नई दिल्ली । 77 साल के बाइडन ओबामा प्रशासन के दोनों कार्यकाल में उप राष्ट्रपति रह चुके हैं. बाइडन का राजनीतिक सफ़र बहुत लंबा रहा है. बतौर उप राष्ट्रपति भी उनका अच्छा-ख़ासा अनुभव रहा है और उन्हें विदेश मामलों का जानकार माना जाता है. ऐसे में दुनिया के सबसे ताक़तवर मुल्क का राष्ट्रपति बनने के बाद दुनिया के अलग-अलग देशों को लेकर उनकी नीतियां क्या रहेंगी और क्या वे ट्रंप के प्रशासन के दौरान रही नीतियों से बिलकुल अलग रास्ता अख़्तियार करेंगे, इन तमाम सवालों को लेकर विश्लेषकों ने कयास लगाने शुरू कर दिये हैं.
बतौर राष्ट्रपति बाइडन की भारत को लेकर नीतियां किस तरह की रहेंगी और क्या वे डोनाल्ड ट्रंप के दौरान भारत से क़रीबी रिश्ते रखने की नीति पर कायम रहेंगे या नए प्रशासन में भारत के साथ अमेरिका का व्यवहार बदलेगा, इस पर भी तमाम तरह के आंकलन किए जा रहे हैं. कारोबार से लेकर एच1बी वीज़ा, अमेरिका में भारतीयों को मिलने वाली नौकरियों, रक्षा भागीदारी, पाकिस्तान को लेकर अमेरिका का रुख़, चरमपंथ, ईरान को लेकर फ़ैसले, कश्मीर पर रुख़ जैसे ऐसे कई अहम पहलू हैं जिन पर बाइडन की अगुवाई में बनने वाला नया प्रशासन किस तरह का रवैया रखता है यह देखना भारत के लिए बेहद अहम होगा. पूर्व राजनयिक पिनाक रंजन चक्रवर्ती कहते हैं कि किसी भी देश की विदेश नीति बदलती तो है, लेकिन उसमें सततता भी रहती है.
वो कहते हैं कि क्लिंटन के ज़माने से देखें तो उस वक़्त भारत के परमाणु विस्फोट के बाद दोनों देशों के बीच संबंधों में दरार आई, लेकिन बाद में संबंधों में सुधार भी हुआ, क्लिंटन का भारत दौरा भी हुआ. पिनाक कहते हैं, “यहां तक कि राष्ट्रपति बुश के ज़माने में न्यूक्लियर वाले सबसे विवादित मसले पर ही दोनों देशों के बीच डील भी हो गई. बाद में ओबामा दो बार भारत आए, ट्रंप का भी दो बार भारत दौरा हुआ.” वो कहते हैं, “डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दोनों में विदेश नीति में एक कॉन्टिन्यूटी जारी रही है और मुझे नहीं लगता कि बाइडन के आने के बाद इसमें कोई बड़ा बदलाव आएगा.” पिनाक कहते हैं कि हालांकि, ट्रंप और बाइडन अलग-अलग पर्सनैलिटी हैं, ऐसे में ज़ाहिर है कुछ चीज़ों में अंतर होगा, लेकिन बड़े मसलों में कोई अंतर नहीं आएगा.
वो कहते हैं, “ट्रेड, सिक्योरिटी और चरमपंथ जैसे मसलों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. इन चीज़ों पर एक कॉमन प्लेटफॉर्म बन ही गया है. कोई भी नया प्रेसिडेंट इनमें बदलाव की कोशिश नहीं करेगा.” हर्ष पंत कहते हैं कि मोटे तौर पर तो भारत और अमेरिका के संबंधों में इंडीविजुअल्स का रोल कम होता जा रहा है और संस्थाओं की भूमिका बढ़ती जा रही है और ऐसे में बाइडन भी इन संबंधों को आगे ही ले जाएंगे. ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन नई दिल्ली के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम के निदेशक प्रो. हर्ष पंत कहते हैं, “चार साल पहले ये कहा जा रहा था कि ट्रंप पता नहीं क्या करेंगे, भारत के लिए ट्रंप का रवैया कैसा रहेगा, लेकिन बाद में ट्रंप ने अपनी विदेश नीति में भारत को अहम भूमिका दी क्योंकि अमेरिका चाहता है कि भारत एक बड़ी भूमिका निभाए. ऐसा ही ओबामा के वक़्त भी हुआ था.” अमेरिका में बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद सबसे बड़ी चिंता चीन को लेकर उनकी एप्रोच से जुड़ी हुई है. ट्रंप के शासन के दौरान चीन को लेकर अमेरिका का रुख़ काफ़ी कड़ा था और इस लिहाज़ से भारत के लिए नीति अनुकूल थी. लद्दाख में चीन के साथ भारत के बढ़ते तनाव में भी अमेरिका ने खुलकर भारत का साथ दिया था.
लेकिन, अब बाइडन के आने के साथ इस बात की आशंका पैदा हो रही है कि वो चीन को लेकर नरम रुख़ अपना सकते हैं. जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के प्रोफेसर चिंतामणि महापात्रा कहते हैं, “भारत और अमेरिका के संबंध में सबसे अहम तीन मसले हैं. एक है चरमपंथ और पाकिस्तान दूसरा है चीन और तीसरा है आर्थिक संबंध.”
प्रो. हर्ष पंत कहते हैं, “डेमोक्रेटिक पार्टी में इस वक़्त काफी उथल-पुथल है और लेफ्ट साइड के लोग काफ़ी मुखर हैं.” वो कहते हैं पिछले कुछ सालों में एक चलन रहा है कि अमेरिका भारत के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देता है. लेकिन, सीएए, आर्टिकल 370 जैसे मसलों पर डेमोक्रेटिक पार्टी के लेफ्ट मेंबर्स और ख़ासतौर पर कमला हैरिस समेत भारतीय समुदाय के लोगों ने काफ़ी आपत्ति जताई थी. पंत कहते हैं कि इसी मसले पर नाराज़गी के चलते विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने प्रमिला जयपाल से मिलने से इनकार कर दिया था.
पंत कहते हैं, “ऐसे में क्या ये चीज़ें फिर से खड़ी हो सकती हैं और अगर ऐसा होता है तो भारत इसको कैसे हैंडल करेगा? हालांकि, भारत को उम्मीद है कि बाइडन सेंट्रिस्ट हैं तो वे भारत के पक्ष में ही रहेंगे.” हालांकि वो कहते हैं कि अगर डेमोक्रेटिक पार्टी में लेफ्ट का दबदबा ज़्यादा बढ़ा तो भारत पर उसका असर पड़ सकता है.
कश्मीर को लेकर दिए बयान
इस साल जून के महीने में जो बाइडन ने कश्मीरियों के पक्ष में बयान देते हुए कहा था कि कश्मीरियों के सभी तरह के अधिकार बहाल होने चाहिए. बाइडन ने कहा था कि कश्मीरियों के अधिकारों को बहाल करने के लिए जो भी क़दम उठाए जा सकते हैं, भारत सरकार उठाए. उन्होंने भारत के नागरिकता संशोधन क़ानून यानी सीएए को लेकर भी निराशा ज़ाहिर की थी. इसके अलावा उन्होंने नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न यानी एनआरसी को भी निराशाजनक बताया था.
जो बाइडन की कैंपेन वेबसाइट पर प्रकाशित एक पॉलिसी पेपर में कहा गया है, “भारत में धर्मनिरपेक्षता और बहुनस्लीय के साथ बहुधार्मिक लोकतंत्र की पुरानी पंरपरा है. ऐसे में सरकार के ये फ़ैसले बिल्कुल ही उलट हैं.” नवंबर 2010 अपने भारत दौरे में ओबामा ने कश्मीर विवाद को लेकर कहा था, “कश्मीर विवाद में हमारी कोई भूमिका नहीं है लेकिन अगर दोनों पक्ष चाहें तो हम मदद कर सकते हैं.” पिनाक कहते हैं कि डेमोक्रैट्स थोड़ा ह्यूमन राइट्स की बातें ज़्यादा करते हैं, लेकिन बाइडन कश्मीर को लेकर और धारा 370 ख़त्म करने के भारत के फ़ैसले को उलटने के लिए दबाव नहीं बना पाएंगे. महापात्रा के मुताबिक़, कश्मीर पर बाइडन के कुछ बयान भारत को पसंद नहीं आए हैं. लेकिन, वो कहते हैं, “इस तरह की चीज़ें केवल बयानों तक ही सीमित रहेंगी और इनका असर दोनों देशों के रणनीतिक संबंधों पर नहीं दिखेगा.”
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