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    ठाकरे सरकार को दो धक्के

  • September 10, 2020

    – डॉ. वेदप्रताप वैदिक

    महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की गठबंधन सरकार की कई गांठें एक साथ ढीली पड़ रही हैं। कोरोना की महामारी ने सबसे ज्यादा महाराष्ट्र की जनता को ही परेशान कर रखा है। इसके बाद उसपर एक साथ दो मुसीबतें और आन पड़ी है। एक तो फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत की और दूसरी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मराठा आरक्षण को रद्द करने की।

    कल जिस तरह से कंगना के दफ्तर को मुंबई में आनन-फानन में तोड़ा गया, क्या उससे शिवसेना और ठाकरे की छवि कुछ ऊंची हुई होगी? बिल्कुल नहीं। शिवसेना यह कहकर अपने हाथ धो रही है कि इस घटना से उसका क्या लेना-देना है? यह कार्रवाई तो मुंबई महानगर निगम ने की है। शिवसेना की सादगी पर कौन कुर्बान नहीं हो जाएगा? क्या लोग उसे बताएंगे कि महानगर निगम भी आपकी ही है? इस घटना से साफ जाहिर होता है कि महाराष्ट्र सरकार ने गुस्से में आकर यह तोड़फोड़ गैर-कानूनी ढंग से की है। अदालत ने उसपर रोक भी लगाई है। कंगना ने अपने दफ्तर के निर्माण पर यदि 48 करोड़ रु. खर्च किए थे तो महाराष्ट्र सरकार पर कम से कम 60 करोड़ रु. का जुर्माना तो ठोका जाना चाहिए।

    शिवसेना का कहना है कि उनकी सरकार ने सिर्फ अवैध निर्माण-कार्यों को ढहाया है। हो सकता है कि यह ठीक हो लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि कंगना को पहले नोटिस क्यों नहीं दिया गया और इसी तरह के अवैध-निर्माण मुंबई में हजारों हैं तो सिर्फ कंगना के दफ्तर को ही निशाना क्यों बनाया गया? यह ठीक है कि कंगना के बयानों में अतिवाद होता है, जैसे मुंबई को पाकिस्तानी ‘आजाद कश्मीर’ कहना और अपने दफ्तर को राममंदिर बताना और शिव सैनिकों को बाबर के पट्ठे कहना आदि। लेकिन कंगना या कोई भी व्यक्ति इस तरह की अटपटी बातें कहता रहे तो भी उसका महत्व क्या है? उसे फिजूल तूल क्यों देना? यह प्रश्न शरद पवार ने भी उठाया है। यह मामला अब भाजपा और शिवसेना के बीच का हो गया है। इसीलिए केंद्र सरकार ने कंगना की सुरक्षा का विशेष प्रबंध किया है।

    ठाकरे-सरकार को जो दूसरा धक्का लगा है, वह उसके मराठा आरक्षण पर लगा है। सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार के मराठा जाति के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा-संस्थाओं में 16 प्रतिशत आरक्षण के कानून को भी फिलहाल अधर में लटका दिया है। वह अभी लागू नहीं होगा, क्योंकि कुल आरक्षण 64-65 प्रतिशत हो जाएगा, जो कि 50 प्रतिशत से कहीं ज्यादा है। कई राज्यों ने भी अदालत द्वारा निर्धारित इस सीमा का उल्लंघन कर रखा है। मैं तो चाहता हूं कि नौकरियों में जन्म के आधार पर आरक्षण पूरी तरह खत्म किया जाना चाहिए। सिर्फ शिक्षा में 80 प्रतिशत तक आरक्षण की सुविधा दे दी जानी चाहिए, जन्म के नहीं, जरूरत के आधार पर!

    (लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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