संघ साधे सब सधे… संघ ना सधे तो मुश्किल हो जाए …एक वक्त था जब संघ सत्ता से दूर रहता था…सेवा कार्य तक सीमित रहता था… वंदे मातरम् और सभ्यता तथा संस्कृति का देशभर में प्रचार करते हुए, अपनी पैठ रखता था… वो जनसंघ की विचारधाराओं का सशक्त प्रहरी हुआ करता था… लेकिन राजनीति से परहेज करता था… जो संघ में रहते थे वो राजनीति से दूरी रखते थे… संघ के लोग भाजपा की मदद करते थे और शर्त यह होती थी कि वो राजनीति में संघ के आदर्शों, मान्यताओं और संस्कृति का सत्कार करेंगे… उनकी विचारधाराओं का सम्मान करेंगे… उनकी राह को अपनी राह समझेंगे… अपनी इसी मान्यता के चलते व्यक्तित्व और देश निर्माण के लक्ष्य को साधता संघ दिनों-दिन लोगों के दिल तक पहुंचता गया… वो पिछड़ों और आदिवासियों से लेकर ग्रामीण अंचलों की सुरभि समेटे देश के अन्र्तमन को समझने, साधने और उनके भाव तक पहुंचने का माध्यम बन गया… विवाह बंधन तक का त्याग कर संघ के इस लक्ष्य में सहभागिता करने वाले प्रचारक कांधे पर झोली लटकाए चने-भुंगड़े खाते हुए दूर अंचलों तक लोगों के दिलों में पैठ बनाने का काम करते रहे… वे गरीबी के अनुभव समेटते थे… दर्द की शक्ति सिंचित करते थे… और लोगों के अन्तर्मन से जुड़ते थे… इसी दौरान जनसंघ से भाजपा में परिवर्तित होकर अपनी सत्ता का विस्तार करते भाजपाई तब संघ के पथ संचलन तक सीमित रहते थे… कभी-कभी सेहत के लिए शाखाओं से जुड़ते थे… यह उनके भाजपाई होने का प्रमाण भी था और चुनाव के समय संघ के स्वयंसेवकों से सहायता की अपेक्षा भी… देखते ही देखते संघ इतना शक्तिशाली हो गया कि उसके स्वयं सेवकों ने राजनीति के जिस उम्मीदवार पर हाथ धरा वो जीत की ग्यारंटी तक पहुंचने लगा… अपनी ताकत समझने और परखने के बाद दशकों तक सत्ता से दूर रहने वाले संघ ने दावेदारों के सुझाव से शुरू की गई मंत्रणा को धीरे-धीरे परिवर्तित करते हुए स्वयं की दावेदारी में बदल दिया… अब हर क्षेत्र के प्रत्याशी के साथ संघ के प्रत्याशी का नाम भी जुड़ा होता है… जब-जब भाजपा के नेताओं में द्वंद होता है, तब-तब उसका फायदा संघ के दावेदारों को मिलता है… भाजपा भी संघ के दावेदारों को टिकट देकर इस बात से निश्चिंत हो जाती है कि उसकी जीत की जिम्मेदारी संघ उठायेगा… संघ का यह रूतबा शहर और राज्यों से बढ़ता हुआ तब देश के शिखर पर पहुंच गया जब संघ के प्रचारक रहे मोदीजी ने प्रधानमंत्री के रूप में देश संभाला और उसके परिणाम में देश ने मजबूत नेतृत्व पाया… कभी सत्ता से दूर रहने की कसमें खाने वाले संघ को भी अब सत्ता का स्वाद लग गया है… सत्ता में उसकी भागीदारी बढ़ गई है, इसलिए भाजपा में जो भी राजनीति करना चाहता है उसे उसके लिए ना केवल भाजपा का सजदा जरूरी हो गया है, बल्कि उसे अब संघ को साधना और संघ के साथ सहभागिता करना भी अनिवार्य है… यह और बात है कि यदि यही हाल रहा तो संघ की कसौटी पर खरे उतरने वाले लोग जहां सत्ता में आएंगे वहीं भाजपा की दरी उठाने वाले दरी उठाते रह जाएंगे और संघ समर्थित नेता अवतरित होकर सत्ता का भोग लगाएंगे…
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