आगरा। अंग्रेजी कवि विलियम वर्ड्सवर्थ (English poet William Wordsworth) की एक कविता का हिंदी अर्थ है – हवा (Air) को न तुमने देखा है न मैंने, पर जब लटकती हुई पत्तियां हिलती हैं, तो उनके पास से गुजरती हुई हवा महसूस की जा सकती है. आगरा के रहने वाले एक शख्स ने एक रोज ऐसी ही हवा महसूस की, उसकी ताकत पहचानी और फिर बना डाला हवा से चलने वाला इंजन (Pollution Free Air-Powered Engine)।
जी हां, चाय और पंचर की दुकान चलाने वाले पांचवी पास यह शख्स हैं फतेहपुर सीकरी के रहनेवाले त्रिलोकी। उनका दावा है कि उन्होंने अपने साथियों के संग मिलकर जिस इंजन का निर्माण किया है, वह हवा की ताकत से चलता है। उनका मानना है कि अगर इस तकनीक का इस्तेमाल कर गाड़ियों का इंजन बनाया जाए तो प्रदूषण के बड़े हिस्से से हमें छुटकारा मिल जाएगा। त्रिलोकी का दावा है कि इस तकनीक से इंजन बनाकर मोटरसाइकिल से लेकर ट्रेन तक चलाई जा सकती है, बस इंजन को गाड़ी की शेप के हिसाब से मॉडिफाइ करना होगा।
14-15 वर्षों की मेहनत का नतीजा
50 वर्षीय त्रिलोकी ने अपनी जवानी के दिनों में ही ट्यूबबेल का इंजन बनाना सीख लिया था। वे बताते हैं कि 14-15 साल पहले जब वह पंचर बनाने की अपनी दुकान पर थे तो एक दिन हवा के टैंक से पंचर ट्यूब में हवा भरते समय टैंक का वॉल्व लीक हो गया और तब हवा के दबाव से टैंक का इंजन उल्टा चलने लगा. हवा की ताकत देखकर मन में यह विचार आया कि हवा से अगर मशीन चले तो खर्च कितना कम हो जाएगा और तब से वह इसी धुन में लग गए।
पांचवीं पास त्रिलोकी का कमाल
त्रिलोकी की टीम के साथी संतोष चाहर ने बताया कि पूरी टीम में सिर्फ वे ही ग्रेजुएट हैं और बाकी सब पांचवी पास। उन्होंने बताया कि हमने इस मशीन में इंसान के फेफड़े जैसे दो पंप लगाए हैं. अभी हाथ से घुमाकर हवा का प्रेशर बनाकर इंजन स्टार्ट किया जा सकता है और फिर यह इंसानी फेफड़ों की तरह हवा खींचता और फेंकता है. हमने इसे लिस्टर इंजन की बॉडी व्हील से बनाया है. इसमें पुर्जों को काम करने के लिए मोबिल ऑयल की जरूरत पड़ती है। पेट्रोल या डीजल से चलने वाले इंजनों की तरह इसमें मोबिल ऑयल गरम नहीं होता है और डीजल या पेट्रोल गाड़ियों के इंजन के मुकाबले तीन गुना ज्यादा समय तक इस इंजन के ऑयल की चिकनाई बनी रहती है।
ये है त्रिलोकी की टीम
हवा से चलने वाला इंजन बनाने वाली टीम के मुखिया त्रिलोकी गांव नगला लोधा कौंरई के रहने वाले हैं, जबकि संतोष चाहर फतेहपुर सीकरी के नारौल गांव के. इस टीम के चंद्रभान और रामप्रकाश पंडित भी नगला लोधा कौंरई के रहनेवाले हैं, जबकि अर्जुन सिंह गांव खेरिया विललोच, रूपवास गांव भरतपुर और रामकुमार गांव मगौली के रहनेवाले हैं।
इंजन की लागत
त्रिलोकी ने बताया कि उनके पिता की जायदाद में से उनके हिस्से में एक प्लॉट और खेत आए थे, जिसकी कीमत आज के समय में लगभग 50 लाख रुपये होती. त्रिलोकी का दावा है कि इस मशीन को बनाने के लिए उन्होंने अपने खेत और प्लॉट बेच दिए और अन्य साथियों की जमापूंजी भी लग गई. यह मशीन बिना किसी अनुदान के बनाई गई है।
पेटेंट के लिए आवेदन
संतोष चाहर ने बताया कि दिल्ली में बौद्ध विकास विभाग में सितंबर 2019 को इंजन पेटेंट कराने का आवेदन किया गया था. तब हमारा इंजन तैयार नहीं था. बिना चालू इंजन दिखाए पेटेंट नहीं हो पा रहा था. इसके लिए पुर्जे कहीं मिलते नहीं थे. खुद वेल्डिंग कर और खराद मशीनों पर काम करवाकर हमने पुर्जे तैयार किए और इस दीपावली हमारा इंजन स्टार्ट हुआ और काम भी कर रहा है. हमारे पास अब कुछ बचा नहीं है और अब हमें सरकार से आस है कि हमारी मदद करे. क्योंकि अब अगर हमारा इंजन पेटेंट हो भी गया तो फैक्ट्री लगाने की हमारी हैसियत नहीं है।
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