नई दिल्ली/डूंगरपुर । राजस्थान (Rajasthan) के दक्षिणांचल में उदयपुर (Udaypur) संभाग के जनजाति बहुल वागड़ क्षेत्र केडूंगरपुर जिले (Dungarpur district) के सागवाडा कस्बे के निकट भीलूड़ा गाँव (Bhiluda village) में पत्थरों से होली खेलने (Playing Holi with Stones)की अनूठी परम्परा (Unique Tradition) सदियों सेचली आ रही है (Has been Going on for Centuries)।
होली पर कई लोगों को लहू लुहान कर गम्भीर रूप से घायल कर देने वाला यह वीभत्स खेल रोमांचक और सनसनी फैलाने वाला है। खून की इस होली को स्थानीय लोग “राड़ खेलना” कहते हैँ ।राजस्थान गुजरात और मध्य प्रदेश के संगम वाले इस आदिवासी अंचल में शौर्य प्रदर्शन करने की यह अनूठीलोक परंपरा वर्षों से बदस्तूर चली आ रही है, जिसमें ‘राड़’ के नाम पर लोग एक दूसरे पर पत्थर बरसा कर लहूलुहान कर देते हैँ ।
वर्तमान वैश्विक काल में संचार युग के बढ़ते प्रसार में मनोरंजन के नए अन्दाज़ और मायने बदल गये है लेकिनहोली के लोकारंजन पर्व पर भीलूड़ा गाँव में सदियों से खेली जाने वाली पत्थरों की होली ‘राड़’ के स्वरूप मेंराज्य सरकार और जिला प्रशासन की लाख समझाईश के बावजूद कोई बदलाव नहीं आया है और इस गांवकी पहचान यहाँ के ऐतिहासिक राम-कृष्ण के मिले जुले स्वरूप वाले रघुनाथ मंदिर के साथ पत्थरों से खेलनेवाली अनूठी होली के लिए दूर-दूर तक विख्यात हो गई है।
रंगों के त्यौहार होली के दूसरे दिन धुलेण्डी की शाम को भीलूड़ा गाँव के रघुनाथजी मन्दिर के पास स्थित मैदानमें रोमांचित कर देने वाला और दिल दिमाग़ को हिला देने वाला सनसेनीखेज नजारा देखने को मिलता है।पत्थरों से राड़ खेलने वाले सैकड़ों लोग अपनी परंपरागत पौशाकों में सज-धज कर और सिर पर साफा पहनेऔर पैरों में घुघरू, हाथों में ढ़ाल एवं गोफण लिये एक दूसरे से संघर्ष के लिए मैदान में आकर दो ग्रूप में बंट जाते हैँ ।
मद मस्त यें टोलियाँ वागड़ी गीतों और “होरिया” की चित्कारियां करते हुए सामने वाले दल के लोगों को उकसाते हुए हाथों से तथा ‘गोफण’ से एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं। मैदान में जब गोफणें तेज़ी से घुमने लगती है तो युद्ध भूमि जैसा नजारा देखने मिलता है और पाषाण युग सामंजर नजर आता है । देखते ही देखते दर्जनों लोग लहूलुहान होकर मैदान से बाहर आने लगते हैं और उन्हें उनकेसहयोगी मैदान के पास ही स्थित अस्पताल में मरहम पट्टी एवं उपचार के लिए ले जाते हैं। जब राड़ का खेलअपने चरमोत्कर्ष पर होता है तो कई बार इस अद्भुत नजारा को देखने मैदान के चारों ओर तथा सुरक्षित स्थानोंपर बैठे दर्शक भी निशाना बन जाते हैँ ।
यहाँ प्रचलित जन श्रुति और लोक मान्यता के अनुसार मेवाड़ के राणा सांगा के साथ मुग़ल बादशाह बाबर केसाथ खंडवा के युद्ध के मैदान में डूंगरपुर के महारावल उदयसिंह द्वितीय के शहीद होने के बाद उनकी रियासतदो भागों डूंगरपुर और बांसवाड़ा में बंट गई और उनके बड़े पुत्र पृथ्वी सिंह डूंगरपुर और छोटे पुत्र जगमाल सिंह बाँसवाड़ा नरेश बनें। बताते हैँ कि एक बार धुलेंडी के दिन राजा जगमालसिंह का काफिला भीलूड़ा गांव से निकल रहा था। उस समय यहां के एक पाटीदार जिसके पालतू कुत्ते का नाम भी जगमाल था को राजा ने जब उसे जगमाल नाम से पुकारते देखा और सुना तो बांसवाड़ा नरेश क्रोधित हो गए और उन्होंने अपने सैनिकों को पाटीदार को मार देने का आदेश दिया । सैनिकों के डर से जब पाटीदार भाग रहा था तो इस मैदान में उसकी मौत हो गई और उसी मैदान पर पाटीदार की पत्नी अपने पति की चिता पर जल कर सती हुई । उसने सती होने से पहले राजा और उसके सैनिकों को श्राप दिया कि आज के दिन हर वर्ष इस मैदान पर खून गिराना होगा और यदि ऐसा नहीं होने पर गांव में बड़ा अनिष्ट होगा। सती के अभिशाप और किसी अनिष्ट से बचने केलिए मैदान में खून गिराने के लिए पत्थरों की राड़ खेलने की यह परंपरा शुरु हुई थी, जो सैकड़ोँ वर्षों के बाद आज भी बदस्तूर जारी है। किंवदंतियों के अनुसार सती के वचनों का निर्वहन करने बरसों पहले धुलेंडी के दिन पत्थरों की होली और राड़ खेलने की यह परम्परा शौर्य एवं शक्ति का प्रदर्शन करने के एक आदर्श स्वरूप में लोकरंजन के लिए खेली जाती है।
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