– डॉ. मयंक चतुर्वेदी
समय का खेल देखिए, जो कल तक भारत को बुरी नजरों से देख रहा था, भारत के बुरा होने और उसके सर्वनाश की कामना करता था, जरूरत पर उन लोगों का साथ निभाने सदैव आगे रहा जोकि परम्परा से भारत विरोधी और भारत के दुश्मन हैं, आज वही देश यूक्रेन संकट काल में भारत की तरफ आशा भरी दृष्टि से देख रहा है। वस्तुत: यूक्रेन के लिए ऐसे विकट समय में संत तुलसी सहज ही याद आ रहे हैं, उन्होंने इस संदर्भ को मध्यकाल में अपनी कविता के माध्यम से बहुत ही अच्छे ढंग से व्याख्यायित किया है और बताया है कि कर्म का फल क्या होता है?
तुलसीदास की प्रसिद्ध चौपाई है, ”कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करहि सो तस फल चाखा॥ सकल पदारथ हैं जग मांही। कर्महीन नर पावत नाहीं॥” यहां संत तुलसी कहते हैं, यह विश्व कर्म प्रधान है। मनुष्य जैसा बोता है, वैसा ही काटता है। यानी जैसे वह कर्म करता है, उसे उनका वैसा ही फल मिल जाता है। यहां कोई भी हेराफेरी नहीं। अच्छे कर्म करने पर सुख-समृद्धि मिलती है। इसके विपरीत बुरे कर्म करने पर दुख और परेशानियां। संसार में अन्तहीन पदार्थ हैं, पर कर्महीन को कुछ भी नहीं मिल पाता।
वैसे तुलसी के पहले द्वापर में यही बात लोकभाषा में न कहकर संस्कृत श्लोक में श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्ध के मैदान में अर्जुन को समझाई थी। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।। यदि इससे भी पहले के त्रेतायुग में जाएं तो भगवान श्रीराम के समय में ‘वाल्मीकिरामायणम्’ में आदिकवि महर्षि बाल्मीकि लिख गए और अपने तत्कालीन समाज को समझा गए, ”कर्मफल-यदाचरित कल्याणि शुभं वा यदि वाsशुभम्। तदेव लभते भद्रे! कर्ता कर्मजमात्मन: ।। ”
अर्थात् मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। हे सज्जन व्यक्ति! कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है। यहां फिर मनुष्य की इच्छा या अनिच्छा का कोई मूल्य नहीं होता और न ही उससे कुछ पूछा जाता है। अपने हिस्से के भोग चाहे वह हंसकर भोगे या रोते और कल्पते हुए भोगे। यह उस व्यक्ति, समाज या राष्ट्र अथवा राज्य के किए गए कर्मों पर ही निर्भर है। इन्हें भोगने के सिवाय उसके पास और कोई चारा नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो बबूल का पेड़ बोकर कोई मीठे आम के फल खाने की कामना नहीं कर सकता। एक राज्य के संदर्भ में इन दिनों देखा जाए तो यूक्रेन के साथ यही घट रहा है।
आज भारत की ओर आशा भरी सहायता की दृष्टि से भरा हुआ यह देश इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ कि उसने अवसर पहचान कर, स्वेच्छा से या सहजता से कभी भी भारत का किसी मुद्दे पर साथ दिया हो। सदैव ही भारत विरोध के लिए अपनी शक्ति का प्रदर्शन करनेवाला यह देश जिस बुरे दौर से गुजर रहा है, कहना होगा कि यह उसके किए गए बुरे कर्मों का ही प्रतिफल है।
ऐसे में भारत का उसे साथ नहीं मिलना वर्तमान में यह भी बता रहा है कि आज का भारत 1947 और 61 का भारत नहीं, जब एक तरफ चीनी-हिन्दी भाई-भाई के नारे लग रहे थे तो दूसरी ओर भारत के क्षेत्रों पर कब्जा करने, सीधे युद्ध करने की चीन तैयारी कर रहा था। कश्मीर में पाकिस्तानी सेना कबायलियों के वेश में घुसपैठ करने में कामयाब रही। वस्तुत: वर्तमान भारत की कूटनीति भी यही कहती है। जो दोस्त है, वह दोस्त है और जो इस रिश्ते पर अमल नहीं कर सकता, उसके लिए हमारा परिचय एक सीमा तक अंजान ही है।
भारत ने सुरक्षा परिषद के अस्थायी सदस्य होने के बाद भी जिस तरह से रूस के खिलाफ हुई वोटिंग से दूरी बनाई है, उसने आज साफ बता दिया है कि वह अपने मित्र रूस के साथ खड़ा है। एक तरह से भारत ने यूएन में सभी देशों के सुरक्षा हितों का संदर्भ देकर नाटो को लेकर रूस की सुरक्षा गारंटियों की मांग को रजामंदी दे दी है। यूएन में भारत के रुख से रूस भी संतुष्ट है, उसने इसका स्वागत किया है। रूस कह रहा है कि ‘हम यूएन सिक्युरिटी काउंसिल में भारत के स्वतंत्र रुख का स्वागत करते हैं। यूएन सिक्युरिटी काउंसिल में भारत की गतिविधियां हमारे खास और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी के गुण जाहिर करती हैं।’
वस्तुत: यह अच्छा ही है कि भारत इस बात को नहीं भूलता कि कैसे वह और रूस पुराने रणनीतिक सहयोगी हैं। भारत का आधे से अधिक रक्षा खरीद रूस के साथ है। वास्तव में रूस, भारत का इतना बड़ा विश्वसनीय सहयोगी है कि उसने भारत-चीन में सीमा विवाद या पाकिस्तान के साथ भारत के कश्मीर विवाद पर अब तक अपनी निष्पक्षता बरकरार रखी हुई है, लेकिन ऐसे में उनका क्या किया जाए जो भारत में यूक्रेन के समर्थन में खड़े होकर सड़कों पर आन्दोलन करते नजर आ रहे हैं?
आज वो तमाम लोग, जो यूक्रेन के साथ सहानुभूति दिखा रहे हैं, समर्थन में सड़कों पर कूद पड़े हैं, मानवता की दुहाई देकर भारत सरकार पर रूस के विरोध में बयान देने और यूक्रेन को अपना समर्थन देने का सोशल मीडिया पर दबाव बनने का अभियान छेड़े हुए हैं, सच पूछिए तो उन्हें देखकर यही लग रहा है कि या तो उन्हें अंतरराष्ट्रीय संबंधों की समझ नहीं है या फिर वे हर उस बात का विरोध करना चाहते हैं, जिसका समर्थन करती हुई मोदी सरकार नजर आती है।
दरअसल, ऐसे सभी भारतीय जो यूक्रेन का समर्थन कर रहे हैं, उन्हें सदैव यह याद रखना चाहिए कि यूक्रेन हमेशा से ही भारत विरोधी रुख पर कायम रहता आया है। जब भी उसे अपनी बात रखने का जहां भी अवसर मिला, उसने भारत के विरोध में पाकिस्तान का साथ निभाया। यूक्रेन ने परमाणु परीक्षण के मुद्दे पर भारत का कभी साथ नहीं दिया और ना ही आतंकवाद के मुद्दे पर कभी भारत के साथ खड़ा हुआ। इन्हें नहीं भूलना चाहिए कि जब 1998 में पोखरण में परमाणु परीक्षण किया गया तब संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भारत पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाने के लिए आए एक प्रस्ताव के समर्थन में यूक्रेन ने यह मांग की थी कि कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाकर भारत के समस्त परमाणु कार्यक्रम बन्द करवा दिए जाएं। आतंकवाद का मुद्दा भी कुछ ऐसा ही है। यूक्रेन ने सदैव ही इस मामले में पाकिस्तान की दोस्ती निभाई, वह आतंकवाद को लेकर हमेशा ही पाकिस्तान की भाषा बोलते हुए भारत को ही दोषी करार देता आया है।
भारत के संदर्भ में यूक्रेन का अपराध यह भी है कि उसने पाकिस्तान को टी-80डी टैंक उपलब्ध कराए हैं, जिसके जवाब में भारत को रूस से टी-90 टैंक हासिल करने के लिए तेजी दिखानी पड़ी थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज पाकिस्तान के पास जो 400 टैंक हैं, वो यूक्रेन के द्वारा ही उसे बेचे गए हैं। 2020 में पाकिस्तान के II-78 एयर-टू-एयर रीफ्यूलिंग एयरक्राफ्ट की रिपेयरिंग का ठेका भी यूक्रेन ने लिया और पिछले एक दशक से पाकिस्तान के राजदूत के रूप में सेना के किसी पूर्व अधिकारी को तैनात यदि किसी देश की ओर से किया गया है तो वह भी यूक्रेन है।
कहना होगा कि यूक्रेन, पिछले तीन दशकों से पाकिस्तान को हथियार बेचने वाला सबसे बड़ा देश है, वह पाकिस्तान को अब तक 12 हजार करोड़ रुपये से अधिक के हथियार बेच चुका है। इस वक्त तक भी वह फाइटर जेट टेक्नोलॉजी, स्पेस रिसर्च ट्रांसफर करने और उसमें नए अविष्कार करने की दिशा में वह पाकिस्तान की पूरी मदद कर रहा है। इसका अर्थ हुआ कि आनेवाले समय में पाकिस्तान स्पेस में जो भी विस्तार करेगा, उसके पीछे यूक्रेन मुख्य भूमिका में दिखाई देगा। इसलिए जब भारत में कोई व्यक्ति, संस्था, समूह, संगठन यूक्रेन के समर्थन में नजर आए तो उससे जरूर पूछिए कि जो देश, भारत विरोधी प्रस्ताव लाता है, आतंकवाद परस्त पाकिस्तान का सबसे बड़ा हमदर्द बना बैठा है, क्या भारत के लोगों को यह सभी कुछ बातें भूलकर उसका समर्थन करना चाहिए? क्या पंडित नेहरू के भारत की तरह ही चीनी-हिन्दी भाई-भाई की गलती फिर से दोहराना चाहिए? या इतिहास से सबक लेकर ऐसे देश के विरोध में अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को देखते हुए यदि सीधे नहीं भी जाना हो तो तटस्थ रहकर अपना रुख स्पष्ट कर देना चाहिए?
(लेखक फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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