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उप्र का चुनावी रणः जाट-मुस्लिम एकता की कठिन चुनौती

February 05, 2022

– विकास सक्सेना

वर्तमान राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले भाजपा के प्रमुख रणनीतिकार अमित शाह के साथ जाट नेताओं की बैठक और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनके घर-घर प्रचार से इस बात की चर्चा आम हो गई है कि क्या जाटों की नाराजगी के चलते भाजपा बड़े राजनैतिक नुकसान की तरफ बढ़ रही है? क्या भाजपा से नाराज जाट मतदाता सपा-रालोद गठबंधन के पाले में जाकर प्रदेश के राजनैतिक समीकरणों में बड़ा उलटफेर कर सकते हैं?

राजनीति के इन जटिल सवालों के सटीक जवाब ढूंढने के लिए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद इस क्षेत्र के सामाजिक ताने-बाने में आए बदलाव को समझना होगा। साथ ही इससे जुड़े कुछ और प्रश्न हैं जिनके उत्तर खोजे बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाना नामुमकिन है। खासतौर पर टिकट वितरण के बाद जाट और मुस्लिम समुदाय के लोगों के एक-दूसरे को धमकाने वाले जिस तरह के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं उसने राजनैतिक समीकरणों की पेचीदगी और बढ़ा दी है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में सपा-रालोद गठबंधन की सारी उम्मीदें जाट-मुस्लिम एकता पर टिकी हुई हैं। सपा गठबंधन के नेताओं को लगता था कि तकरीबन एक साल तक चले किसान आंदोलन के कारण जाट बिरादरी में जो असंतोष उपजा है वह उनके लिए सत्ता की सीढ़ी बन सकता है। लेकिन गठबंधन को उम्मीद भरी निगाहों से देखने वाले भी इस बात को स्वीकार करने में हिचक रहे हैं कि बागपत और सिवालखास जैसी जिन जाट बहुल सीटों पर गठबंधन ने किसी मुस्लिम को उम्मीदवार बनाया है, उन पर जाट मतदाता सपा गठबंधन के मुस्लिम उम्मीदवार को वोट करेंगे।

सियासी नफा-नुकसान का हिसाब लगाकर पाला बदलने वाले नेता चाहे कुछ भी कहें लेकिन नाहिद हसन, आजम खां और उनके बेटे अब्दुल्ला आजम को टिकट देकर सपा ने जाट बिरादरी के मुजफ्फरनगर दंगों से जुड़े जख्म एकबार फिर हरे कर दिए हैं। कैराना से हिन्दुओं के पलायन के आरोपी नाहिद हसन को सपा ने एकबार फिर कैराना से चुनाव मैदान में उतारा है। इसके अलावा सपा सरकार के सबसे कद्दावर मंत्री आजम खां पर मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान हत्या के आरोपियों को थाने से छुड़वाने और जाट बिरादरी के निर्दोष युवाओं को जेल भिजवाने के गंभीर आरोप लगे थे। जाट बिरादरी में आजम खां को लेकर खास नाराजगी है, ऐसे में आम जाट मतदाता को साइकिल के चिन्ह के सामने वाला बटन दबाने से पहले मुजफ्फरनगर दंगों और कैराना के पलायन की भयावह तस्वीरों को भुलाना होगा, जिनके पीछे वे आजम खां और नाहिद हसन जैसे लोगों का हाथ मानते हैं।

रालोद मुखिया जयंत चौधरी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों का बड़ा नेता माना जाता है। लेकिन वे भी जाट बिरादरी के वोट अपनी पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवारों को डलवा पाएंगे, इसे लेकर राजनैतिक विश्लेषकों में संदेह है। खासतौर पर मेरठ की सिवालखास सीट पर सपा नेता गुलाम मोहम्मद और बागपत विधानसभा क्षेत्र से अहमद हमीद को उम्मीदवार बनाए जाने से जाटों में खासी नाराजगी है। रालोद की तरफ से मुस्लिम समुदाय के लोगों को उम्मीदवार बनाए जाने पर जाटों की तीखी प्रतिक्रिया से इतना तो स्पष्ट है कि सपा तो दूर जिन विधानसभा क्षेत्रों में रालोद के टिकट पर भी मुस्लिम समुदाय के प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा गया है, वहां भी जाटों के वोट सपा गठबंधन के पक्ष में जाने की उम्मीद बहुत कम है।

सपा गठबंधन की उम्मीदों की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण कड़ी क्षेत्र के 27 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम मतदाता हैं। इस समुदाय के लोग राजनैतिक तौर पर अपेक्षाकृत अधिक जागरूक हैं। उनका पहला उद्देश्य केंद्र से मोदी और प्रदेश से योगी सरकार को सत्ता से बेदखल करना है। ऐसे में वे स्वभाविक तौर पर सपा गठबंधन के पक्ष में मतदान करने के लिए लामबंद होते दिखाई दे रहे हैं। प्रत्याशी मुस्लिम समुदाय का है या गैर मुस्लिम समुदाय का, इसका उन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। भाजपा के खिलाफ गैर मुस्लिम उम्मीदवार को वोट देने से भी उनका साम्प्रदायिक एजेण्डा प्रभावित नहीं होता। उन्हें पता है कि भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के बाद ही वे अपने विशेषाधिकारों को फिर से हासिल कर सकेंगे।

सपा की तरफ से नाहिद हसन और आजम खां जैसे नेताओं को उम्मीदवार बनाए जाने से उनकी उम्मीदों को पंख भी लगे हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि वे आंख बंद करके सपा गठबंधन के उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान करने के लिए तैयार हैं। जिन सीटों पर भाजपा और सपा गठबंधन दोनों ने गैर मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा है, वहां बसपा या कांग्रेस के मजबूत मुस्लिम उम्मीदवार उनकी पहली पसंद हो सकते हैं। खास बात यह है कि लगभग 41 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले मुजफ्फरनगर जिले से सपा गठबंधन ने किसी भी मुसलमान को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया है। यहां तक कि विधानसभा चुनाव 2017 में मीरापुर सीट से सपा उम्मीदवार लियाकत अली महज 193 वोटों से चुनाव हारे थे लेकिन यहां से भी रालोद के टिकट पर गैर मुस्लिम उम्मीदवार चंदन चौहान को चुनाव मैदान में उतारा गया है। यहां कांग्रेस ने पूर्व विधायक मौलाना जमील पर दांव लगाया है। ऐसे में मौके की नजाकत भांप कर आम मुस्लिम मतदाता और उनके नेता भले खामोश हों लेकिन उसका वोट एकतरफा सपा गठबंधन के खाते में जाएगा, इसकी संभावना कम दिखती है। इसके अलावा मुस्लिम युवाओं का एक बड़ा वर्ग एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी के भाषणों से खासा प्रभावित है और उनके उम्मीदवारों के प़क्ष में मतदान कर सकता है। इस तरह कई विधानसभा क्षेत्रों में बसपा, कांग्रेस या एआईएमआईएम उम्मीदवारों की मुस्लिम मतों में मोटी हिस्सेदारी सपा गठबंधन की उम्मीदों पर भारी पड़ सकती है।

ऐसे में यह सवाल स्वभाविक है कि अगर नाराजगी के बावजूद जाट बिरादरी का एक बड़ा वर्ग सपा गठबंधन की तरफ जाने में सकुचा रहा है तो आखिर अमित शाह और योगी आदित्यनाथ को यहां इतनी ताकत क्यों लगानी पड़ रही है? राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले अच्छी तरह समझते हैं कि भाजपा स्थानीय निकाय से लेकर लोकसभा तक हर चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक देती है। ऐसे में उत्तर प्रदेश जैसे अति महत्वपूर्ण राज्य में कोई कोर कसर छोड़ी जाएगी, इसकी कल्पना भी व्यर्थ है। इसके अलावा कुछ विधानसभा क्षेत्रों में जाट मतदाता भाजपा का मुखर विरोध करते हुए दिखाई दे रहे हैं लेकिन इनमें से अधिकांश सीटें ऐसी हैं जिन पर भाजपा के सामने रालोद के टिकट पर जाट उम्मीदवार चुनाव मैदान में ताल ठोंक रहा है।

सपा-रालोद गठबंधन की सबसे कठिन चुनौती गठबंधन के मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए जाटों का समर्थन जुटाना है क्योंकि इसके लिए उन्हें मुजफ्फरनगर दंगों से जुड़ी कड़वी यादों को भुलाना होगा। किसान आंदोलन के मंच से अल्लाहू अकबर का नारा बुलंद करके मुसलमानों को लुभाने के कोशिश करने वाले किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत को जाटों की तीखी प्रतिक्रिया झेलनी पड़ी थी। विरोध के डर से ही संभवतः वे खुलकर सपा गठबंधन के साथ दिखाई नहीं दे रहे हैं। सपा मुखिया अखिलेश यादव को मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान की गई गलतियों का अहसास है इसीलिए वे सरकार बनने पर गुण्डागर्दी और दंगे न होने देने का दावा कर रहे हैं लेकिन लोगों को इस पर ऐतबार करना मुश्किल है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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