मामले में ऐसा होते देखा है.

    इस दंपति को उस समय आघात सहन करना पड़ा जब हादिया के पति और कुछ संगठनों को निशाना बनाया गया कि उसे कथित रूप से इस्लाम धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया गया. यह इस तथ्य के बावजूद था कि उसने लगातार आरोपों से इनकार किया, यह कहते हुए कि उसने अपने पति से मिलने से पहले ही स्वेच्छा से इस्लाम कबूल किया था.

    यह मामला तब उछला था जब केरल उच्च न्यायालय ने विवाह को इस आधार पर निरस्त घोषित कर दिया कि हादिया द्वारा अपने माता-पिता की सहमति के बिना एक मुस्लिम व्यक्ति से अपनी शादी के लिए कोई उचित स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था. अंत में, सर्वोच्च न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से पेश होने के दौरान, उसने स्पष्ट रूप से कहा कि उसने अपनी मर्जी के युवक से शादी की थी और अपनी शादी से बहुत पहले दूसरे धर्म में परिवर्तित हो गई थी.

    राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) से जांच करने को कहा गया था कि हादिया ने किन परिस्थितियों में शादी की और धर्म परिवर्तन किया. एनआईए ने अपनी जांच को व्यापक बनाने का फैसला किया. ऐसे 89 विवाहों की सूची में से इसने 11 मामलों की जांच की और अभियोजन पक्ष के साक्ष्य के अभाव में ऐसे सभी मामलों को बंद कर दिया गया.

    लब्बोलुआब यह है कि अध्यादेश एक राजनीतिक उद्देश्य के लिए कार्य करता है. इस तरह के कानून की संवैधानिकता को जब चुनौती दी जाती है तो तेजी के साथ उसका निर्णय आना चाहिए. उम्मीद है कि अदालत संवैधानिक लोकाचार और हमारे सभ्यतागत मूल्यों के साथ इस तरह के कानूनों के विरोधाभास को समङोगी. न्यायिक निर्णय में देरी का कोई भी प्रयास केवल भारत को विभाजित करने और एकजुट नहीं होने देने के इच्छुक लोगों के हाथों में खेलना होगा.

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